Thursday, 07 August 2025

आपकी कलम

तमिल से लेकर मराठी पर राजनीति, अंग्रेजों की भड़काई आग आज भी सुलग रही : Dr Anant Vijay Paliwal

Dr Anant Vijay Paliwal
तमिल से लेकर मराठी पर राजनीति, अंग्रेजों की भड़काई आग आज भी सुलग रही : Dr Anant Vijay Paliwal
तमिल से लेकर मराठी पर राजनीति, अंग्रेजों की भड़काई आग आज भी सुलग रही : Dr Anant Vijay Paliwal

Dr Anant Vijay Paliwal की रिपोर्ट्स

1953 में आंध्र प्रदेश के गठन से लेकर अब तक भाषा विवाद ने देश की राजनीति बदल दी है. भाषा विवाद से डीएमके(DMK) और शिवसेना से लेकर टीएमसी(TMC) तक ने ताकत पाई है. भारतीय भाषाओं की इस लड़ाई का फायदा विदेश से आई अंग्रेज़ी को हो गया और वो मजबूत हो गई.

भारत में भाषाएं केवल संपर्क का जरिया नहीं हैं, ये क्षेत्रीय पहचान, राजनीतिक प्रभाव और सामाजिक एकीकरण में बड़ी ही जटिलता से बुनी हुई हैं. ये क्षेत्रीय पहचान का एक शक्तिशाली प्रतीक हैं. यही कारण है कि इन्हें राजनीतिक लामबंदी के लिए आसानी से हथियार बनाया जाता रहा है. भाषा का राजनीतिकरण अक्सर वास्तविक भाषाई चिंताओं को ढंक देता है, जिससे क्षेत्रवाद बढ़ता है और आंतरिक संघर्ष पैदा होते हैं. जिसके फलस्वरूप आखिर में राष्ट्रीय एकता कमजोर होती है.

 
 
 
मध्यकाल में ‘अवधी' और ‘ब्रज' ऐसी ही भाषाएं थीं, जिन्होंने भारत के कई राज्यों की सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए अपनी एक अलग पहचान बनाई. पूरे उत्तर भारत से लेकर महाराष्ट्र और दक्षिण भारत तक शायद ही कोई ऐसा विद्वान/संत रहा होगा, जिसने इन भाषाओं का प्रयोग अपनी रचनाओं में न किया हो. संस्कृत के प्रकांड विद्वान तुलसीदास ने भी ‘रामचरितमानस' इसी जनभाषा अवधी में लिखी तो वहीं मुस्लिम कवि जायसी ने अपनी पद्मावत के लिए भी इसी अवधि को चुना.भारत में भाषा विवाद या संघर्ष के प्रमाण ऐतिहासिक तौर पर कम ही दिखाई देते हैं. फिर भी सत्ताओं के प्रश्रय तले मौजूद भाषाओं जैसे संस्कृत, पाली, तमिल आदि में वर्चस्व के संकेत मिलते रहे हैं. संभवतः यही कारण है कि इन भाषाओं को विकास करने का अधिक अवसर भी मिला. बावजूद इसके आमजन की जैविकी में क्षेत्रीय भाषाओं का महत्व बना रहा. आमजन की अस्मिता, पहचान और संस्कृति की वे सुदृढ़ वाहक बनी रहीं. कई अवसर ऐसे भी आए जब इन क्षेत्रीय भाषाओं ने स्थापित शास्त्रीय भाषाओं को पीछे छोड़ते हुए खुद को स्थापित किया.

मध्यकाल में राजनीतिक और साहित्यिक स्तर पर कई भाषाओं की श्रेष्ठता के प्रमाण तो मिलते हैं, लेकिन भाषाई संघर्ष के नहीं. दरअसल भारत की भाषाई विविधता की गहरी ऐतिहासिक जड़ों ने किसी भी एक भाषाई पहचान को थोपने का कोई भी प्रयास नहीं किया. कोई भाषा किसी काल खंड में महत्वपूर्ण हो सकती है, लेकिन ये अन्य पर थोपी नहीं जा सकती. ऐसा करते ही इसे प्रतिरोध का सामना करना पड़ सकता है, क्योंकि यह सदियों के जैविक भाषाई विकास और क्षेत्रीय विशिष्टता को चुनौती देता है.

