आपकी कलम
चौपट हो चुकी हैं चौपाटी : सराफा चौपाटी बस अब नाम की, इन्दौरी क्वालिटी, स्वाद नदारद- नितिनमोहन शर्मा
नितिनमोहन शर्मा● रबड़ी, बासुंदी, गुलाब जामुन, मावा बाटी जैसे इन्दौरी व्यंजन की जगह विदेशी आयटम की भरमार
● स्वाद, गुणवत्ता ही थी चौपाटी की पहचान, ख़ालिस इन्दौरी तो अब जाते ही नही सराफा चौपाटी
● चाइनीज, कांटिनेंटल और मेंगोलियन डिश के साथ धंधेबाजों का चौपाटी पर कब्ज़ा
● विस्थापन ही विकल्प नही, स्वाद व गुणवत्ता पर हो जोर, परम्परागत स्वाद को ही मिले जगह
विस्थापन नही, इन्हें पहले विरासत से जोड़ो। चुनो उनको जो बाप दादा के समय से बैठ रहें हैं। उन्हें बाहर का रास्ता दिखाओ जो नेताओ, उनके पट्ठो की वसूली के दम पर चौपाटी में जबरन घुस गए हैं। उन्हें भी बेदख़ल करो जो इन्दौरी स्वाद के अलावा विदेशी व्यंजन का गोरखधंधा चौपाटी पर ले आये।
उन्हें तो कही भी बैठने मत दो जो स्वाद और गुणवत्ता को ताक में रख बस सराफा के साख का इस्तेमाल कर जेब भर रहा हैं। रबड़ी, बासुंदी, गुलाब जामुन, मावा बाटी, कलाकंद, भुट्टे का किस, आलू की टिकिया और साबूदाने की खिचड़ी की चौपाटी से गुमशुदगी दर्ज हो। उसकी जगह चाइनीज, कांटिनेंटल और मेंगोलियन डिशेश का शुरू हुआ चलन बन्द हो। सिर्फ इन्दौरी स्वाद को प्राथमिकता हो। विस्थापन तो आसान है। विरासत से जोड़ना कठिन। जोड़ना ही पड़ेगा। कब तक इस शहर में खाने पीने के नाम पर लूट मचती रहेगी और कब तक मनमर्जी के दाम और मुनाफा तय होगा? आखिर नाम तो आपके मेरे अपने इंदौर का ही खराब हो रहा है न?
● नितिनमोहन शर्मा
काहे की अब सराफा चौपाटी? वो तो कब की चौपट हो गई। चौपाटी की बरसो पुरानी साख पर तो कब ही से बट्टा लग गया हैं। ख़ालिस इन्दौरी तो अब सराफा चौपाटी की तरफ झांकता भी नही। उसे पता है स्वाद के नाम पर वहां क्या बिक रहा हैं? बाहर से आकर इंदौर आकर बसे लोगो के दम पर चौपाटी की रात रंगीन हैं। ये क्या जाने यहां क्या और किस क्वॉलिटी का मिलता हैं? स्वाद और गुणवत्ता से दूर लोगो के लिए अब चौपाटी आना बस "स्टेटस सिंबल" भर रह गया है जो एक सेल्फी तक जाकर सिमट गया है कि हम भी गए थे इंदौर की मशहूर सराफा चौपाटी। बस, नवधनाढ्य वर्ग की इत्ती सी हसरत सराफा चौपाटी को जिंदा किये हुए हैं। शेष अब उस चौपाटी में कुछ बचा ही नही जो कभी इंदौर के स्वाद की शान थी।
कहा है अब वो लच्छेदार रबड़ी जिसे देखकर ही मुंह मे पानी आ जाता था। दोना तक चाट जाते थे चटोरे इन्दौरी। सर्रर से गले के नीचे उतर जाने वाली बासुंदी कही नजर आती हैं? कहा से आएगी? उसे बनाना और फिर खिलाना कठिन जो हो चुका है और अब " पिज़्ज़ा पीढ़ी" से जुड़े कितने लोग जानते हैं कि बासुंदी नाम की भी कोई मिठाई हैं? गुलाब जामुन तो नजर आते है लेकिन कभी पूछना कि चाशनी कितनी पुरानी हैं? जवाब सही तो मिलना नही लेकिन ये जानकर हैरानी हो जाएगी कि चाशनी आठ पन्द्रह दिन नही, 8-10 माह तक पुरानी हैं। बस हर दिन गर्म करना हैं और उसी में गुलाब जामुन तैरते रहते हैं।
मावा बाटी तो नदारद हो चली हैं। कभी कत्थई रंग की हथेलीभर बड़ी मावाबटी चौपाटी की शान हुआ करती थी। अंदर से सुर्ख केसरिया मावाबाटी अब कौन बनाता हैं? कौन खाता हैं? कलाकंद का नामोनिशान नही है अब। ये ही गुणवत्ता वाली मिठाईया ही तो सराफा की पहचान थी। नमकीन के नाम से यहां भुट्टे के किस की शुरुआत हुई थी।फिर आलू टिकिया आई। फिर साबूदाने की खिचड़ी। बस ये ही मीठे के साथ नमकीन था चौपाटी की पहचान। इसे पाने ही तो इन्दौरी सराफा जाते थे। अब कौन जाता हैं, सिवाय उनके जिनके लिए आज भी चौपाटी कौतूहल का विषय हैं। मूल इन्दौरी तो अब झांकता भी नही। उसे पता है वहा क्या और कैसा मिल रहा हैं। मेहमान आने की सूरत में ही मूल इन्दौरी सराफा तक आता है। वह भी मेहमान का मान रखने के लिए।
● चौपाटी पर अब है क्या इन्दौरी स्वाद?
