आपकी कलम
धरतीपुत्र मोहम्मद फैज़ खान की पुकार : बकरीद पर बलि नहीं, करुणा, जैन दर्शन और भारतीय संवेदना से मनाएँ पर्व
रविंद्र आर्य
"गाय का मांस नहीं, दूध पीजिए...खून नहीं, करुणा बहाइए..."
लेखक: रविंद्र आर्य
● भारतीय लोकसंस्कृति, इतिहास और सामरिक चेतना के स्वतंत्र विश्लेषक पत्रकार
दिल्ली.
भारत: पर्वों का नहीं, मूल्य–संस्कारों का देश, बल्कि यह त्याग, करुणा और सह-अस्तित्व जैसे मूल्यों की जीवित परंपरा है। यहाँ धर्म का अर्थ केवल पूजा-पद्धतियाँ नहीं, बल्कि मानवता, संवेदना और दया की प्रतिष्ठा है। ऐसे समय में जब धार्मिक आस्था के नाम पर निरीह प्राणियों की बलि दी जाती है, कुछ जागरूक आत्माएँ इस परंपरा को चुनौती देकर भारत को उसकी करुणामूलक चेतना की ओर लौटने का आमंत्रण देती हैं। इन्हीं में एक नाम है मोहम्मद फैज़ खान, दिल्ली निवासी और मुस्लिम राष्ट्रीय मंच (गौसेवा प्रकोष्ठ) के राष्ट्रीय संयोजक।
बकरीद : बलि की नहीं, विवेक और संवेदना की पुकार
फैज़ खान का सशक्त आग्रह है:
"गाय को बलि का माध्यम नहीं, करुणा का पात्र बनाइए। धर्म केवल रिवाज नहीं, दया और विवेक का नाम है। "वे चाहते हैं कि ईद-उल-अजहा को बलिदान की प्रतीकात्मक भावना तक सीमित किया जाए—जहाँ अहंकार, क्रोध और हिंसा की बलि दी जाए, निरीह पशुओं की नहीं। उनका मत है कि मुस्लिम समाज को आत्मपुनरावलोकन कर यह सोचना चाहिए कि क्या बलि की परंपरा आज भी उसी नैतिक प्रासंगिकता के साथ खड़ी है?
मुस्लिम राष्ट्रीय मंच का आयोजन : गौसेवा और काऊ मिल्क पार्टी
● 6 जून 2025 को दिल्ली स्थित श्रीराम हनुमान वाटिका मंदिर गोशाला में फैज़ खान के नेतृत्व में एक अभिनव आयोजन किया जाएगा। यहाँ गाय को गुड़-चारा खिलाया जाएगा और “काऊ मिल्क पार्टी” का आयोजन होगा। इसका उद्देश्य मुस्लिम समाज में गौ-प्रेम और हिंसा रहित त्योहार की भावना को जागृत करना है।
● कार्यक्रम में इस्लामी परंपरा से यह ऐतिहासिक हदीस उद्धृत की जाएगी:
● "गाय का दूध शिफा है, गाय का घी दवा है, इसका मांस बीमारी है।"
● यह इस्लाम की मूल भावना का प्रमाण है कि गाय के दुग्ध उत्पाद स्वास्थ्यवर्धक हैं और उसके मांस से बचाव की शिक्षा दी गई है।
● जैन दर्शन : भारत की आत्मा में जीवदया का आलोक
● भारत की धार्मिक चेतना में जैन धर्म की भूमिका अद्वितीय है। वहाँ अहिंसा को परम धर्म कहा गया है। फैज़ खान जैन मुनियों की उस भावना से प्रेरित हैं जिसमें-"सव्वे पाणा सुखी होंतु" – सभी प्राणी सुखी हों।
● जैन मुनि झाड़ू लेकर चलते हैं ताकि किसी जीव की अनजाने में भी हिंसा न हो। यह जीवनदृष्टि भारत की आत्मा है—जहाँ बलि नहीं, करुणा का उत्सव होता है।
पशुबलि के विरुद्ध वैश्विक चेतना
● फैज़ खान की यह सोच वैश्विक स्तर पर प्रतिध्वनित होती है। आज कई संस्थाएँ धर्म और परंपरा से परे पशुओं के प्रति करुणा को मानवता का मूल मानती हैं:
● PETA – वैश्विक संस्था जो पशु अधिकारों की रक्षा में कार्यरत है।
● PFA (People for Animals) – भारत की अग्रणी संस्था, जिसकी स्थापना मेनका गांधी ने की।
● Peepal Farm – हिमाचल की संस्था जो परित्यक्त पशुओं की सेवा करती है।
● Animal Welfare Board of India (AWBI) – भारत सरकार की संस्था जो धार्मिक अवसरों पर पशुबलि को नियंत्रित करने हेतु दिशा-निर्देश जारी करती है।
इन संस्थाओं की मूल भावना वही है जो फैज़ खान की पुकार में है :
● “धर्म हिंसा नहीं सिखाता, करुणा का विस्तार है।”
● गाय : भारतीय संस्कृति की करुणामयी प्रतीक
● फैज़ खान गाय को केवल धार्मिक प्रतीक नहीं, बल्कि भारतीय मातृत्व संस्कृति का जीवंत स्वरूप मानते हैं। उनका कहना है:
● "गाय केवल एक पशु नहीं, वह भारत माता की करुणा का मूर्त रूप है। वह दूध देती है, दवा देती है, जीवन देती है।"
● वे मुस्लिम समाज से अपील करते हैं कि वे गाय की हत्या को धर्म न समझें। यह भारत की आत्मा को चोट पहुँचाने जैसा है और सामाजिक विद्वेष का कारण बन सकता है।
भारतीय आत्मा : कबीर, गांधी और महावीर से अनुप्राणित स्वर
● फैज़ खान का स्वर भारतीय संत परंपरा का जीवित प्रतिबिंब है—जहाँ कबीर की निर्भीकता है, गांधी की अहिंसा है, और महावीर की जीवदया। वे कहते हैं:
● "भारत में जन्म लिया है तो भारतीय मूल्यों को आत्मसात करना ही धर्म है। कोई भी परंपरा यदि क्रूरता और हिंसा पर टिकी हो, तो उसका परिष्कार ही सच्ची धार्मिकता है।"
● धर्म का भविष्य करुणा में है, क्रूरता में नहीं
● मोहम्मद फैज़ खान, मुस्लिम राष्ट्रीय मंच, PETA, PFA, AWBI, और जैन धर्म-सभी का एक ही साझा संदेश है:
● "बलि नहीं, प्रेम दीजिए। पर्व नहीं, परंपरा बनाइए-जो अहिंसा और संवेदना की हो।"
● "गाय का मांस नहीं, दूध पीजिए। खून नहीं, करुणा बहाइए।"
भारत को करुणा की ओर लौटाना होगा
● आज जब धर्म के नाम पर हिंसा को जायज़ ठहराने की प्रवृत्ति बढ़ रही है, तब मोहम्मद फैज़ खान जैसे चिंतकों की आवाज़ एक आंतरिक सुधार की पुकार है। वे न केवल मुस्लिम समाज को आत्ममंथन के लिए आमंत्रित करते हैं, बल्कि पूरे भारत को उसकी सांस्कृतिक चेतना की याद दिलाते हैं।