भारत में भाषाओं की बहुलता के प्रमाण शताब्दियों से मिलते रहे हैं. लगभग डेढ़ हजार साल के ज्ञात इतिहास में हजारों भाषाएं बनीं और लुप्त भी हुईं. कई भाषाओं ने बड़े साम्राज्यों की तरह लंबे समय तक अपने परचम लहराए तो कई उनके पतन के साथ ही क्षीण भी हुईं. इस विस्तृत अवधि में, भारतीय उपमहाद्वीप ने कई साम्राज्यों को बनते देखा तो कई साम्राज्यों को छोटे राज्यों में टूटते हुए भी देखा. इस बनने-टूटने के क्रम में पिछले हजार वर्षों के दौरान लोगों का विस्थापन एक राज्य से दूसरे राज्यों में होता रहा है. ऐसे में भाषा का स्थानांतरण और नई भाषा से उसका मिश्रण भी कोई नई चीज नहीं है. लेकिन यह मिश्रण भी किसी खाने में एक छौंक या बघार की तरह ही हो तो अच्छा है. होना यही चाहिए कि यह उसकी प्रकृति को बदले बिना उसके स्वाद को बढ़ा भर दे. यह जाहिर सी बात है कि बघार अधिक होते ही भोजन में कड़वाहट आ जाती है. इसलिए यह जरूरी है कि विस्थापित भाषाएं किसी क्षेत्रीय भाषा की प्रकृति में आमूलचूल परिवर्तन किए बिना उसमें अपने कुछ शब्द डाल भर दें. इसके विपरीत जब भी भाषाओं ने एक दूसरे पर हावी होने की कोशिश की है तो यह कड़वाहट और संघर्ष का कारण बनी है.

अंग्रेजों ने भारत में भाषा को एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया

औपनिवेशिक काल में अंग्रेजों ने भारत में भाषा के महत्व को समझते हुए इसे एक टूल या हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया. राष्ट्र (नेशन) की पश्चिमी अवधारणा के अंतर्गत उन्होंने ये बताने का प्रयास किया कि पूरे भारत की अपनी कोई एक सर्वमान्य भाषा नहीं है, इसलिए ये एक राष्ट्र भी नहीं है. बल्कि यह विभिन्न भाषा-भाषी कई राष्ट्रों का संकुल है. अपनी इस अवधारणा को और पुख्ता करने के लिए उन्होंने न केवल हिंदी-उर्दू विवाद को जन्म दिया, बल्कि क्षेत्रीय स्तर पर अन्य भाषिक अस्मिताओं को भी भड़काने का काम किया. इसका असर ये हुआ कि लोगों ने भाषा के आधार पर अलग राज्यों की मांग शुरू कर दी. इसका पहला उदाहरण आंध्र आंदोलन के रूप में दिखाई देता है. तेलुगु भाषा को केंद्र में रखते हुए 1911 के आसपास शुरू हुए इस आंदोलन के अंतर्गत ‘आंध्र महासभा' का गठन हुआ, जिसमें एक अलग तेलुगु राज्य की मांग की गई. भाषा को लेकर कुछ ऐसा ही विवाद तमिलनाडु में भी हुआ. तमिलनाडु में हिंदी विरोधी भावना की जड़ें भी कहीं न कहीं इसी अपनिवेशिक शासन की देन थी. 1937 में, मद्रास प्रेसीडेंसी की कांग्रेस सरकार ने, सी. राजगोपालाचारी के नेतृत्व में, पहली बार स्कूलों में अनिवार्य हिंदी शिक्षण शुरू किया, जिससे तुरंत विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए. ई.वी. रामासामी (पेरियार) और जस्टिस पार्टी जैसे शख्सियतों के नेतृत्व में इन शुरुआती आंदोलनों ने हिंदी थोपने को तमिल संस्कृति का अपमान और भाषाई साम्राज्यवाद का कार्य माना, अक्सर इसे एक व्यापक ब्राह्मण विरोधी आंदोलन से भी जोड़ा गया.

