आपकी कलम

सुख-शांति और आनंद जीवन में स्थाई चाहिए तो तुरंत करें यह काम

paliwalwani
सुख-शांति और आनंद जीवन में स्थाई चाहिए तो तुरंत करें यह काम
सुख-शांति और आनंद जीवन में स्थाई चाहिए तो तुरंत करें यह काम

याद रहे, पुण्य और पाप कर्म दोनों ही बांधते है। एक लोहे की जंजीर है तो एक सोने की। लोहे की जंजीर से छुटकारा पाने का मन भी करता है। लेकिन अगर जंजीर सोने की हो, तो छूटने का मन नहीं करेगा। पाप कर्म बंधन है तो पुण्यकर्म भी बंधन है। जब तुम सुख में होते हो तो इसमें एक इच्छा होती है।

फिर मन करता है कि अब यह परिस्थिति बनी रहे। हमेशा सुख बना रहे। यह कामना जब मन में उत्पन्न होती है तो हम भूल जाते हैं कि परिस्थिति परिवर्तनशील होती है। कोई भी परिस्थिति कायम नहीं रहती। कभी राजा, कभी रंक, कभी बहुत कुछ, कभी कुछ भी नहीं। क्या समुद्र में रहकर कोई जहाज एकदम शांत रह सकता है? जब समुद्र के पानी में ही लहरें उठ रही हों, तो भला जहाज कैसे शांत रह सकता है।

समय बदलता रहता है। बदलाव समय का स्वरूप है। इक्कीस साल पहले हमारा जो शरीर था, वह आज नहीं है। गंगा के घाट पर बैठकर गंगाजी को देखते हो तो तुम्हें लगता है कि गंगा वही है, ऐसा नहीं है। गंगा वही नहीं है, बल्कि घाट वही है। देखते-देखते गंगा में बहुत जल बह गया। समय का चक्र चलता ही रहता है।

हमारी दृष्टि में वर्तमान, भूत, भविष्य काल ऐसे भेद हो सकते हैं। समय अपने आप में न भूत है, न वर्तमान है, न भविष्य है। सब कुछ समय के भीतर हो रहा है, और समय में सब बदल रहा है। लेकिन समय नहीं बदलता। वह अव्यय, अखंड है। यह समय, यह काल परमात्मा का ही स्वरूप है। गीता में कहा गया है कि परमात्मा सबके भीतर है, सबके बाहर भी है। जो भीतर है उसको हम अंतर्यामी कहते हैं, और जो बाहर है उसको हम काल स्वरूप कहते हैं।

अंतर्यामी हैं प्रभु। तुम्हारे भावों, तुम्हारे विचारों सबके वह साक्षी हैं। तुम उनसे कुछ छिपा नहीं सकते। बाहर वह काल स्वरूप हैं। भीतर हैं तो तुम्हारी सांसें चल रही हैं। मजे की बात है, भीतर रहकर वह जीवन दे रहे और बाहर रहकर वो जीवन हर रहे हैं। हर सांस के साथ तुम्हारा जीवन नष्ट होता जा रहा है। जिस तरह से प्रकाश और सागर की तरंगें होती हैं।

वैसे ही हम भी एक तरंग हैं चैतन्य के महासागर की। उठी हुई तरंग को जीवन कह दो, लेकिन वास्तव में वह तरंग पैदा नहीं हुई। वह उसी चैतन्य के महासागर में तुम्हें दिखी। वह दिखना जब बंद हो गई तो उसको चाहे तुम मृत्यु कह लो। वास्तव में मृत्यु जैसी कोई चीज है ही नहीं। गीता में भगवान श्रीकृष्ण समझाते हैं, आत्मा किसी काल में भी न तो जन्म लेती है, न मरती है और न उत्पन्न होकर फिर होने वाली ही है। यह अजन्मी, नित्य, सनातन और पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मरती।

मनुष्य के जीवन में तीन बातें है। शोक, मोह और भय। शोक इसलिए कि आनंद नहीं है। मोह इसलिए कि सुख नहीं है, और भय इसलिए कि शांति नहीं है। तुम चाहते हो आनंद, सुख-शांति और ये तीनों स्थायी हों तो शोक, मोह, भय को छोड़ो। ईश्वर हम सभी के हृदय में है पर हमारा अहंकार उन्हें प्रकट नहीं होने देता। अहंकार को त्यागना है क्योंकि मन की ऐसी स्थिति में मनुष्य सोचने लगता है कि सब मेरा है। यह विनाश का मूल है।- संत रमेश भाई ओझा

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