धर्मशास्त्र

श्री योग वशिष्ठ महा रामायण : हे सुन्दमूर्ते, रामजी...!

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श्री योग वशिष्ठ महा रामायण : हे सुन्दमूर्ते, रामजी...!
श्री योग वशिष्ठ महा रामायण : हे सुन्दमूर्ते, रामजी...!

प्रसंग 223 : श्री योग वशिष्ठ महा रामायण  

वशिष्ठजी बोले, हे सुन्दमूर्ते, रामजी ! यह सुन्दर सिद्धान्त जो उपशम प्रकरण है उसे सुनो, तुम्हारे कल्याण के निमित्त  कहता हूँ। यह संसार महादीर्घ रूप है और जैसे दृढ़थम्भ के आश्रय गृह होता है तैसे ही राजसी जीवों का आश्रय संसार मायारूप है।

तुम सरीखे जो सात्त्विक में स्थित हैं वे शूरमे हैं, जो वैराग, विवेक आदिक गुणों से सम्पन्न हैं वे लीला करके यत्न बिना ही संसार माया को त्याग देते हैं और जो बुद्धिमान् सात्त्विक जागे हुए हैं और जो राजस और सात्त्विक हैं वे भी उत्तम पुरुष हैं।

वे पुरुष जगत् के पूर्व अपूर्व को विचारते हैं। जो सन्तजन और सत्शास्त्रों का सङ्ग करता है उसके आचरणपूर्वक वे विचरते हैं और उससे ईश्वर परमात्मा के देखने की उन्हें बुद्धि उपजती है और दीपकवत् ज्ञानप्रकाश उपजता है। हे रामजी ! जब तक मनुष्य अपने विचार से अपना स्वरूप नहीं पहिचानता तब तक उसे ज्ञान प्राप्त नहीं होता।

जो उत्तम कुल, निष्पाप, सात्त्विक- राजसी जीव हैं उन्हीं को विचार उपजता है और उस विचार से वे अपने आपसे आपको पाते हैं। वे दीर्घदर्शी संसार के जो नाना प्रकार के आरम्भ हैं उनको विचारते हैं और विचार द्वारा आत्मपद पाते हैं और परमानन्द सुख में प्राप्त होते हैं। इससे तुम इसी को विचारो कि सत्य क्या है और असत्य क्या है? ऐसे विचार से असत्य का त्याग करो और सत्य का आश्रय करो।

जो पदार्थ आदि में न हो और अन्त में भी न रहे उसे मध्य में भी असत्य जानिये। जो आदि, अन्त एकरस है उसको सत्य जानिये और जो आदि अन्त में नाशरूप है उसमें जिसको प्रीति है और उसके राग से जो रञ्जित है वह मूढ़ पशु है, उसको विवेक का रङ्ग नहीं लगता। मन ही उपजता है और मन ही बढ़ता है, सम्यक् ज्ञान के उदय हुए मन निर्वाण हो जाता है।

मनरूपी संसार है और आत्मसत्ता ज्यों की त्यों है। रामजी ने पूछा हे ब्रह्मन् ! जो कुछ आप कहते हैं वह मैंने जाना कि यह संसार मन रूप,है और जरा मरण आदिक विकार का पात्र भी मन ही है। उसके तरने का उपाय निश्चय करके कहो। हम सब रघुवंशियों के कुल के अज्ञानरूपी तम को हृदय से दूर करने को आप ज्ञान के सूर्य हैं।

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी ! प्रथम तो जीव को विचारपूर्वक वैराग कहा है कि सन्तजनों का सङ्ग और सत्शास्त्रों से मन को निर्मल करे। जब मन को निर्मल करेगा तब स्वजनता से सम्पन्न होगा और वैराग्य उपजेगा। जब वैराग प्राप्त होगा तब अज्ञानवत् गुरु के निकट जावेगा और जब वह उपदेश करेंगे तब ध्यान, अर्चनादि के क्रम से से परमपद को प्राप्त होगा।

जब निर्मल विचार उपजता है तब अपने आपको आपसे देखता है-जैसे पूर्णमासी का चन्द्रमा अपने बिम्ब को आपसे देखता है। जब तक विचाररूपी तट का आश्रय नहीं लिया तब तक संसार में तृणवत् भ्रमता है और जब विचार करके ज्चों का त्यों वस्तु जानता है तब सब दुःख नष्ट हो जाते हैं। जैसे सोमजल के नीचे रेत जा रहती है तैसे ही आधी पीड़ा उसकी निवृत्त हो जाती है फिर उत्पन्न नहीं होती।