भाषा के आधार पर मांग के बाद बना आंध्र प्रदेश

इन आंदोलनों का असर इतना गहरा था कि आजादी के तुरंत बाद इन आंदोलनों ने और तीव्रता पकड़ ली. इस आंदोलन के एक नेता पोट्टी श्रीरामुलू की 56 दिनों की भूख हड़ताल के बाद मृत्यु हो गई. जिससे तेलुगु भाषी क्षेत्रों में व्यापक दंगे फ़ैल गए. श्रीरामुलु की मृत्यु के बाद विरोध प्रदर्शनों की तीव्रता ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को सिर्फ तीन दिनों के बाद आंध्र राज्य बनाने की घोषणा करने के लिए मजबूर कर दिया. संसद ने बाद में सितंबर 1953 में आंध्र राज्य अधिनियम पारित किया, जिससे 1 अक्टूबर, 1953 को आंध्र राज्य का औपचारिक निर्माण हुआ. इस नए राज्य में मद्रास राज्य के तेलुगु-भाषी हिस्से से 11 जिले शामिल थे. आंध्र राज्य के निर्माण ने पूरे भारत में भाषाई आधार पर सीमांकन के लिए एक व्यापक आंदोलन को प्रेरित किया. इसने प्रदर्शित किया कि भाषाई पहचान एक शक्तिशाली शक्ति थी, जिसे स्वतंत्रता के बाद के राष्ट्र-निर्माण प्रक्रिया में अनदेखा नहीं किया जा सकता था.

भाषा की इस नई राजनीति ने भारत के भावी राजनीतिक परिदृश्य को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. भाषा भले ही लोगों को संगठित करने और एकीकरण का एक महत्वपूर्ण साधन है, लेकिन अक्सर यह एक एकीकृत शक्ति के बजाय एक विभाजनकारी उपकरण के रूप में कार्य करती है. 1950 के दशक में भाषाई आधार पर राज्यों का पुनर्गठन इसका एक क्लासिक उदाहरण है. इसका उद्देश्य प्रशासन को आसान बनाने और भेदभाव को कम करने का था, लेकिन अनजाने में इसने क्षेत्रवाद के बीज बोए, जिससे राष्ट्रीय एकता की भावना कमजोर हुई. 1953 में भाषा के आधार पर आंध्र प्रदेश के गठन ने एक ऐसी मिसाल कायम की, जिसने अन्य भाषाई समूहों को अपने राज्यों की मांग करने के लिए प्रोत्साहित किया. इससे व्यापक राष्ट्रीय हितों के बजाय भाषा के आधार पर देश का विखंडन आरम्भ हो गया. इसी कड़ी में 1960 में भाषाई पहचान से प्रेरित होकर बॉम्बे राज्य का महाराष्ट्र और गुजरात में विभाजन हो गया, जिसने राष्ट्रीय एकता को भी कमजोर किया.

वहीं स्वतंत्रता के बाद हिंदी बनाम तमिल संघर्ष ने भी बहुत तेजी पकड़ी. स्कूलों में हिंदी को अनिवार्य बनाने के बाद के प्रयासों का व्यापक विरोध हुआ. तमिलनाडु में गैर-हिंदी नेता हिंदी को एकमात्र आधिकारिक भाषा बनाने के प्रयासों से नाराज थे. द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) जो द्रविड़ कड़गम का ही एक वंशज था, हिंदी का विरोध करने में एक अग्रणी शक्ति बन गया. राजनीतिक बिसात पर यह डर फैलाया गया कि यह गैर-हिंदी भाषियों को हाशिए पर धकेल देगा और उनके रोजगार के अवसरों को कम कर देगा, खासकर सरकारी क्षेत्रों में. प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का 1963 का राजभाषा अधिनियम, जिसका उद्देश्य अंग्रेजी के निरंतर उपयोग को सुनिश्चित करके आशंकाओं को दूर करना था, डीएमके को पूरी तरह से संतुष्ट नहीं कर पाया, जिससे तनाव और बढ़ गया.

