आपकी कलम

हैं नाथ...ऐसे होते है अनाथों के नाथ? : स्वामी परमानन्द जैसे निस्पृह संत की प्रतिष्ठा को आश्रम संचालकों ने लगाया दांव पर

नितिनमोहन शर्मा
हैं नाथ...ऐसे होते है अनाथों के नाथ? : स्वामी परमानन्द जैसे निस्पृह संत की प्रतिष्ठा को आश्रम संचालकों ने लगाया दांव पर
हैं नाथ...ऐसे होते है अनाथों के नाथ? : स्वामी परमानन्द जैसे निस्पृह संत की प्रतिष्ठा को आश्रम संचालकों ने लगाया दांव पर

सवा करोड़ साल का सरकारी अनुदान, इससे ज्यादा दानदाताओं का दान, फिर भी अनाथ मासूम जांच में भूखें निकले 

आश्रम संचालकों के साथ वे अफसर भी दोषी, जिनके जिम्मे आश्रम की नियमित जांच की थी जिम्मेदारी 

सेकड़ो सामाजिक संस्थाएं, क्लब, एसोसिएशन, कोई भी झांकने तक नही जाता अनाथ आश्रमों में, सब अफसरों के भरोसे छोड़ रखा 

 नितिनमोहन शर्मा...✍????

...इंदौर में इन दिनों सब तरफ ये ही तो शोर छाया हुआ हैं कि पौधे सिर्फ रोपें ही नही, उनकी देखरेख भी करें। ये हिदायतें भी तो इंदौर की फिज़ाओ में गूंज रही है कि केवल दिखावे के लिए पौधें को न रोपें। इससे अच्छा वह पौधा नर्सरी में ही रहें ताकि उसकी भ्रूण हत्या न हो।

सब इस ताक़ीद से इत्तेफाक भी रखते हैं कि पौधें तब ही रोपे जब आप उनकी नियमित देखभाल कर सके, खाद पानी दे सके। उस पौधे के प्रति अनुराग रखे। तब ही वो पौधा पुष्पित, पल्लवित होगा। वृक्ष बनेगा। फल देगा, फूल देगा और छाया भी। लेकिन ये क्या...पौधे नर्सरी से लेकर तो आ गए। उनके रक्षण पोषण का खर्चा भी ले आये। पौधे रोप भी दिए औऱ फिर उन पौधों को मरने के लिए छोड़ दिया। न उन्हें समय पर खाद मिली न पानी। धूप तक भी नसीब नही हुई। सीधे मौत की चादर में नन्हे नन्हे पौधे लपेट दिए गए। 

...है नाथ, मासूम बच्चे भी तो पौधे होते हैं न? जिन्हें बड़े जतन से पाल पोसकर वृक्ष के समान बड़ा किया जाता हैं। ऐसे ही मासूम नोनिहाल को, जिनका कोई नही, देवी अहिल्या की नगरी में पौधे के समान रोपे गए थे न किसी आश्रम में? इस उम्मीद के साथ कि इनकी नियमित देखरेख होगी। खाद के समान समय पर "दाना पानी" मिलेगा। ये मासूम भी पोधों की तरह पुष्पित-पल्लवित होंगे। बागबान बनकर सामने आश्रम संचालक आये। जिनके जिम्मे अपने चमन यानी आश्रम में आये इन अनाथ बच्चों के लालन पालन व पोषण की जिम्मेवारी थी। ये नाथ बने थे उन अनाथों के जिनका बालापन ही बिन मा-बाप के हो चला था। जो सामने था, वो ही उनका नाथ था। 

..है नाथ, क्या ऐसे होते है अनाथों के नाथ? ऐसे होते है बागबान? किसी चमन के माली ऐसे होते हैं? जिन्हें आश्रम में लाकर रोपा गया, उनके प्रति ऐसी बेरुखी? इतनी निष्ठुरता? वे तिल तिल कर दम तोड़ते जाए। भूखे पेट से शहर से बिदा हो जाये, जहां गली गली भोजन भंडारों की परंपरा हैं। सुनी आंखे, भीगी आंखे, साफ पानी-शुद्ध भोजन को तरसती आंखे दम तोड़ गई। अनाथ तो थे। क्या फर्क पड़ता किसी को। लपेटकर एक चादर में पटक दी पार्थिव देह एक तरफ। दूजी तरफ चमन के माली के ठहाके? कितना दर्दनाक। वह भी इंदौर जैसे शहर में। बेहद शर्मनाक। 

...है नाथ, मासूम वो भी अनाथ और उस पर भी दिव्यांग। विशेष बच्चो की श्रेणी वाले मासूम बच्चें। जो अपने साथ हो रहे सौतेले व्यवहार के विषय मे कुछ बोल नही सकतें। फिर भी दिल नही पसीजा? कौन से जेब से पैसे लग रहे थे उनके दाना पानी के? सरकारी मदद भी भरपूर औऱ दानी इंदौर का भी भरपल्ले दान। फिर भी अनाथ बच्चें कुपोषण का शिकार? एनीमिया के रोगी। हैजा-कालरा के पेशेंट? क्या ये सब बीमारी एक दिन में घर कर गई? जांच में तो ये पाया गया कि पेट मे निवाला भी नही था। यानी भूखे थे अनाथ बच्चे, जब उन्होंने एक एक कर प्राण त्यागना शुरू किया। उनकी मौत भी उन पत्थर दिलो को पसीजा नही पाई, जिनके जिम्मे इनकी परवरिश थी। इस दुःखद मौत पर ग़मगीन होने की जगह ठहाके? 

