आपकी कलम
मोहन सरकार में प्रदेश की डूबती नैय्या...! "बीच भंवर में मेरी डूबती नैया, पार लगा दे ओ मेरे…”
राजेन्द्र सिंह जादौन
राजेन्द्र सिंह जादौन
"बीच भंवर में मेरी डूबती नैया, पार लगा दे ओ मेरे…”
कभी गाने में सुनकर आनंद आता था, लेकिन आज यह पंक्ति मध्यप्रदेश की हकीकत बन चुकी है। नाव बीच भंवर में है, चप्पू टूट चुके हैं, नाविक दिशा भूल चुका है और यात्री यानी जनता अपनी किस्मत पर रो रही है। मोहन सरकार की हांक में चल रही यह नाव अब डूबने से बस एक सांस दूर है।
प्रदेश की आर्थिक हालत किसी डूबते जहाज़ से कम नहीं। मार्च 2025 तक कर्ज़ का आंकड़ा ₹4,21,740 करोड़ था और अब यह ₹4.35 लाख करोड़ के पार पहुँच चुका है। कर्ज़-to-GSDP अनुपात 31.3% पर खड़ा है और ब्याज चुकाने में ही सरकार को हर साल ₹22,318 करोड़ झोंकने पड़ रहे हैं। विकास का पैसा जनता तक पहुँचे, उससे पहले ही बैंक और ब्याजखोर उसे निगल लेते हैं। सरकार कर्ज़ लेकर जेट खरीद रही है, मंत्रियों के बंगले सज रहे हैं, और जनता के हिस्से में सिर्फ़ खाली खजाना और बढ़ते टैक्स आ रहे हैं।
भ्रष्टाचार तो इस सरकार की सांसों में घुला हुआ है। सड़कें बनने से पहले ही गड्ढों में समा जाती हैं, अस्पतालों में दवा पहुँचने से पहले ही गोदाम गायब हो जाते हैं, और शिक्षा विभाग ट्रांसफर-पोस्टिंग का मंडीघर बन चुका है। अफसर और ठेकेदार मलाई काट रहे हैं, मंत्री आशीर्वाद बाँट रहे हैं और जनता को धूल चाटने के लिए छोड़ दिया गया है। सच तो यह है कि नाविक ने ही नाव में छेद कर दिए हैं, अब यात्री चाहे जितनी ताक़त से पानी उलीचें, नाव डूबनी ही है।
युवाओं को तो सरकार ने खुला धोखा दिया है। आँकड़ों में बेरोज़गारी दर 1.6% बताकर वाहवाही लूटने की कोशिश होती है, लेकिन असल में लाखों डिग्रीधारी युवा दर-दर भटक रहे हैं। भर्ती परीक्षाएँ सालों से लटकी हुई हैं, और जो निकलती हैं वे भी आउटसोर्सिंग के हवाले कर दी जाती हैं।
स्थायी नौकरी का सपना अब मज़ाक बन चुका है। हालत यह है कि या तो युवा महानगरों में पलायन कर रहे हैं या फिर निराशा में अपराध और नशे की तरफ धकेले जा रहे हैं। सरकार की बेरोज़गारी नीति वैसी ही है जैसे नाविक यात्रियों से कह दे “चप्पू मत ढूँढो, खुद तैरकर किनारे जाओ।”
किसान, जो इस प्रदेश की रीढ़ हैं, उनकी रीढ़ ही तोड़ दी गई है। NCRB के अनुसार सिर्फ़ 2022 में मध्यप्रदेश में 641 किसान और कृषि मज़दूरों ने आत्महत्या की। यानी हर दिन दो किसान मौत चुनते रहे। प्याज़ और लहसुन खेतों में सड़ते हैं, गेहूँ-सरसों का भाव औंधे मुँह गिरता है और समर्थन मूल्य सिर्फ़ पोस्टर पर छपता है। किसान रो रहा है और सरकार आँकड़ों की चादर ओढ़कर सो रही है।
कानून-व्यवस्था की नाव तो माफ़ियाओं ने पूरी तरह हाइजैक कर ली है। शराब माफ़िया, रेत माफ़िया, भू-माफ़िया सब खुलेआम नाच रहे हैं और पुलिस तमाशबीन बनी बैठी है। बलात्कार, लूट, अपहरण की खबरें रोज़ सामने आ रही हैं। जनता असुरक्षित है और सत्ता सुरक्षित। जब नाविक ही माफ़ियाओं के साथ बैठा हो, तो यात्रियों की ज़िंदगी की कीमत क्या रह जाती है?
सबसे बड़ा खेल तो जनसंपर्क का है। अरबों रुपये के विज्ञापन हर ओर चिपकाए जा रहे हैं। “हमने किया, हम करेंगे” का शोर अख़बार, टीवी और सोशल मीडिया पर गूँजता रहता है। लाड़ली बहना योजना पर ही सालाना ₹22,000 करोड़ खर्च हो रहे हैं। जनता का पैसा जनहित में नहीं, बल्कि जनमत में खपाया जा रहा है। स्कूलों में शिक्षक नहीं, अस्पतालों में दवा नहीं, लेकिन विज्ञापनों में चमक-दमक ऐसी कि लगे स्वर्ग यहीं है।
मोहन सरकार के राज में जनता की नाव अब किनारे नहीं, बल्कि दलदल की तरफ बढ़ रही है। कर्ज़ के बोझ, भ्रष्टाचार के छेद, बेरोज़गारी की लहरें, किसानों की आत्महत्याएँ और अपराध का सैलाब सब मिलकर इसे बीच भंवर में डुबो रहे हैं। और जनता अब यह कह रही है कि “नाविक बदलो, नहीं तो नाव डूबेगी।”
गीत की पंक्ति भगवान से गुहार लगाती थी, लेकिन आज मध्यप्रदेश की पुकार जनता की अदालत से है। लोकतंत्र में जनता ही असली भगवान है। और जब जनता फैसला सुनाती है तो न जेट बचाता है, न बंगला, न विज्ञापन। डूबती नैया को पार लगाने का आख़िरी चप्पू जनता के हाथ में ही होता है और यह चप्पू जब चलेगा, तो पूरी सत्ता पानी में समा जाएगी।
लेखक-अपनी धारदार लेखनी से हमेशा देश और प्रदेश में चर्चा का विषय रहते है लेखक सर्च स्टोरी के समुह संपादक है एवं टीएनपी न्यूज़ चैनल के संपादक है।