हिंदी विरोधी आंदोलन की वजह से कांग्रेस ने तमिलनाडु में खो दी जमीन

जैसे-जैसे 26 जनवरी, 1965 की समय सीमा नजदीक आई, हिंदी विरोधी आंदोलन ने महत्वपूर्ण गति पकड़ी, जिसमें कॉलेज के छात्र सबसे आगे थे. 25 जनवरी को, मदुरै में एक पूर्ण पैमाने पर दंगा भड़क उठा, जो तेजी से मद्रास राज्य में फैल गया और दो महीने तक बिना रुके जारी रहा. विरोध प्रदर्शनों में हिंसा, आगजनी, लूटपाट, पुलिस फायरिंग और लाठीचार्ज सभी कुछ हुआ. आधिकारिक अनुमानों में लगभग 70 मौतें हुईं, जिनमें दो पुलिसकर्मी भी शामिल थे, और हजारों गिरफ्तारियां हुईं. राज्य सरकार ने अशांति को दबाने के लिए अर्धसैनिक बलों को बुलाया. इसका असर तमिलनाडु में एक बड़े राजनीतिक बदलाव के रूप में हुआ. आंदोलनों के कारण राज्य में एक बड़ा राजनीतिक पुनर्गठन हुआ. 1967 के आम चुनाव में, कांग्रेस पार्टी, जो व्यापक रूप से हिंदी थोपने से जुड़ी थी, को निर्णायक हार का सामना करना पड़ा. इस चुनाव में हर कैबिनेट मंत्री और मुख्यमंत्री हार गए. डीएमके, जिसने हिंदी के विरोध का नेतृत्व किया था, ने भारी जीत हासिल की और राज्य में सरकार बनाई. इससे तमिलनाडु की राजनीति में कांग्रेस का प्रभुत्व प्रभावी रूप से समाप्त हो गया. 1965 की घटनाओं ने तमिलनाडु में हिंदी के प्रति एक गहरा संदेह पैदा किया. इस भाषाई संघर्ष से उत्तर भारतीयों के प्रति क्षेत्रीय शत्रुता को बढ़ावा मिला. इस भाषाई विवाद ने राष्ट्रीय एकीकरण को भी मुश्किल बना दिया.

आंध्र और तमिलनाडु की घटनाओं के बाद हिंदी विरोधी आंदोलन एक तरह से कई राज्यों के लिए राजनीतिक बिसात पर एक ऐसे मोहरे की तरह हो गया जिसे मनचाहे ढंग से कभी भी आगे किया जा सकता था. ऐसा हुआ भी, इसके बाद भारत में राजनीतिक दलों ने अक्सर भाषाई पहचान को वोट-बैंक रणनीति के रूप में इस्तेमाल किया, जिससे भारतीय समाज में गहरी दरारें पैदा हुईं. इस क्षेत्रीय पक्षपात ने राष्ट्रवाद की भावना को कमजोर किया और राज्यों और समुदायों के बीच संघर्ष को बढ़ावा दिया. बाद के वर्षों में यह संघर्ष भारतीय राजनीति में अक्सर देखने को मिलता रहता है.

पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) जैसे राजनीतिक दलों ने हिंदी और केंद्रीय नीतियों का विरोध करने के लिए बंगाली भाषाई गौरव का उपयोग किया. 'हिंदी भाषी बाहरी लोगों' की खिलाफत और खुद को बंगाली संस्कृति के रक्षक के रूप में स्थापित किया गया.

