आपकी कलम
क्या नागरिक बच्चे होते हैं कि न्यायपालिका उन्हें देशभक्ति सिखायेगी?
paliwalwani
आलेख : सुभाष गाताडे, अनुवाद : संजय पराते
यह वर्ष 1763 की बात है, जब जेनेवा की धार्मिक सभा ने रॉबर्ट कोवेल नामक व्यक्ति को नाजायज़ संतान के पिता होने के कारण घुटने टेककर फटकार सुनने का आदेश दिया। कोवेल ने घुटने टेकने से इनकार कर दिया और मदद के लिए वह वोल्टेयर के पास गया।
वोल्टेयर उस समय ज्ञानोदय के अग्रणी प्रकाश पुंज थे। उन्हें इस विचार पर ही गुस्सा आया कि धार्मिक अधिकारी किसी नागरिक को घुटने टेकने के लिए मजबूर करने का दुस्साहस कर रहे हैं। उन्होंने घुटने टेकने की प्रथा के विरुद्ध एक पुस्तिका लिखी, जिसमें इस कृत्य की तुलना किसी तानाशाह द्वारा दासों को दंडित करने या बच्चों को सुधारने वाले पांडित्य से की गई थी। शेष दार्शनिक भी वोल्टेयर के समर्थन में एकजुट हो गए और छह वर्षों के आंदोलन के बाद, जेनेवा की चर्च सभा को अपनी संहिता से घुटने टेकने की प्रथा को समाप्त करने के लिए बाध्य होना पड़ा।
लेखिका और विज्ञान इतिहासकार मीरा नंदा ने अपने एक मोनोग्राफ में इस प्रकरण पर चर्चा की है। इस प्रकरण को पुनः पढ़ने पर यह विचार आता है कि यदि लगभग ढाई शताब्दी पहले चर्च को अपने ही निर्णयों में असंगति, अन्याय और अविवेक देखने के लिए बाध्य किया जा सकता था, तो क्या आज 21वीं सदी में 'विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र' में न्यायपालिका के संबंध में भी ऐसी ही बात संभव हो सकती है?
यह प्रश्न बॉम्बे उच्च न्यायालय के हाल ही में दिए गए एक विवादास्पद निर्णय से संबंधित है, जिसकी उचित ही, पर्याप्त निंदा हुई है। पिछले हफ़्ते, बॉम्बे हाईकोर्ट की दो जजों की बेंच ने गाज़ा में नरसंहार के ख़िलाफ़ एक राजनीतिक दल द्वारा आयोजित शांतिपूर्ण रैली की अनुमति यह कहते हुए रद्द कर दी कि "यह देशभक्ति नहीं है।" यह राजनीतिक दल आज़ाद मैदान में शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन करना चाहता था, जो मुंबई शहर में विरोध प्रदर्शनों के लिए निर्धारित स्थल है। माननीय न्यायाधीशों ने इस दल को शाब्दिक रूप से यह उपदेश देने में भी कोई संकोच नहीं किया कि "देश से हज़ारों मील दूर हो रही किसी घटना पर विरोध प्रदर्शन" करने के बजाय, यह दल "कचरा डंपिंग, प्रदूषण, सीवरेज, बाढ़" आदि जैसे नागरिक मुद्दों को उठा सकता है।
इस तथ्य के अलावा कि इस निर्णय ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और एकत्र होने के अधिकार को अनिवार्य रूप से नकार दिया है - जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) और 19 (1) (बी) के तहत प्रत्येक नागरिक को दिया गया है, जो 'गणतंत्र के लोकतांत्रिक जीवन का आधार' हैं, यह निर्णय विभिन्न प्रकार से भी अत्यधिक समस्याग्रस्त है।
- एक, इसने दुनिया भर में हो रहे घटनाक्रमों, जिससे वैश्विक स्तर पर चिंता पैदा हो गई है, के बारे में चयनित तरीके से भूलने की बीमारी का प्रदर्शन किया है।
- दूसरा, इसने हमारे उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्ष के दौर की गौरवशाली परंपराओं या स्वतंत्रता-पश्चात शासन द्वारा मानवता के विरुद्ध अपराधों के मुद्दों पर अपनाई गई नीतियों के बारे में ज्ञान की कमी या जानबूझकर अनदेखी को दर्शाया है।
- तीसरा, इसने न्यायपालिका के दोहरे मानदंडों को दर्शाया है, जो संदिग्ध मुद्दों पर दक्षिणपंथी समूहों द्वारा किए गए विरोध प्रदर्शनों - जो कभी-कभी हिंसक भी होते हैं - पर अलग-अलग प्रतिक्रिया देती है।
- चौथा, इससे यह भी पता चलता है कि हाल ही में न्यायपालिका ने कितनी सहजता से लोकतंत्र की सुरक्षा के लिए अपनी संवैधानिक स्वायत्त भूमिका को त्याग दिया है और कार्यपालिका की अदालत के रूप में व्यवहार कर रही है।
आइये, इस निर्णय के इन प्रमुख पहलुओं पर एक-एक करके विचार करें।
1. युद्ध अपराधी बेंजामिन नेतन्याहू और उनके पूर्व रक्षा मंत्री योआव गैलेंट हैं, कोई शक?
