आपकी कलम

माता-पुत्र का संवाद

Paliwalwani
माता-पुत्र का संवाद
माता-पुत्र का संवाद

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मैं : मां ! ये पूजी म्हाराज मुझे बहुत अच्छे लगते हैं।

मातुश्री : बेटा ! दुनिया में इनसे बढ़कर अच्छा कौन होगा ?

मैं : मां ! पूजी म्हाराज के पांव बहुत कोमल हैं ।

ये नंगे पांव चलते हैं, इनके पांवों में कांटे नहीं लगते हैं ।

मातुश्री : बेटा ! पूजी म्हाराज बहुत भाग्यशाली हैं, इनके प्रबल पुण्यों का उदय है ।

पुण्यवान महापुरुषों के पग-पग पर निधान बिछे रहते हैं ।

कांटे इनको कोई कष्ट नहीं देते ।

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मैं : मां ! यहां इतने साधू हैं ।

इनमें पूजी म्हाराज जैसा कोई दूसरा नहीं है ।

देखो, इनके चेहरे की चमक कितनी आकर्षक है ।

मातुश्री : बेटा ! पूजी म्हाराज ने इतने पुण्यों का संचय कब और कैसे किया, कहना कठिन है ।

इनकी पुण्यवत्ता हम देख ही पाते हैं ।

उसका वर्णन नहीं कर पाते ।

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मैं : मां ! एक बात और पूछना चाहता हूं । 

मैंने सुना है कि पूजी म्हाराज के पीछे दुसरे पूजी म्हाराज होते हैं ।

मां ! इनके पीछे कौन होगा ? इत्ती-सी बात आप मुझे बता दें ।

मां : ( आंखें लाल कर डांटते हुए ) खबरदार ! जो ऐसे शब्द दूसरी बार मुंह से निकाले ।

अपने पूजी म्हाराज कोड दिवाली ( 1 करोड़ दिवाली ) राज करें और

हमें धर्म का उपदेश देते रहें ।

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मैं : ( अपने नादानी भरे प्रश्न के कारण सहमता हुआ ) 

मां ! ये पूजी म्हाराज मुझे बहुत अच्छे लगते हैं ।

मैं बार-बार इनके पास जाकर इन्हें देखता हूं ।

फिर भी मन तृप्त नहीं होता ।

मातुश्री : बेटा ! तू भाग्यशाली है ।

कर्मों का हल्कापन है, इसी कारण तेरे मन में ऐसी बातें आ रही है । 

गुरु एक बार भी अपनी करुणामयी नज़रों से 

जिस व्यक्ति की ओर देख लेते हैं, वह कृतार्थ हो जाता है ।

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मैं : मां ! मेरे मन में बार-बार यह भावना जाग रही है कि 

मैं अपना पूरा जीवन पूजी म्हाराज के चरणों में भेंट कर दूं । 

मैं उनका छोटा शिष्य बनूँ और उनके चरणों में बैठकर पढता रहूँ ।

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मातुश्री : बेटा ! तेरी भावना बहुत अच्छी है ।

पर ऐसे भाग्य कहां है द्य तेरे बड़े भाई ( चम्पक मुनि )

सौभाग्यशाली हैं ।

उनको पूजी म्हाराज की सेवा करने का अवसर मिला है ।

तू एक काम कर सकता है ।

जितने दिन पूजी म्हाराज यहां रहें, प्रतिदिन दर्शन किया कर ।

उनके चरणों में अपना सिर लगाकर वंदना किया कर

और उपासना का लाभ उठा ।

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मैंने सहजभाव से अपनी बाल सुलभ जिज्ञासाओं को मां के सामने रखा ।

मां ने प्रत्येक जिज्ञासा का शांति और गंभीरता से समाधान दिया ।

किन्तु एक प्रश्न ने उसको बौखला दिया ।

मुझे यह ज्ञात होता कि 

इस प्रकार का प्रश्न नहीं पूछना चाहिए तो मैं कभी नहीं पूछता ।

पर मैं कुछ जानता नहीं था,

इसलिए मन में जो आया, वही पूछ लिया ।

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उस प्रश्न के बाद मां के चेहरे का भाव देखकर और 

उनका खीझपूर्ण उत्तर सुनकर मुझे अहसास हुआ कि यह बात पूछने की नहीं है ।

अब तो जब कभी उस प्रसंग की याद आती है,

मुझे हंसी आने लगती है ।

कभी-कभी संकोच का भी अनुभव होता है ।

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उस समय की ये बातें जब-जब स्मृति के दरवाजे पर दस्तक देती है,

मैं आज भी आत्मविभोर हो जाता हूं।

कौन जानता था कि एक बालक के मन की कल्पनाएं इतनी जल्दी साकार हो जायेंगी ।

गुरुदेव के चरणों में बैठकर अध्ययन करने का मेरा सपना जिस रूप में साकार हुआ,

मुझे वह एक आश्चर्य जैसा प्रतीत होता है ।

- गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलसी की आत्मकथा 

“ मेरा जीवन मेरा दर्शन “ से

Rajendar Jain Dudhoria-जागरूकता मंच

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