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नाग पंचमी विशेष : ‘नाग’ और ‘कुश्ती’ का यह रिश्ता क्या है?

Paliwalwani
नाग पंचमी विशेष : ‘नाग’ और ‘कुश्ती’ का यह रिश्ता क्या है?
नाग पंचमी विशेष : ‘नाग’ और ‘कुश्ती’ का यह रिश्ता क्या है?

नाग पंचमी और कुश्ती के बीच क्या रिश्ता है, यह आज भी वैसा ही अनुत्तरित सवाल है कि नाग सचमुच दूध पीता है या नहीं? अलबत्ता हर नाग पंचमी पर हिंदी की वो अमर कविता जरूर याद आती है- ‘चंदन चाचा के बाड़े में...उतरे दो मल्ल अखाड़े में।‘ यह कविता आज भी मन को नाग की तरह सरसराती है और अखाड़े में उतरे पहलवान की माफिक जोर मारती है। हालांकि नाग के चरित्र और पहलवान की तासीर में भी कोई सीधा रिश्ता नहीं है। एक डसता है, दूसरा दांव चलता है। नाग देवता होकर भी अविश्वसनीय है तो पहलवान मनुष्य होते हुए कुश्ती जीतकर विश्वास अर्जित करता है। एक नियति है, दूसरा खेल है। नाग का काटा पानी भी नहीं मांगता, कुश्ती में चित हुआ पहलवान फिर अपने फन पर पानी चढ़ा सकता है। 

भारत में नाग पंचमी जितनी पुरानी है, शायद कुश्ती के जोर भी उतने ही पुराने हैं। एक जमाने में अखाड़े पहलवान तैयार करने की नर्सरी हुआ करते थे। यानी कुश्ती हमारे कल्चर में बसी है। इतना सब कुछ होने के बाद भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हम पहलवानी में बहुत आगे नहीं हैं। बीते सौ सालो में भारत के कुल सात पहलवान ही अोलिम्पिक में कुश्ती के मेडल जीत पाए हैं, जिनमें एक महिला पहलवान भी है। यानी जो हमारी रगों में है, वो दुनिया के मंच पर वैसा जादू नहीं दिखा पाता, जिसकी हमे अपेक्षा है। जिस मल्ल युद्ध को हम अपनी प्राचीन परंपरा से जोड़ते हैं, उसके आधुनिक संस्करण में हमारे पास एक भी स्वर्ण पदक नहीं है। अब तक अोलिम्पिक में दो बार हमारे पहलवान फाइनल  में पहुंचे, लेकिन हमारे हिस्से में चांदी ही आई। नागों का आशीर्वाद भी काम नहीं आया। शायद इसीलिए कहते हैं कि चांदी मिलती है, सोना जीतना पड़ता है। 

 

भविष्य पुराण में इस कथा का तो उल्लेख है कि इस देश में नाग को पूजने की परंपरा क्यों शुरू हुई और नाग दंश से बचने का यही एक धार्मिक उपाय है, लेकिन यह उल्लेख शायद ही कहीं मिलता है कि नाग के लिए आरक्षित पंचमी ‍तिथि मल्ल विद्या के लिए भी अनुकूल क्यों है? इसका सावन से कोई सम्बन्ध है या जलवायु परिवर्तन से कुछ रिश्ता है ( किसी के पास जानकारी हो तो अप डेट करें) ? या फिर यही वो मौसम है, जब पहलवानों के बल्ले जोर करने के लिए सरसराने लगते हैं? नाग आपस में कम ही उलझते हैं, लेकिन पहलवानी तो खेल ही पटखनी देने का है। अखाड़ों में नागो की पूजा शायद ही होती हो। अखाड़े में जोर करने वाले ब्रह्मचर्य को मानते हैं और इस मायने में उनके देवता हनुमान हैं। हनुमान और नागो का रिश्ता केवल  इतना है कि हनुमान राम के भक्त हैं और राम भगवान विष्णु के अंशावतार हैं। विष्णु शेष नाग की शैया पर विश्राम करते हैं। लेकिन यहां भी कुश्ती जैसी कोई स्थिति बनती हो, ऐसा नहीं लगता।

 

फिर भी नाग पंचमी और कुश्ती के दांव पेंच में कोई सम्बन्ध है तो इतना कि दोनो में शक्ति प्रदर्शन का आग्रह है। न उलझने की चेतावनी है। उलझने पर सबक सिखाने की ‍जिद भी है। इस देश में प्राचीन काल की मल्ल विद्या या मल्ल युद्ध बाद में पहलवानी कहलाई और अब तो वह फ्री स्टाइल और ग्रीको रोमन शैली की कुश्ती में तब्दील हो गई है। यूं कहने को देसी पहलवान अब भी बचे खुचे अखाड़ों में दो-दो हाथ करते हैं। खम ठोकते हैं। प्रतिद्वंद्वी को जमीन सुंघाते हैं। जीत का लंगोट घुमाते हैं। लेकिन उससे वैसी सनसनी या उन्माद नहीं बरसता, जो अोलिम्पिक में कुश्ती का एक मेडल जीतने से बरसता है। इस देश में सदियों तक अखाड़ा संस्कृति जिंदा रही। ज्यादातर राज्याश्रय से अथवा लोक सहयोग से चलते थे।  इनमें दिल्ली में गुरू हनुमान का अखाड़ा, दिल्ली का ही छत्रसाल स्टेडियम अखाड़ा (जहां से ज्यादातर ओलम्पिक मेडलिस्ट पहलवान निकले हैं), श्री लक्ष्मीनारायण व्यास शाला, मुंबई, देवलाची तालीम अखाड़ा पुणे, चिंची तालीम अखाड़ा पुणे, गुरू श्याम लाल अखाड़ा अर्जुनगढ़ (हरियाणा) आदि। लेकिन अर्थाभाव और कुश्ती के बदलते तेवर ने पारंपरिक अखाड़ों को मिट्टी में ‍िमला दिया है। क्योंकि दुनिया गद्दों पर कुश्ती लड़ना पसंद करती है। पहलवानी यूं भी महंगा शौक है। दूध बादाम खाकर दंड पेलना हर किसी के बस की नहीं है। 