जैसे जब तक सुवर्ण और राख मिली हुई है तब तक सोनार संशय में रहता है और जब सुवर्ण और राख भिन्न हो जाती है तब संशय रहित सुवर्ण को प्रत्यक्ष देखता है और तभी निःसंशय होता है, तैसे ही अज्ञानी जीवों को मोह उत्पन्न होता है और देह इन्द्रियों से मिला हुआ संशय में रहता है जब विचार से भिन्न-भिन्न जाने तब मोह नष्ट हो और तभी संशय से रहित शुद्ध अविनाशीरूप आत्मा को देखता है।

विचार किये मोह का अवसर नहीं रहता- जैसे अज्ञानी पुरुष चिन्तामणि की कीमत नहीं जान सकता, जब उसको ज्ञान प्राप्त होता है तब ज्यों का त्यों जानता है और मोह संशय निवृत्त हो जाता है, तैसे ही जीव जब तक आत्मतत्त्व को नहीं जानता तब तक दुःख का भागी होता है और जब ज्यों का त्यों जानता है तब शुद्ध शान्ति को प्राप्त होता है।

हे रामजी ! आत्मा देह से मिश्रित भासता है पर वास्तव में कुछ मिश्रित नहीं, इससे अपने स्वरूप में शीघ्र ही स्थित हो जावो। निर्मल स्वरूप जो आत्मा है उसको रञ्चकमात्र भी देह से सम्बन्ध नहीं- जैसे सुवर्ण कीच में मिश्रित भासता है तो भी सुवर्ण को कीच का लेप नहीं,

निर्लेप रहता है तैसे ही जीव को देह से कुछ सम्बन्ध नहीं निर्लेप ही रहता है- आत्मा भिन्न है, देह भिन्न है। जैसे जल और कमल भिन्न रहते हैं। मैं ऊँची भुजा करके पुकारता हूँ, मेरा कहा मूर्ख नहीं मानते कि संकल्प से रहित होना परम कल्याण है। यही भावना हृदय में क्यों नहीं करते? जब तक जड़ धर्मी है अर्थात् विषय भोगों में आस्था करता है और आत्मतत्त्व से शून्य रहता है तब तक मूढ़ रहता है, जबतक स्वरूप का प्रमाद है तब तक हृदय से संसार का तम और किसी प्रकार दूर नहीं होता।

चन्द्रमा उदय हो और अग्नि का समूह हो वा द्वादश सूर्य इकट्ठे उदय हों तो भी हृदय का तम किंचित्‌मात्र भी दूर नहीं होता और जब स्वरूप को जानकर आत्मा में स्थित हो तब हृदय का तम नष्ट हो जावेगा। जैसे सूर्य के उदय हुये जगत् का अंधकार नष्ट होता है। जब तक आत्मपद का बोध नहीं होता और भोगों में मन तद्रूप है तब तक संसार समुद्र में बहे जावोगे और दुःख का अन्त न आवेगा।

जैसे आकाश में धूलि भासती है परन्तु आकाश को धूलि का सम्बन्ध कुछ नहीं और जैसे जल में कमल भासता है परन्तु जल से स्पर्श नहीं करता, सदा निर्लेप रहता है, तैसे ही आत्मा देह से मिश्रित भासता है परन्तु देह से आत्मा का कुछ स्पर्श नहीं, सदा विलक्षण रहता है जैसे सुवर्ण कीच और मल से अलेप रहता है।

देह जड़ है आत्मा उससे भिन्न है और सुख दुःख का अभिमान आत्मा में भासता है वह भ्रममात्र असत्यरूप है। जैसे आकाश मैं दूसरा चन्द्रमा और नीलता असत्यरूप है तैसे ही आत्मा में सुख दुःखादि असत्यरूप हैं। सुख दुःख देह को होता है, सबसे अतीत आत्मा में सुख दुःख का अभाव है।

यह अज्ञान करके कल्पित है, देह के नाश हुए आत्मा का नाश नहीं होता, इससे सुख दुःख भी आत्मा में कोई नहीं, सर्वात्मामय शान्तरूप है। यह जो विस्तृत रूप जगत् दृष्टि आता है वह मायामय है, जैसे जल में तरङ्ग और आकाश में तरखरे भासते हैं तैसे ही आत्मा में जो जगत् भासता है सो आत्मा ही है,न एक है, न दो है सब आभास हैं और मिथ्यादृष्टि से आकार भासते हैं।

