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मजबूरी का नाम एनडीए

राजेंद्र शर्मा
मजबूरी का नाम एनडीए
मजबूरी का नाम एनडीए

आलेख : राजेंद्र शर्मा

बेशक 9 जून 2024 की शाम को राष्ट्रपति भवन के कोर्टयार्ड में पूरे बहत्तर सदस्यों के जंंबो मंत्रिमंडल के शपथ ग्रहण के साथ, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार की तीसरी पारी शुरू हो गयी है। लेकिन, यह तीसरी पारी कितनी असामान्य होने जा रही है, इसका अंदाजा एक इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि इस चुनाव में कौन जीता है और कौन हारा है, इसके विवाद पर सरकार के शपथग्रहण के बावजूद, संतोषजनक तरीके से विराम नहीं लग पाया है।

इसमें शक नहीं कि 4 जून को देर शाम 18वीं लोकसभा के चुनाव की मतगणना लगभग पूरी होने तक, जब इंडिया गठबंधन की गिनती 240 पर रुक गयी और दूसरी ओर भाजपा और उसके 2024 के चुनाव के सहयोगियों की गिनती बहुमत के 272 के आंकड़े को पार कर 290 पर पहुंच गयी, तभी इतना तो सभी यथार्थवादी प्रेक्षकों के सामने साफ हो गया था कि नरेंद्र मोदी लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ जरूर लेंगे।

यह इसके बावजूद था कि कुल मिलाकर इस चुनाव में जिस तरह का जनादेश आया है, उसे देखते हुए खुद संघ-भाजपा के समर्थकों के भी एक हिस्से को यह मानने में हिचक थी कि इस चुनाव का फैसला, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के जारी रहने के पक्ष में है। 2024 के चुनाव से निकली लोकसभा सदस्यों की गिनती बेशक, भाजपा और उसके सहयोगियों के मिलकर सरकार बनाने का रास्ता बनाती थी, लेकिन इस चुनाव का जनादेश कुछ और ही कह रहा था।

यह किसी से छुपा हुआ नहीं था कि यह चुनाव, भारत का अब तक का सबसे नाबराबरी का चुनाव था। यह एक ऐसा चुनाव था, जिसमें बराबरी के मुकाबले की यह न्यूनतम से न्यूनतम शर्त भी पूरी नहीं हो रही थी कि चुनाव आयोग, जिस पर स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव कराने का दायित्व था, कम से कम निष्पक्ष दिखाई देने की कोशिश करेगा।

इसका नतीजा यह हुआ कि एक ओर सत्ताधारी पार्टी, चुनावी मुकाबले में विपक्ष को पंगु करने के लिए, शासन के सभी दमनकारी साधनों का खुलेआम इस्तेमाल करते हुए, जिसमें विपक्षी मुख्यमंत्रियों को जेल में डालने से लेकर विपक्षी पार्टियों के खाते जाम करना तक शामिल था, निष्पक्षता की धज्जियां उड़ा रही थी ; तो दूसरी ओर सत्ताधारी पार्टी को अपने शीर्ष नेताओं से लेकर नीचे तक, विपक्ष के खिलाफ सरासर झूठे और सांप्रदायिक प्रचार को हथियार बनाने के जरिए, जनता की जानकारी पर आधारित चुनाव करने के अधिकार की जड़ें ही काटने की खुली छूट मिली हुई थी।

इसके ऊपर से सत्ताधारी पार्टी को मुख्यधारा के मीडिया को न सिर्फ पैसे तथा मीडिया धन्नासेठों के समर्थन के बल पर अपने लिए छेक लेने का, बल्कि तरह-तरह के सर्वेक्षणों के जरिए उसे मारक हथियार बनाने का और कुल मिलाकर बेशुमार पैसा बहाने तथा विपक्ष के संसाधनों के सारे स्रोत सुखाने का भी मौका मिला हुआ था। इसके बावजूद, इस चुनाव में जनता ने जो फैसला सुनाया था, साफ तौर पर भाजपा के खिलाफ था।

बेशक, चार सौ पार के जो दावे सत्तापक्ष और उसके मीडिया में छाए प्रचारकों द्वारा विधिवत चुनाव प्रचार शुरू होने से महीनों पहले से शुरू कर, एक्जिट पोलों तक के जरिए किए जा रहे थे, उन सबके सामने, सत्ताधारी भाजपा का 240 के आंकड़े पर और सहयोगियों को भी जोड़कर, 292 के आंकड़े पर अटक जाना भी, किसी हार से कम नहीं था। लेकिन, बात सिर्फ इतनी ही नहीं थी।

