धर्मशास्त्र
आत्मा को शरीर के रुप में पहचानो
paliwalwani"आत्मा यदि हमें शरीर के रूप में दिखाई दे रहा है तो इस आत्मा को शरीर के रुप में ही पहचानने की आवश्यकता है।शरीर को मिटाने की जरूरत नहीं है"
घडे को देखो।घडा जिससे बना है उसको देखो।
शरीर को मत देखो।शरीर जिससे बना है उसको देखो।"
एक मित्र ने बंधन और स्वतंत्रता के बारे में पूछा है।इसका स्पष्टीकरण चाहा है कि वास्तविकता क्या है?
सुप्रसिद्ध ज्ञानी महात्मा स्वामी अखंडानंद जी कहते हैं -
आत्मा को शरीर के रुप में पहचानो।'
दोनों के भेद पर बहुत जोर है ऐसे में इस तरह का वक्तव्य अनोखा है।
श्रीरमण महर्षि इसे इस तरह कहते हैं -"शरीर 'मैं' नहीं है। हमारे स्वयं के बिना शरीर नहीं हो सकता था।
क्यों हमें शरीर को आत्मा से(स्वयं से) भिन्न देखना चाहिए?"
हम हैं इसलिए शरीर है।हम उल्टा सोचते हैं कि शरीर है इसलिए हम हैं,शरीर नहीं रहेगा तो हम भी नहीं रहेंगे। मृत्यु का भय इसीलिए सताता है।
मृत्यु सबसे बडा झूठ है।यह सच इसलिए लगता है क्योंकि हमने अपने आपको तथा शरीर को एक मान लिया है।
हमारी पहचान यह शरीर बन गया है।
कोई हमसे पूछे-तुम कौन हो?
तो हम कहेंगे-यह शरीर तथा इससे जुडी सभी बातें।
जब हम कहते हैं स्वयं,शरीर ही है,इस तरह स्वयं को पहचानते हैं अर्थात दोनों को एक ही मान लेते हैं तब बंधन लागू हो जाता है।
तब स्वतंत्रता चाहिए वर्ना यह बंधन बहुत तकलीफ़ देता है।
आदमी पूछता है क्यों इतनी तकलीफ़?यह किस जुर्म की सजा है जो हमने किया ही नहीं?
बात तो ठीक है लेकिन अज्ञान और ज्ञान का खेल तो ऐसे ही चलता है। हार-जीत तो होते हैं पर उससे सुखी दुखी होना अलग बात है।
हम सुखी दुखी क्यों हों, वास्तविकता का पता क्यों न लगायें?
हम शरीर से अलग हैं ऐसा नहीं -
यह शरीर हमसे अलग है।हम हैं तो यह भी है।फर्क यह है,हम चेतन हैं।यह बदले जाने वाले वस्त्रों के समान है,हम वही रहते हैं।
हम क्यों अपने आपमें स्थायी रुप से शांत और स्थिर नहीं रहते चाहे जितने वस्त्र अर्थात् शरीर बदले जायें?