जैसे मणि का प्रकाश मणि से भिन्न नहीं और जैसे अपनी छाया दृष्टि आती है तैसे ही आत्मा का प्रकाश रूप जो जगत् भासता है वह सब ब्रह्मरूप है। मैं और हूँ, यह जगत् और है, इस भ्रम को त्याग करो, विस्तृतरूप ब्रह्मघन सत्ता में और कोई कल्पना नहीं। जैसे जल में तरङ्ग कुछ भिन्न वस्तु नहीं जलरूप ही है; तैसे सर्वरूप आत्मा एक है, उसमें द्वितीय कल्पना कोई नहीं।

जैसे अग्नि में बरफ के कणके नहीं होते, तैसे ही ब्रह्म में दूसरी वस्तु कुछ नहीं। इससे अपने स्वरूप की आपही भावना करो कि 'मैं चिन्मात्ररूप हू "जगत्जाल सब मेरा ही स्वरूप है" और "मैं ही विस्तृतरूप हूँ" जो कुछ है वह देव ही है, न शोक है, न मोह है, न जन्म है न मृत्यु है।

ऐसे जानकर विगतज्वर हो जावो, तुम्हारी स्थिरबुद्धि है और तुम शान्तरूप, श्रेष्ठ, मणिवत निर्मल हो। हे राघव ! तुम निर्द्वन्द्व होकर नित्यस्वरूप में स्थित होजावो और सत्यसंकल्प, धैर्य सहित हो, यथा प्राप्ति में बर्तो। तुम वीतराग, निर्यल, निर्मल, वीतकल्मष हो, न देते हो, न लेते हो, ग्रहण त्याग से रहित शान्तरूप हो।

विश्व से अतीत जो पद है उसमें प्राप्त होकर जो पाने योग्य पद है उसको पाकर परिपूर्ण समुद्रवत् अक्षोभरूप, संताप से रहित विचरो। हे रामजी! संकल्पजाल से मुक्त और मायाजाल से रहित अपने आपसे तृप्त और विगतज्वर हो जावो। आत्मवेत्ता का शरीर अनन्त है और तुम भी आदि अन्त से रहित पर्वत के शिखरवत् विगतज्वर हो। हे रामजी ! तुम अपने आपसे उदार होकर अपने आप आनन्द से आनन्दी होवो।

जैसे समुद्र और पूर्णमासी का चन्द्रमा अपने आनन्द से आनन्दवान् है तैसे ही तुम भी आनन्दवान् हो। यह जो प्रपञ्चरचना भासती है सो असत्य है, जो ज्ञानवान् है वे असत्य जानकर इसकी ओर नहीं धावते। तुम तो ज्ञानवान् हो असत्य कल्पना त्याग करके दुःख से रहित हो और नित्य, उदित, शान्तरूप, शुभगुण संयुक्त उपदेश द्वारा चक्रवर्ती होकर पृथ्वी का राज्य करो, प्रजा की पालना कर और समदृष्टि से बिचरो।

बाहर से यथाशास्त्र शुभ चेष्टा करो और राज्य की मर्यादा रखो पर हृदय से निर्लेप रहना। तुमको त्याग और ग्रहण से कुछ प्रयोजन नहीं और ग्रहण त्याग में समदृष्टि होकर राज्य करो।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशम प्रकरणे प्रथम उपदेशोनाम पञ्चमस्सर्गः ॥ ५/५६४॥

आप प्रशांत रहो। अशांत नहीं, शांत नहीं वरन् प्रशांत रहो...

अपनी भूल का एहसास नहीं होता है तो समझो आदमी की बहुत गहरी दुर्गति होनेवाली है।

भगवान कहते हैं- जितात्मनः प्रशांतस्य। आप प्रशांत रहो। अशांत नहीं, शांत नहीं वरन् प्रशांत रहो अर्थात् सुव्यस्थित शांत रहो। शारीरिक, मानसिक या बौद्धिक चाहे कोई भी प्रतिकूलता आये या अनुकूलता, आप प्रशांतात्मा रहो, जितात्मा रहो। ज्यों-ज्यों आप जितात्मा होंगे, त्यों-त्यों आपका जीवन सशक्त होगा, निखरेगा और आप सफलता के उन शिखरों पर पहुँच जायेंगे, जहाँ पहुँचना साधारण आदमी के लिए असाध्य है, दुर्लभ है।

कर्म अगर ब्रह्मज्ञानी गुरु के मार्गदर्शन में हों तो आदमी परम सिद्धि पा लेता है ।

पूज्य संत श्री आशारामजी बापू

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