गाजा में जारी नरसंहार अब एक वर्ष और नौ महीने से अधिक पुराना हो चुका है, जिसे इजरायल राज्य ने अपनी पूरी सैन्य शक्ति और अमेरिका तथा उसके पश्चिमी सहयोगियों से प्राप्त सैन्य और नैतिक समर्थन के साथ, गाजा के असहाय निवासियों के खिलाफ शुरू किया है, जो कि इजरायली क्षेत्र पर कट्टरपंथी हमास द्वारा 7 अक्टूबर, 2023 को किए गए आतंकवादी हमले के प्रतिशोध के रूप में चित्रित किया जाता है।
पूरी दुनिया ने इस छोटे से इलाके में जारी नरसंहार को देखा है, जिसमें अब तक 70,000 से ज़्यादा लोग मारे जा चुके हैं, जिनमें से ज़्यादातर महिलाएँ और बच्चे हैं। हाल ही में, इस इलाके में सक्रिय पत्रकारों और चिकित्साकर्मियों - डॉक्टरों, नर्सों आदि - ने बच्चों की सामूहिक भुखमरी और उनके अपने शरीर पर इसके असर के खतरे को उठाया है।
यह अब इतिहास बन चुका है कि कैसे अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय (आईसीसी) ने भी इस मुद्दे पर बहस की थी, जब दक्षिण अफ्रीका और कुछ अन्य देशों ने गाजा में युद्ध अपराधों और चल रहे नरसंहार के लिए इज़राइल के खिलाफ कार्यवाही शुरू की थी। काफी विचार-विमर्श के बाद, आईसीसी को इज़राइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू और उनके पूर्व रक्षा मंत्री योआव गैलेंट के खिलाफ, और यहाँ तक कि हमास के एक वरिष्ठ नेता के खिलाफ भी, "मानवता के विरुद्ध अपराधों और युद्ध अपराधों के लिए कम-से-कम 8 अक्टूबर 2023 से कम-से-कम 20 मई 2024 तक" गिरफ्तारी वारंट जारी करने के लिए मजबूर होना पड़ा।
यद्यपि आईसीसी के अंतिम निर्णय की अभी प्रतीक्षा है, लेकिन इस अंतरिम निर्णय का अर्थ है कि नेतन्याहू और गैलेंट को, सिद्धांततः गिरफ्तार किया जा सकता है, यदि वे इस न्यायालय से जुड़े 124 सदस्य राज्यों में से किसी में भी जाते हैं। दो महीने पहले, जब नेतन्याहू हंगरी की यात्रा पर गए थे, तो एमनेस्टी इंटरनेशनल ने उनकी गिरफ्तारी की अपील भी जारी की थी।
2. फिलिस्तीन पर उपनिवेशवाद के दौर में और स्वतंत्रता के बाद भारत का रुख
यह अब इतिहास बन चुका है कि कैसे दक्षिण अफ्रीका ने गाजा युद्ध के दौरान गाजा पट्टी में इज़राइल के आचरण, जिसके परिणामस्वरूप मानवीय संकट और सामूहिक हत्याएँ हुईं, के विरुद्ध 29 दिसंबर, 2023 को अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में मामला लाने की पहल की। हाल ही में, ब्राज़ील ने भी घोषणा की है कि वह इज़राइल के विरुद्ध आधिकारिक मामले में दक्षिण अफ्रीका का साथ देगा।
यह अलग बात है कि भारत, जो खुद को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहलाने का शौक़ रखता है, ने आज तक गाजा में जारी नरसंहार पर कोई सैद्धांतिक रुख़ अपनाने से इंकार कर दिया है और यहाँ तक कि संयुक्त राष्ट्र महासभा में सैन्य अभियानों में युद्धविराम के लिए लाए गए प्रस्तावों में शामिल होने से भी इंकार कर दिया है। यह रुख़ उपनिवेश-विरोधी संघर्ष के नेताओं और बाद में आज़ाद भारत की सरकारों द्वारा इस मुद्दे पर अपनाए गए सैद्धांतिक रुख़ के बिल्कुल उलट है।
गांधीजी ने तो उपनिवेशवाद के अधीन तत्कालीन फ़िलिस्तीन में एक यहूदी राज्य की माँग का समर्थन करने से भी इंकार कर दिया था, यह रेखांकित करते हुए कि यह उनके साथ पूरी तरह से अन्याय होगा, और अरब जगत के बाहर भारत पहला देश था, जिसने फ़िलिस्तीन को मान्यता दी थी।
भारत ने अटल बिहारी बाजपेयी के राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन शासन के दौरान भी फिलिस्तीनी संघर्ष को समर्थन देना बंद नहीं किया था।
दक्षिण अफ्रीका की रंगभेदी सरकार के प्रति भारत का रुख भी उतना ही सैद्धांतिक था। उसने तत्कालीन सरकार के साथ किसी भी तरह के राजनयिक संबंध रखने से इंकार कर दिया था और विश्व समुदाय की मांग पर पूरे दिल से उसके बहिष्कार में शामिल था।