इससे बड़ी बात यह थी कि जहां अकेले भाजपा के 370 पार और संगियों के साथ मिलकर चार सौ पार जाने का दम भरा जा रहा था, जब नतीजे आए भाजपा खुद 240 सीटों पर सिमट गयी और सहयोगियों के साथ मिलकर मुश्किल से बहुमत का आंकड़ा पार कर पायी। इतना ही नहीं, 2019 के चुनाव में भाजपा को जो 303 सीटें हासिल हुई थीं, उनमें पूरे 20 फीसद यानी 63 सीटों की कमी इस चुनाव में जनता ने कर दी और उसके गठजोड़ की सीटों में से भी करीब इतनी ही कमी। साफ है कि जनता ने पिछले चुनाव के मुकाबले, सत्ताधारी दल और उसके गठजोड़ को ठुकराया ही है, उसे अपनी करनियों और अकरनियों के लिए राजनीतिक सजा ही दी है।

इसी का एक और साक्ष्य, पिछले चुनाव के मुकाबले भाजपा और उसके गठजोड़ के मत प्रतिशत में भी बहुत ज्यादा न सही, फिर भी कुछ न कुछ गिरावट का ही होना है। खुद भाजपा के मत फीसद में यह गिरावट इसलिए और भी उल्लेखनीय हो जाती है कि 2024 में उसने तमिलनाडु, पंजाब जैसे राज्यों में सभी सीटों पर चुनाव लड़ते हुए, पिछले चुनाव के मुकाबले काफी ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़कर भी, पिछली बार के मुकाबले करीब 1 फीसद कम वोट हासिल किया है। चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार, 2019 में भाजपा को 37.36 फीसद वोट मिला था, जो इस चुनाव में घटकर 36.56 फीसद ही रह गया है। इस चुनाव में सहयोगियों के साथ मिलकर भी सत्तापक्ष का मत फीसद 42.5 फीसद से ज्यादा नहीं बैठता है।

बेशक, यह कहा जा सकता है कि लोकसभा सदस्यों की गिनती के हिसाब जनादेश भाजपा के खिलाफ होने केे बावजूद, गठबंधन के हिस्से के तौर पर तो भाजपा जनादेश का दावा कर ही सकती है। वास्तव में खुद नरेंद्र मोदी ने भी गठबंधन की आड़ लेकर ही, जनादेश का दावा करने की कोशिश की है। एनडीए संसदीय दल की बैठक में अपने भाषण में नरेंद्र मोदी ने गठबंधन का ही सहारा लेकर यह दावा किया था कि ''न हम हारे थे, न हम हारे हैं!'' इसके लिए हाथ की सफाई का सहारा लेते हुए, मोदी ने यह दावा किया था कि 'किसी से पूछो कि पहले क्या था, एनडीए था, अब क्या है, एनडीए है' , वही तब भी जीता था, वही अब भी जीता है, आदि।

'न हम हारे थे, न हम हारे हैं!

इसमें हाथ की सफाई अन्य बातों के अलावा इसमें थी कि 2024 के चुनाव के बाद, चंद्रबाबू नायडू की तेलुगू देशम की जिन 16 और जनता दल यूनाइटेड की 12 सीटों के समर्थन के बल पर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व मेें बहुमत का दावा किया जा रहा है, ये दोनों ही पार्टियां इस चुनाव के दौरान ही भाजपा द्वारा विशेष ऑपरेशन चलाकर, जिसमें विभिन्न रूपों में सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल भी शामिल है, एनडीए में शामिल की गयी थीं।

याद रहे कि चंद्रबाबू नायडू की तेलुगू देशम ने 2019 का चुनाव भाजपा के खिलाफ लड़ा था, जबकि जनता दल यूनाइटेड के सुप्रीमो नीतीश कुमार, 2024 के चुनाव के लिए ही बने इंडिया एलाइंस के सूत्रधारों में रहने के बाद, अचानक पल्टी खिलाकर भाजपा के पाले में ले आए गए थे। जाहिर है कि उनके समर्थन के बल पर 'एनडीए जीता था, एनडीए जीता है' का दावा करना, अर्ध सत्य का ही सहारा लेना है।

एनडीए के संसदीय दल की बैठक में नरेंद्र मोदी ने भले ही एनडीए के 30 साल की दुहाई दी हो, सच्चाई यह है कि 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता मेें आने के बाद गुजरे दस साल में, एक राजनीतिक गठबंधन के रूप में एनडीए कोमा की अवस्था में ही पड़ा रहा है, जिसका होना - न होने के बराबर ही रहा है। हां! विशेष मौकों पर नुमाइश के लिए जरूर पांच-पांच साल पर उसे सहारा देकर कुर्सी पर बैठा दिया जाता है।