...है नाथ, दिन ब दिन बीतते जा रहे हैं। अनाथों की मौत का कोई नाथ अभी तक तय नही हुआ हैं। जो आश्रम के संचालक बने है, उन्हें अभी तक सिर्फ नोटिस ही मिले हैं। वो भी तय समय मे जवाब देने के। जांच दल जांच कर रहें हैं। कमी बेशी सामने आ रही हैं। पर जवाबदेही अभी तक तय नही हो रही हैं। न उन आश्रम के संचालको की, जो इन मासूमो के कथित पालक थे और न उन अफसरों की जिनके जिम्मे ऐसे आश्रमो की नियमित जांच की जिम्मेदारी हैं। तभी तो दोनों मिलकर हंस रहें हैं। आश्रम संचालिका भी, जांच अधिकारी भी। ये हंसी उस बेशर्म सिस्टम को भी दांत दिखा रही है जो इस घटना के बाद एकाएक जागा। अन्यथा नीम बेहोशी में था। वह भी सालाना सवा करोड़ देने के बाद भी सिस्टम गहरी नींद में था। अब कार्रवाई के नाम पर क्या होगा? इस पर सबकी नजर है। 

निस्पृह संत की प्रतिष्ठा से खेल गए ट्रस्टी-संचालक 

...है नाथ, अनाथ बच्चो के हिस्से की खुराक स्वयम डकार जाने वाले आश्रम संचालको को रत्तीभर भी उस संत की प्रतिष्ठा की चिंता नही हुई जिसके संतत्व की कमाई ऐसे ही बच्चो, धर्मार्थ अस्पतालों पर खर्च होती हैं। जो निस्पृह संत हैं। जिन पर आज तक कोई उंगली नही उठी हो। जिनका " मनसा, वाचा, कर्मा" एक समान हैं। आश्रम संचालक, ट्रस्टियों को अहसास भी है कि इस घटना के बाद उस संत के मन पर क्या बीत रही होगी। कितने भरोसे से स्वामी परमानंदजी ने आश्रम की जिम्मेदारी दी थी। बरसो से स्वामी जी के साथ तुम सबका नाता है। फिर भी "सवा करोड़" में ऐसे कैसे नियत डोल गई जो बच्चो के पेट पर खर्च करने की बजाय अपनी आर्थिक सेहत मजबूत कर ली। शादीजा..ये कोई आजकल का नाम है?जब से स्वामी परमानंदजी के श्रीचरण इंदौर में पड़े, ये नाम तब से ही उनसे जुड़ा हैं। स्वामीजी की शिष्या परम् विदुषी साध्वी ऋतुम्भरा जी का आत्मीय नाता भी तो आश्रम के ट्रस्टी परिवारों से रहा है। फिर भी इन सन्तो की जीवनभर की पुण्याई दांव पर लगा दी गई? आश्रम संचालिका से ज्यादा जवाबदेही तो संचालक व ट्रस्टियों की बनती है न? संचालिका का क्या नाता स्वामीजी के परमार्थ के प्रकल्पों से? दिल से तो आप ट्रस्टी जुड़े थे। अब स्वामी जी को क्या जवाब देंगे आप? 

 क्या ये पढ़े-लिखो का शहर है? 

इंदौर में सकेडो की संख्या में सामाजिक संस्थाए है। दर्जनो पारमार्थिक संगठन है। सेकड़ो क्लब है। किटी पार्टी के नाम से बन संवरकर रोज फोटो खिंचाते लेडीज क्लब हैं। पुण्य कमाने वाले हजारो है जो इन अनाथों के बीच जाकर अपने पुण्य का दर्शन व प्रदर्शन करवाते रहते हैं। लेकिन इन सबमे से से किसी एक ने भी ये जानने या झांकने की जुर्रत की कि ये अनाथ कैसे जी रहे हैं। आगुन्तकों के समक्ष नहला धुलाकर बच्चे आये दिन बेठा दिए जाते है लेकिन आगुन्तकों के जाते ही..?? इस बात की पड़ताल की जिम्मेदारी क्या सिर्फ सरकारी महकमे की ही रहेगी? या उन अफसरों के भरोसे जो आश्रम में मौत के बाद भी हंसता खिलखिलाता रहे। क्या शहर के इन संस्थाओ, सामाजिक संगठनों, बन संवरकर पार्टिया करने वाले महिला क्लबो की ये जिम्मेदारी नही की वे गाहे बगाहे ही सही इन आश्रमो में झांक ले? अगर ऐसा होता तो भूखे प्यासे दिव्यांग अनाथ यू एक एक कर तोड़ते? पढ़े लिखे लोगो के इस इंदौर को ये एक मर्तबा सोचना ही होगा।

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