3. उनके लिए एक नियम और बाकी सभी के लिए दूसरा नियम
मुंबई और देश के अन्य शहरों और कस्बों में ऐसे कई मौके आए हैं, जब न्यायपालिका ने दक्षिणपंथी समूहों द्वारा रामनवमी और हनुमान जयंती आदि पर निकाले गए जुलूसों, यहाँ तक कि हथियार लेकर निकाले गए जुलूसों पर कोई रुख अपनाने से इंकार कर दिया है।
दरअसल, जब सीमा पार के मुद्दों पर ऐसे प्रदर्शन होते हैं, तो न्यायपालिका को कोई आपत्ति नहीं होती। न्यायपालिका को इस बात की ज़रा भी परवाह नहीं है कि इससे उन विशिष्ट देशों के साथ भारत के संबंधों पर क्या असर पड़ेगा। उदाहरण के लिए, पिछले वर्ष पड़ोसी बांग्लादेश में उथल-पुथल भरे घटनाक्रम के बाद, जिसके परिणामस्वरूप शेख हसीना शासन को जाना पड़ा, तथा वहां अल्पसंख्यक हिंदुओं पर हमलों के आरोप लगने के बाद, मुंबई तथा कई अन्य भारतीय शहरों में इन संगठनों द्वारा प्रदर्शन किए गए।
इस बार जो बात चौंकाने वाली थी, वह यह थी कि जब उक्त राजनीतिक दल द्वारा गाजा में नरसंहार का मुद्दा उठाया गया, तो न्यायपालिका चिंतित हो गई। एक ऐसा मुद्दा है, जिसके कारण पहले ही दुनिया के बड़े हिस्से में बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हो चुके हैं।
यह कैसे संभव है कि हमारी न्यायपालिका को तब कोई आपत्ति नहीं होती, जब बांग्लादेश के आंतरिक मामलों को यहां एजेंडे में लाया जाता है, जबकि गाजा में नरसंहार का मुद्दा 'हजारों किलोमीटर दूर' का लगता है और उसे यह लगता है कि यह 'देशभक्ति का मुद्दा नहीं है'।
4. कार्यपालिका की अदालत?
पिछले एक दशक से भी ज़्यादा समय से न्यायपालिका की निर्णय लेने की प्रक्रिया को लेकर चिंताएँ बढ़ती जा रही हैं, जिसके चलते जाने-माने लेखकों ने इसे एक "विकसित होता नया दर्शन" बताया है, जिसके कारण "कार्यपालिका की अदालत" का उदय हो रहा है। विभिन्न अध्ययन हुए हैं, जो कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच विचारों के बढ़ते अभिसरण को रेखांकित करते हैं, जिससे न्याय प्रदान करने का कार्य कठिन होता जा रहा है।
ऐसे कई उदाहरण हैं, जब न्यायालयों/न्यायाधीशों ने आपातकालीन बैठक करके भी आपराधिक प्रावधानों के तहत आरोपी पत्रकारों को जमानत देने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई है, लेकिन शासन की आलोचना करने वाले लोगों को वर्षों तक जेल में सड़ने दिया जाता है और अंतरिम अवधि में भी उन्हें जमानत नहीं दी जाती है।
क्या यह तर्क दिया जा सकता है कि शांतिपूर्ण ढंग से रैली आयोजित न करने देने का बॉम्बे उच्च न्यायालय का अत्यधिक विवादास्पद निर्णय, सत्तारूढ़ दल को असुविधा न पहुंचाने का एक प्रयास है?
आइए हम आशा करें कि न्यायपालिका, चाहे वह एक बड़ी पीठ हो या देश की सर्वोच्च अदालतें, इस विशेष निर्णय की विभिन्न अंतर्निहित गलतियों पर गंभीरता से विचार करेंगी और एक सुधारात्मक सुझाव देंगी, जो हमारे संविधान की पवित्रता को बचाने में मदद करेगा, क्योंकि जैसा कि एक स्तंभकार ने ठीक ही कहा है :
"गाज़ा में बच्चों के लिए शोक मनाना भारत के साथ विश्वासघात नहीं है। विदेशों में निर्दोष लोगों की अन्यायपूर्ण हत्या का विरोध करना, अपने देश में अन्याय को नज़रअंदाज़ करना नहीं है। यह घोषणा करना है, जैसा कि हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने कभी किया था, कि सत्य की कोई सीमा नहीं होती और विवेक का कोई पासपोर्ट नहीं होता।"
- 'न्यूजक्लिक' से साभार। लेखक एक वरिष्ठ और स्वतंत्र पत्रकार हैं। अनुवादक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। संपर्क : 9424231650