दूसरी ओर, सच्चाई यह है कि नरेंद्र मोदी के राज में सभी स्तरों पर जिस तरह से सारी सत्ता का केंद्रीयकरण किया गया है, खुद सत्ताधारी भाजपा भी उससे बच नहीं पायी है, फिर उसके नेतृत्व में बने किसी बहुदलीय गठबंधन के बचे रह जाने का तो सवाल ही कहां उठता है। इसीलिए, हैरानी की बात नहीं है कि इन दस वर्षों में न तो मोदी की भाजपा ने एनडीए के किसी साझा कार्यक्रम की जरूरत समझी और न ही एनडीए की तालमेल समिति जैसे किसी निकाय की ही गुंजाइश छोड़ी है।

हां! सत्ता के लाभों में थोड़ी-बहुत हिस्सेदारी की गाजर और केंद्रीय एजेंसियों का डंडा दिखाने के जरिए जरूर, उसने सहयोगी पार्टियों को साथ लगाए रखने की कोशिश की है। इसीलिए, हैरानी की बात नहीं है कि इन दस वर्षों में शिव सेना, अकाली दल, तेलुगू देशम, जदयू, अन्नाद्रमुक आदि अनेक पार्टियां विभिन्न मुद्दों पर मोदी की भाजपा का साथ छोड़कर छिटक गयी हैं। वास्तव में मोदी के दूसरे कार्यकाल में तो, एनडीए का शायद ही कभी नाम भी लिया गया होगा।

गठबंधन की किसी भी प्रकार की सामूहिकता के बजाए, इन पांच वर्षों में तो ''मोदी-मोदी'' और ''एक अकेला सब पर भारी '' की ही हवा बनायी जा रही थी। वह तो जब इंडिया गठबंधन से वास्तविक खतरा नजर आने लगा, तब इस गठबंधन के जवाब में अचानक मोदी की भाजपा को अपने गठबंधन की याद आ गयी और कोमा में पड़े एनडीए को बाहर निकाल लाया गया। लेकिन, चूंकि इस एनडीए में सिर्फ गिनती के लिए गिनाए जा रहे संगठनों का कोई असर नहीं था, चुनाव की तैयारियों के बीच विशेष अभियान चलाकर जदयू, तेलुगू देशम जैसी पार्टियों को दोबारा भाजपा के पाले में लाया गया।

इसलिए, एनडीए के नाम पर इन पार्टियों को जोड़-बटोर कर, नरेंद्र मोदी को तीसरी बार प्रधानमंत्री बनाने के लिए जरूरी गिनती तो जुटायी जा सकती है, लेकिन सत्ता की मलाई के लालच की गाजर और केंद्रीय एजेंसियों के डंडे के सहारे खड़ी की गयी यह एकता ज्यादा दिन चल पाएगी, इसमें संदेह की ही पूरी गुंजाइश है। इसकी वजह यह है कि नरेंद्र मोदी की भाजपा के तानाशाहाना मिजाज का, विभिन्न मुद्दों पर अपने से भिन्न नजरिया रखने वाली राजनीतिक पार्टियों के साथ सहमति तथा आम राय बनाकर चलने के मिजाज से मेल बैठ ही नहीं सकता है।

ऐसे में मोदी की भाजपा, दूसरी पार्टियों को वास्तव में साथ लेकर चलने का लचीलापन दिखाने के बजाए, इन पार्टियों में तोड़-फोड़ कर के और खरीद-फरोख्त के जरिए, अपने अल्पमत को बहुमत में तब्दील करने की ही कोशिश करेगी, जिससे दूसरी पार्टियों के समर्थन पर निर्भरता की मजबूरी से मुक्त होकर अपनी मनमर्जी चला सके। और ठीक यही चीज तेलुगू देशम, जदयू जैसी पार्टियों को, जिनके अपने राजनीतिक-समर्थन आधार कई मामलों में उन्हें मोदीशाही के खिलाफ भी करते हैं, जाहिर है कि खुद अपने ही राजनीतिक हितों के लिए, मोदी के नेतृत्व वाले एनडीए के खोखल को छोड़कर बाहर निकलने के लिए भी मजबूर कर सकती है। एनसीपी-अजित पवार के फिलहाल मंत्रिमंडल से बाहर ही बैठने से शपथग्रहण के साथ ही कसमसाहट की शुरूआत हो चुकी है।

  • लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका 'लोक लहर' के संपादक हैं.
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