आपकी कलम

क्या अब इंदौर में जान की कीमत नहीं है... : नितेश पाल

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क्या अब इंदौर में जान की कीमत नहीं है... : नितेश पाल
क्या अब इंदौर में जान की कीमत नहीं है... : नितेश पाल

बाकलम - नितेश पाल

गुरूवार शाम को दफ्तर की ओर जा रहा था। शास्त्री प्रतिमा की ओर से रीगल पुल पर चढ़ ही रहा था। उसी समय पीछे से एम्बूलेंस का सायरन सुनाई दिया। ओर पुल पर हालत ये थी कि चार कारें आगे चल रही थी। उनसे चिपककर तीन इ-रिक्शे और दोपहिया वाहन थे।

बाइक को एक ओर करने की कोशिश में लग गया, लेकिन कर नहीं पा रहा था, क्योंकि पुल के उपर की ओर जो गाडियां चल रही थी वो बेहद धीमी चाल से ओर रूक-रुक कर बढ़ रही थी। क्योंकि इन सबके आगे पुल के बीच के हिस्से में एक सिटी बस जिसका नंबर MP09 PA 0750 था। वो बीच सडक़ में चल रही थी।

जैसे तैसे पुल पर गाडियों को पार कर चढऩे के बाद जब रीगल की ओर नीचे उतरने लगा तो सायरन की आवाज और तेज होती जा रही थी। लेकिन सिटी बस बेहद धीमी रफ्तार से बीच सडक़ पर ही चल रही थी। जबकि उसके आगे कोई नहीं था। ऐसे में पीछे की गाडियां भी धीमे चल रही थी। जबकि सिटी बस के ड्रायवर को सायरन भी सुनाई दे रहा था और उसे साइड मिरर में एम्बूलेंस भी दिख रही थी।

सिटी बस ने पुल के नीचे उतरने और बस स्टैंड की ओर मुडने तक जगह नहीं दी जिसके कारण एम्बूलेंस को रास्ता ही नहीं मिल पा रहा था। एक पल के लिए एम्बूलेंस में मौजूद जिंदगी के लिए लड़ रहे मरीज और उसके परिजनों की स्थिति क्या हो रही होगी ये सोचने लग गया। नगर निगम के चुनावों में ट्रैफिक मुख्य मुद्दा था। ट्रैफिक को सुधारने के दावे भी काफी किए गए।

लेकिन नगर निगम अपनी ही सिटी बस कंपनी से चलने वाली सिटी बसों को नहीं सुधार पा रही है। इनके कारण लगने वाले जाम को तो सहन किया जा सकता है, लेकिन क्या ये लापरवाही किसी की जान ले ले तो भी उसे माफ किया जाए।

नगर निगम के जिम्मेदार जिनमें नेता हो या अफसर सब दिखावे के काम हो या फिर कुछ बनाने का काम ट्रैफिक सुधार के नाम पर जरूर करते हैं, क्योंकि इससे नेता की इमेज और जेब दोनों में इजाफा होता है। लेकिन शहर की दुविधा बनती जा रही अपनी सिटी बसों का इलाज नगर निगम क्यों नहीं कर रही ये समझ नहीं आता।

छोटी ग्वालटोली से लेकर सरवटे के बीच में बीच सडक़ पर खड़ी सिटी बस हो या एमजी रोड के राजबाड़ा से लेकर रीगल तक के संकरे हिस्से में एक के पीछे एक चलती ये सिटी बसें जाम लगाती हैं ये अफसरों को नहीं दिखता। जबकि सिटी बसों का मुल ये था कि ये केवल स्टॉप पर ही रूकेंगी। लेकिन इनमें और टेम्पो में अब कोई अंतर नजर नहीं आता।

15 साल पहले जब टेम्पो और नगर सेवा हटे थे तो लगा था ट्रैफिक सुधरेगा, लेकिन उनकी जगह आई ये सिटी बसें तो और भी ज्यादा खतरनाक हो गई है। इनकी हालत वैसे ही हो गई है जैसे किसी बीमारी के इलाज के लिए ली दवाएं रिएक्शन के बाद शरीर में जहर बन जाती हैं। शहर की बात करने वालों को ये जहर ये नजर आएगा इसकी उम्मीद तो कम है। ये वो सपना लगता है जो शायद ही कभी पूरा होगा। 

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