हमारी अंतरंगता हमारे स्वयं के अस्तित्व बोध के साथ होनी चाहिए,न कि शरीर के साथ।
शरीर के साथ जो घनिष्ठता है वह महंगी पड़ती है।
घनिष्ठता,आत्मीयता, अंतरंगता अपने होने के साथ होनी चाहिए बदले जाने वाले वस्त्र के समान शरीर के साथ नहीं।
यह शरीर जड वस्तु मात्र है।इसे अहंकार अभिमान का विषय बनाना बाधक है।
स्वाभिमान इसी अर्थ में रचनात्मक है, सकारात्मक है।
यह शरीर 'मैं' नहीं है,'मैं' तो स्वयं है।
मैं मैं है,शरीर शरीर है।
"इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहु: क्षेत्रज्ञ इति तद्विद:।।
यह शरीर क्षेत्र है,इसे जाननेवाला क्षेत्रज्ञ है।
इस शरीर को स्वयं के विस्तार की तरह चाहे देखा जाय मगर स्वयं,इस शरीर का विस्तार नहीं है।
स्वयं की तरफ से शरीर साथ में हो सकता है,शरीर की तरफ से स्वयं साथ में नहीं है।
शरीर, आधारित की तरह है,
स्वयं, आधार की तरह है।
आधार सदा स्वतंत्र है।
आधारित शरीर साथ है तो यह ऐसा है जैसे कोई व्यक्ति सदा किसी ज्ञानी के साथ रहना चाहता हो।
ज्ञानी स्वतंत्र है,किसीके साथ होने,न होने से अप्रभावित, स्वतंत्र, अपने आपमें लीन।
ऐसा सभी के साथ है।हर जन्म में कोई न कोई शरीर साथ हो जाता है। कोशिश अपने आपमें ही रहने की होनी चाहिए।
स्वयं से कौन और कैसे छूट सकता है?स्वयं अनादि अनंत आत्मसत्ता है।
हम स्वयं को शरीर की तरफ से उस पर आधारित देखते हैं यही भूल है।यह बंधनकारी है।
हमें स्वयं को स्वयं की तरफ से ही देखना चाहिए,न कि क्षणभंगुर शरीर की तरफ से।
जब हम स्वयं को और शरीर को एक मान लेते हैं तकलीफ शुरू हो जाती है।
यह संसार दिखता ही तभी है जब हम शरीर से एकरुप होकर उसमें बैठ जाते हैं तथा उसकी खिड़की दरवाजों से देखने लगते हैं।
यह शरीर अलग है,हमसे परे है यह स्पष्ट अनुभव हो तो हम विश्वव्यापी चेतना के साथ एक हो जाते हैं।
शरीर के साथ स्वयं को एक मानना सर्वव्यापी से तोड देता है।
यही नहीं यह एकत्व की मान्यता एक अलग ही झूठे अस्तित्व को निर्मित करती है जिसे अहंकार कहते हैं।
हम स्वयं को(आत्मा को)भूलकर अहंकार की तरह व्यवहार करने लगते हैं।
इसे मन भी कहा है।शरीर से तादात्म्य,मन से तादात्म्य के कारण होता है।
मन कहता है -मैं सोचता हूं, मैं कर्ता हूं,
हमें लगता है हम सोचते हैं,हम करते हैं। जबकि हम कुछ भी सोचते या करते नहीं -हम सिर्फ हैं मौन तथा अपने आपमें सदैव स्थित।
मन ही बंधन,मन ही मुक्ति इसे इस तरह समझाया है-
विचार और विचार कर्ता एक अविभाजित घटना है।
दोनों एक साथ उठते और मिटते हैं।भ्रम से लगता है विचारकर्ता, विचार से अलग है।
लेकिन ऐसा है नहीं,विचार ही विचार और विचारकर्ता बन गया है।मन ऐसे ही कार्य करता है।
हम जो शुद्ध चेतना हैं इस मानसिकता में खो जाते हैं, हमें लगता है हम विभाजित हैं।
हमें लगता है हम विचारकर्ता हैं तथा विचारों पर क्रिया प्रतिक्रिया कर रहे हैं।
पर जैसे शरीर,शुद्ध चेतना से अलग है इस तरह विचार कर्ता और विचार में बंटा मन भी शुद्ध चेतना से अलग है।अलग ही उसका खेल चल रहा है बिना हमसे पूछे।
शरीर को स्वयं का विस्तार माना जाय मगर क्या मन भी स्वयं का विस्तार है जो इस सृष्टि के रूप में है?
तब इसे ईश्वर की तरफ से समझना होगा क्योंकि यह ईश्वरीय खेल ही है।
महर्षि तो माया को ईश्वर से अलग करते ही नहीं।वे कहते हैं -
'माया और वास्तविकता एक ही हैं और वही हैं।
One and the same.
'एकोहं बहुस्याम्।
जो है ही
वही तो एक से अनेक हुआ है अपने आपमें अपने आपके द्वारा जैसे हम अपने मन में पूरी मानसिक सृष्टि बन जाते हैं जैसे स्वप्न में पूरी स्वप्न सृष्टि हम ही होते हैं -दोस्त दुश्मन, सुखदाई, दुखदाई सब।