आपकी कलम
मोटी रोटी, पतली दाल, रस्से वाला कद्दू-सतीश जोशी
सतीश जोशी
आत्ममीमांसा (30)
सतीश जोशी, वरिष्ठ पत्रकार
इस लेख और आने वाली एक और कड़ी में उन वाकयो की चर्चा करुंगा, जो छप नहीं पाई थी। हम यह जानना चाहते थे जेल के भीतर मीसाबंदियों की दिनचर्या कैसी है, क्या खाते हैं और उसकी गुणवत्ता कैसी है। उस समय तो हमने लिखा था कि सभी को नियमित चाय, नाश्ता, भोजन मिलता है। पर वह कैसा है, कितना पोष्टिक है और बुजुर्गों की सेहत के अनुकूल है या नहीं, यह नहीं लिख पाए।
मैं क्षमाप्रार्थी हूँ...
सेंसरशिप की वजह से लोकतंत्र नायकों की बुरी स्थिति नहीं बता पाने के लिए एक कलमकार के नाते क्षमाप्रार्थी हूँ, पर आज उन सभी सूचनाओं को साझा कर रहा हूँ। सुरजीत सिंह जी की आत्मा से क्षमाप्रार्थी हूँ कि आपको दिया वचन तोड़ रहा हूँ। सुबह पतली, काली और खूब उबली हुई कड़क चाय के साथ भुने हुए चने नाश्ते में मिलते थे, जिनको नौजवान कैदी तो आसानी से खा लेते थे, जिनके दांत कमजोर या आधी-अधूरी बत्तीसी थी, वे इन चनों को न चबा पाते थे, न पचा पाते थे।
कष्ट में भी हंसते रहते...
फिरभी अपनी संकल्प शक्ति के सहारे सुबह सबेरे सभी लोग खूब हंसते, झूमते और इस चाय नाश्ते का भी आनंद लेते। हम मालवा के लोग दोपहर की चाय के भी आदि होते हैं। चाय न मिले तो दोपहर बड़ी सूनी-सूनी लगती है। सभी मीसाबंदियों ने जेलर से कहा कम से कम दोपहर की चाय की व्यवस्था भी कर दीजिए। उन्होंने नियम-कायदों का हवाला दिया और कहा ऐसा कोई प्रावधान नहीं है।
यदि चाय, शक्कर ला दो तो....
एक बात साथ में कही कि यह हो सकता है बशर्ते आप लोग चाय, शक्कर की व्यवस्था परिवार वालों से करवा लो, तो उस बजट से दूध की व्यवस्था जेल प्रशासन कर देगा और आपको दोपहर की चाय मिल जाएगी। जब मीसाबंदियों ने कहा हम अपराधी नहीं हैं, हम राजनीतिक बंदी हैं और कानून के तहत अदालत में विचाराधीन हैं, साबित अपराधी कैदी नहीं हैं। तब जेल प्रशासन ने बताया कि आप सब सी श्रेणी के अपराधियों में दर्ज किए गए हो, इसलिए इसी श्रेणी की सुविधा ही मिलेगी।
श्रमदान नहीं करा रहे...
यह शुक्र मनाइए कि आपसे श्रमदान नहीं लिया जा रहा है। इस तरह परिवारजनों को मुलाकात के दौरान बताया तो चाय, शक्कर की व्यवस्था हो जाने पर दोपहर की चाय और सेंव परमल मिलने लगी। भोजन के बारे में जो बताया गया वह तो शर्मनाक ही है।
भोजन कच्चा और अपोष्टिक...
चार मोटी-मोटी रोटी, दुबली-पतली दाल, रस्से वाली कद्दू की सब्जी मिलती थी। शाम को स्थायी रुप से छिलके वाली आलू की सब्जी, जिसमें पानी ज्यादा, आलू कम और कम मसाले और नमक, मिर्च के अभाव वाली मिलती थी। मोटी रोटी बीच में मोटी, कच्ची और चारों तरफ जले हुए किनारे, कैसे खाएं और किस तरह पचाएं, यह तो खाने वाला ही जानता होगा, वह कितना पोष्टिक था।
कलेक्टर, कभी नहीं सुनते...
शिकायत कोई सुनने वाला नहीं था, सप्ताह में एक बार कलेक्टर व्यवस्था, हाल-चाल जानने आते थे, वे भी इस कान से सुनते और दूसरे कान से निकाल देते थे। शुरु में तो सब कुछ ऐसा लगता कि कोई बड़ा अत्याचार हो रहा है। फिर धीरे-धीरे सबको आंदोलन की शक्ति और लक्ष्यों ने पक्का मजबूत बना दिया।
राष्ट्र के लिए सब कुछ सहा...
राष्ट्र के सामने मौजूदा लोकतांत्रिक संकट से निकालने के लिए यह चाय, नाश्ता कोई मायने नहीं रखता था। दादाभाई नाइक, मामा बालेश्वरदयाल, रामनारायण शास्त्री और माणिकचंद बाजपेयी के बौद्धिक ने सबके आत्मबल को बढ़ाया। लेकिन कच्ची रोटी, अधपचे चनों ने अपना असर दिखाना शुरु किया, लोग बीमार होने लगे।
बीमार हुए तो....
अधिकांश का पेट खराब रहने लगा। डाक्टर को कभी दिखा पाते, कभी नहीं। अंततः रामनारायण जी शास्त्री का आयुर्वेद काम आया। वे परिवारजनों से दवाई मंगवाते और सबको उससे राहत मिलने लगी। वे किन परिस्थितियों में रहते, सोते और नित्यकर्म करते थे, अगली कड़ी में बताऊंगा।