अब चौपाटी के नाम पर क्या बिक रहा है सराफा में? ग्रिल में फंसे डिजाइनर आलू? कोयले की आंच पर चिकन जैसा पकता पनीर टिक्का? सफेद-लाल ग्रेवी का पास्ता? मन्चूरियन, नूडल्स के लच्छे न? तरह तरह के पराठे, दाल मखानी क्या चौपाटी के व्यजंन थे? चौपाटी के नाम पर क्या ख़िला रहे है धंधेबाज? क्या इन्दौरी स्वाद ख़िला रहें हैं? नाम इंदौर की मशहूर रात्रिकालीन सराफा चौपाटी का और ख़िला क्या रहें हैं?
चाइनीज, कांटिनेंटल और मेंगोलियन डिशेस न? जी हां बस ये ही अब सराफा की पहचान हैं जिसमे सड़े हुए चीज और नकली मक्खन के साथ लोग खा रहें हैं। जब इन्दौरी स्वाद ही नही तो फिर इंदौर के नाम पर ये ठगी क्यो? ये सब पेट सड़ाते विदेशी व्यंजन तो दिनभर शहरभर में मिलते है। तो फिर इनके नाम पर सराफा की राते क्यों काली हो रही है?
● विस्थापन नहीँ, विरासत से जोड़ो
सराफा चौपाटी को लेकर शहर के जिम्मेदार विस्थापन पर फ़ोकस कर रहें हैं। लेकिन उसके पहले ये तो तय हो जाये कि दूसरी जगह जा रही चौपाटी वो ही है न, जो होलकरयुगीन थी? जहां ग्राहक को दिया स्वाद और गुणवत्ता ही दुकानदार की कमाई मानी जाती थी। दुकानदार की स्वयं की साख ही ग्राहक को चौपाटी तक लाती थी।
वो जज्बा अब कहां? जब नाम इंदौर और उसके खानपान की तहज़ीब का तो फिर उसी शहर के नाम पर लूट क्यो? इससे शहर की साख नही जाती? पहले घर से ही सब व्यंजन तैयार होकर आते थे, पूरे इत्मीनान से। ग्राहक, स्वाद और साख के लिए जान झोंक देते थे चौपाटी वाले। अब कितने है ऐसे दुकानदार?
अब तो सिर्फ" दुकानदार" ही बचे है जो इंदौर की सराफा चौपाटी की साख से खेल रहें है और अपनी जेब भर रहे है। ग्राहक का स्वास्थ्य और चौपाटी की पहचान जाए भाड़ में। लिहाजा विस्थापन से पहले सराफा की चौपाटी को " शुद्ध " बनाना जरूरी हैं। ये भी तय करना होगा कि चौपाटी पर सिर्फ इन्दौरी स्वाद ही मिले।
ये जो " कचरा " सराफा के नाम पर बेचा जा रहा हैं, इसे निकाल फेंकिए। देखिए कैसे धंधेबाज इस चौपाटी से दूर होते हैं। जो बचेंगे, देख लेना वो वे ही होंगे जिनके बाप दादा सराफा के ओटले पर बैठकर अच्छा, सच्चा और शुद्ध खिलाते थे। इसी कारण तो देशभर में इन्दौरी खानपान प्रसिद्ध हुआ। ये प्रसिद्धि फिर से लौटाए बगेर विस्थापन की बात बेमानी ही नही, बेईमानी भी हैं।