किसी जमाने में अखाड़ों की मिट्टी से निकले भारतीय पहलवानो ने दुनिया में नाम कमाया । गामा पहलवान को तो लोग आज भी याद करते हैं, लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में हमारी मौजूदगी अब कहीं जाकर दर्ज होने लगी है। यहां तक कि पहला  ओलम्पिक मेडल पाने के लिए भी भारत को 32 साल ( भारत ने 1920 के ओलम्पिक में कुश्ती में पहली बार भाग लिया था) इंतजार करना पड़ा। 1952 के हेलसिंकी ओलम्पिक में महाराष्ट्र के के.डी.जाधव ने भारत को कुश्ती में पहला ओलम्पिक मेडल दिलवाया था। जाधव ने तब कांस्य पदक जीता था। वो भी लोगों से चंदा करके ही ओलम्पिक में जा पाए थे। ओलम्पिक में कुश्ती को दूसरा मेडल लाने के लिए भारत को फिर 52 साल लगे, जब बीजिंग ओलम्पिक में सुशील कुमार ने कुश्ती में कांस्य पदक जीता। उसके बाद से हर ओलम्पिक में भारतीय पुरूष अथवा महिला पहलवान पदक ला रहे हैं, लेकिन अपनी ही प्राचीन विद्या में हमे अब तक गोल्ड मेडल की तलाश है। इस मामले में नाग देवता की कृपा कब होगी, कहना मुश्किल है।   

यूं नाग पंचमी के पीछे नागों (सांपो) के संरक्षण का संदेश है। क्यों‍‍िक यह प्रकृति को बचाना है। एक हद तक नाग मनुष्य का परोक्ष रूप से मददगार भी है। वह उन जीव जंतुअो को हजम करता है, जो मनुष्य के लिए परेशानी पैदा करते हैं। लेकिन नाग अपने दुश्मन को शायद ही जिंदा छोड़ता है। उसका ‘सभ्य’ होने में भरोसा कभी नहीं रहा। इसी कारण इंसान नागों से डरता है। हम उसे दूध पिलाते हैं, लेकिन वह दूध पीता नहीं, उसे स्पर्श भर करता है। वह बीन की धुन पर नाचता नहीं, केवल सपेरे की तान को हैरत के साथ तकता रहता है। 

ऐेसे नाग की पंचमी को पहलवानी की अलमस्ती से कब और किसने जोड़ा, कहना मुश्किल है। क्योंकि छेड़ने पर नाग तो फुफकारता है, लेकिन पहलवान प्रति दांव चलता है। सामने वाले को चित करता है। हो सकता है कि कभी किसी सपेरे को बीन बजाना छोड़कर कुश्ती से लगाव हो गया हो और उसने नाग पकड़ने के बजाए दंड बैठक लगाने की राह पकड़ी ली हो और तभी से नागपंचमी के मौके पर कुश्ती के दंगल की परंपरा भी शुरू हो गई हो। 

वैसे हमारी परंपरा में ‘नागपंचमी’ अखाड़ों का दिन भी है, लेकिन वैश्विक स्तर पर 23 मई ‘विश्व कुश्ती दिवस’ है, जो 1904 में पहली दफा ग्रीको रोमन कुश्ती चैम्पियनशिप के आयोजन के रूप में शुरू हुआ। अब दुनिया में फ्री स्टाइल और ग्रीको रोमन शैली ही कुश्ती की मान्य प्रतियोगिताएं हैं। आप भले अपनी कुश्ती को प्राचीन गौरव से जो़ड़ते रहें, लेकिन दुनिया वही मानती है, जिसे ज्यादातर देश मान्य करते हैं। 

अच्छी बात यह है कि अखाड़ों की मिट्टी से शुरू हुआ यह सफर अब वैश्विक स्तर की गद्दों पर लड़ी जाने वाली कुश्तियो में भी अपना रंग दिखाने लगा है। क्योंकि पूजा चाहे नाग की ही क्यों न हो, आस्था को संतुष्ट कर सकती है, पदक नहीं दिलवा सकती। इसके लिए तो मुग्ध करने वाली आराधना से ज्यादा कठोर  साधना की जरूरत होती है। ‘चंदन चाचा के बाड़े में’ कविता किसने और कब लिखी, इस पर मतभेद हैं, लेकिन इस कविता में अखाड़े में उतरे पहलवानों की आंकी-बांकी कुश्ती, तेवर और दांव पेंच का जो सजीव वर्णन है, वह लाजवाब है। यूं यह बाल कविता है, लेकिन वयस्कों को भी कुछ क्षण के लिए सलबला  देती है। क्योंकि चुनौती को स्वीकार करना और उस पर हिकमत के साथ विजय पाना ही इस कविता का संदेश है। पंचमी पर नाग पूजा से नाग कितने खुश और मेहरबान होते हैं, पता नहीं, लेकिन अटूट परिश्रम और अडिग संकल्प से कुश्ती के मेडल जरूर हाथ आते हैं। यह बात तो अब नागों को भी माननी पड़ेगी, भले ही वो ‘चंदन चाचा के बाड़े में’ न सरसराते हों।  

 

अजय बोकिल
वरिष्ठ संपादक
‘राइट क्लिक’

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