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बदलते परिवेश में : पौराणिक कथाएं बन सकती हैं बॉलीवुड के विस्तार का रास्ता

Paliwalwani
बदलते परिवेश में : पौराणिक कथाएं बन सकती हैं बॉलीवुड के विस्तार का रास्ता
बदलते परिवेश में : पौराणिक कथाएं बन सकती हैं बॉलीवुड के विस्तार का रास्ता

भारत की सबसे बड़ी पहचान है यहां की संस्कृति. लगातार बदलते परिवेश में भारत ही एक मात्र ऐसा देश है, जो अपनी संस्कृति के संरक्षण के लिए चिंतित है. विविध संस्कृतियों वाले हमारे इस देश में पौराणिक कथाओं का बहुत महत्व है. बचपन से ही यहां हर घर में बच्चों को यह कहानियां सुनाई जाती हैं. इन कहानियों के सार में मिलने वाली शिक्षा आगे जीवन में बहुत काम आती है. यही कारण है कि बॉलीवुड में फिल्मों की शुरुआत करने वाले फिल्म निर्माता दादा साहेब फाल्के ने अपनी फिल्में इन्हीं कथाओं पर बनाई.

उन्हें मालूम था कि यदि किसी भारतीय के दिल में अपनापन बसाना है तो बचपन से उसे सुनाई जा रही कहानियों पर फिल्म करना सबसे सरल और सटीक तरीका है। उनकी यह दूरगामी सोच ही थी कि साल 1913 में "राजा हरिश्चंद्र" से फिल्मों की नींव रखी गई। सिर्फ यही  नहीं बल्कि उनकी अगली बहुत सी फिल्में  भी पौराणिक कथाओं पर ही आधारित थीं।

शाकुंतलम 

साल 1917 तक दादा साहेब का फिल्म जगत में एकल राज्य था तब उन्होंने "लंका दहन" और "सत्यवान सावित्री" जैसी फिल्में बनाई। आगे चलकर उनसे प्रेरणा लेके अन्य फिल्मकारों ने भी कृष्ण सुदामा, रामायण प्रसंग, सती पार्वती जैसी फिल्मों से शुरुआत की। इन फिल्मों से दर्शकों ने जुड़ाव महसूस किया और यही कारण है कि भारत में फिल्मों को स्वीकृति मिली।

आगे चलकर अशोका पर बनी फिल्म ने इतिहास रच दिया। इसके बाद 1925 में तुलसीदास, पृथ्वीराज, राणा प्रताप और कालिदास के ऊपर बनी फिल्मों ने बॉलीवुड को आकार दिया। देश की आज़ादी तक पौराणिक कथाओं और देश को वीर योद्धाओं पर कहानियां बनाने का चलन तेज हो गया था। यही कारण है कि साल 1933 से 1960 तक के बीच में रामायण के ऊपर 4 फिल्में बन चुकी थी। ज्ञात हो कि आगे चलकर  रामानंद सागर की रामायण ने टीवी जगत में जो दर्शकों का प्रेम पाया वह शायद ही किसी सीरियल को मिला हो।

देश प्रेम की भावनाओं से भरी हुई फिल्में जैसे कि "झांसी की रानी" और महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी और पृथ्वीराज पर बनी फिल्मों की खूब प्रशंसा हुई। इसके साथ ही फिल्मों में भारतीय परंपरा और उनके रीति रिवाज को भी दिखाया जाता रहा है। अस्सी के दशक में बॉलीवुड के इस संस्कृति के विषय पर बननेवाली फिल्मों में थोड़ी गिरावट आई।

बदलते समय में फिल्मकारों ने विदेशी कहानियों के ऊपर ज्यादातर फिल्में बनानी शुरू करदी। उनका मुख्य उद्देश्य संदेश देने वाली फिल्में बनाने के अलावा मसाला से भरी फिल्में बनाने पर हो गया। ऐसी फिल्में जो मनोरंजन और हास्य से भरी हो। इसके लिए उन्होंने विदेशों की कहानियों पर फिल्में बनानी शुरू कर दी। बॉलीवुड के इस दौर में भी कुछ ऐसे फिल्मकार थे जिन्होंने संस्कृति के ऊपर फिल्में बनाई हालांकि यह संख्या बहुत कम थी।

भारतीयता के पतन के इस दौर में थोड़ा बदलाव आया जब साल 2015 में "बाहुबली" जैसी फिल्म आई। इसके बाद "तान्हा जी" और "पद्मावत" जैसी फिल्मों में भारतीयता और संस्कृति की थोड़ी झलक देखने को मिली। धीरे धीरे बॉलीवुड से भारतीय संस्कृति का अलग होना ही कारण है कि अब बॉलीवुड को उतने दर्शक नहीं मिल रहे है। आज भारतीय संस्कृति के ऊपर बनी साउथ फिल्मों को ज़्यादा पसंद किया जा रहा है। ऐसे में बॉलीवुड को समझना होगा कि भारतीय संस्कृति और पौराणिक कथाओं की फिल्में बनाने से ही वे दर्शकों के मन में दुबारा वह स्थान पा सकते हैं। यह बात शायद कुछ फिल्मकारों को समझ आ रही है इसलिए इस साल दर्शकों के बीच 5 बड़ी फिल्में रिलीज होंगी जो पौराणिक कथाओं पर आधारित हैं। "शाकुंतलम", "रामायण" ,"सीता", "अश्वथामा" और "चाणक्य" इस साल रिलीज होने वाली कुछ फिल्मों में से एक है।

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