वहीं 2017 में बेंगलुरु मेट्रो में हिंदी में साइनबोर्ड के विरोध में प्रदर्शन किए गए. इस प्रकार के हिंदी विरोधी आंदोलनों का उपयोग राजनीतिक दलों और कन्नड़ समर्थक समूहों द्वारा मतदाताओं को लामबंद करने के लिए किया गया. कन्नड़ समर्थक समूहों ने कन्नड़ की अधिक मान्यता और उपयोग के लिए अपना दबाव तेज कर दिया. जिसमें कन्नड़ न बोलने के लिए एक केएसआरटीसी कंडक्टर पर हमला किया गया. साथ ही बैंक और मेट्रो कर्मचारियों को कन्नड़ का उपयोग न करने के लिए कई सार्वजनिक चुनौतियों का सामना करना पड़ा. राज्य सरकार की कन्नड़ समर्थक नीतियों के चलते 60% कन्नड़ साइनबोर्ड अनिवार्य कर दिया गया. यह कदम भाषाई पहचान के इसी दावे और शक्तिप्रदर्शन को दर्शाता है.

इसी प्रकार महाराष्ट्र में ‘शिवसेना' और ‘महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना' (मनसे) जैसे दलों ने मराठी भाषाई राष्ट्रवाद पर अपना राजनीतिक आधार बनाया. 2008 में हिंदी भाषी प्रवासियों पर हमलों जैसी घटनाओं ने दिखाया कि भाषा-आधारित राजनीति कैसे नफरत को बढ़ावा दे सकती है और आंतरिक सद्भाव को नुकसान पहुंचा सकती है. महाराष्ट्र के हाल के विवादों में एक सरकारी प्रस्ताव शामिल है, जिसमें नई शिक्षा नीति के तहत अंग्रेजी और मराठी माध्यम के स्कूलों में कक्षा 1 से 5 तक हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में अनिवार्य किया गया. इसने महाराष्ट्र में व्यापक आलोचना और राजनीतिक प्रतिक्रिया को जन्म दिया. सार्वजनिक स्थानों पर मराठी उत्पीड़न की घटनाएं आम हो गईं, जैसे कि एक जोड़े ने पिज्जा के लिए भुगतान करने से इनकार कर दिया, जब तक कि डिलीवरी राइडर ने मराठी नहीं बोला. इसी तरह रेलवे कर्मचारियों को हिंदी बोलने के लिए फटकार लगाई गई. ऐसी कई अन्य घटनाएं सार्वजनिक जगहों पर घटीं. जिससे सरकार को आदेश वापस लेना पड़ा और पुनर्मूल्यांकन के लिए एक समिति का गठन करना पड़ा.

भाषाई गौरव का वोट-बैंक की राजनीति के लिए हथियार के तौर पर इस्तेमाल

महाराष्ट्र की वर्तमान घटनाओं में भी मराठी भाषा को लेकर जिस प्रकार नया विवाद खड़ा किया जा रहा है वह शिवसेना और मनसे की अपनी खोई हुई राजनीति को पाने की कोशिश अधिक प्रतीत होती है. भाषाई पहचान के पीछे राजनीतिक दलों की हताशाएं अक्सर अस्मिता और पहचान के ऐसे दावे पेश करती रही हैं. वर्तमान महाराष्ट्र में घट रही घटनाएं भी इससे परे नहीं हैं. भाषा का राजनीतिक हेरफेर अक्सर वास्तविक भाषाई चिंताओं को ढंक देता है. भाषाई गौरव को वोट-बैंक की राजनीति के लिए एक शक्तिशाली उपकरण के रूप में प्रयोग किया जाता रहा है. ये हालिया घटनाएं इस बात को रेखांकित करती हैं कि किस प्रकार भाषा विवाद बड़ी तेजी से व्यापक सामाजिक-राजनीतिक संघर्षों में बदल दिये जाते हैं. लेकिन कहीं न कहीं यह भी उतना ही बड़ा सच है कि भाषा विवाद शायद ही कभी केवल भाषा के बारे में होते हैं.

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