रतलाम/जावरा

विनम्रता और अहंकार शून्यता की प्रतिमूर्ति श्री हनुमान-मधु शर्मा असिस्टेंट प्रोफेसर का इंटरव्यू

जगदीश राठौर
विनम्रता और अहंकार शून्यता की प्रतिमूर्ति श्री हनुमान-मधु शर्मा असिस्टेंट प्रोफेसर का इंटरव्यू
विनम्रता और अहंकार शून्यता की प्रतिमूर्ति श्री हनुमान-मधु शर्मा असिस्टेंट प्रोफेसर का इंटरव्यू
  1. मंजुल मंगल मोदमय मूरति मारुत पूत। सकल सिद्धि कर कमल तल सुमिरत रघुवर दूत।।

    धीर वीर रघुवीर प्रिय सुमिरि समीर कुमारू। अगम सुगम सब काज करू करतल सिद्धि बिचारु।।

अनंत बलवंत, महावीर, परमपराक्रमी, परम सेवक, जितेंद्रिय, ज्ञानियों में अग्रगण्य, राम भक्त श्री हनुमान जी का पावन चरित्र प्राणी मात्र के लिए सदैव प्रेरणा का स्तोत्र रहा है हमारे देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी हनुमान जी पूजनीय है। भारत के तो प्रत्येक गांव, शहर, छोटे से छोटे स्थान जंगल, पर्वत, पहाड़, नगर गली सभी जगह हनुमान जी के मंदिर इस बात का प्रमाण देते हैं कि हनुमान जी जन-जन के प्रिय देवता है यहां प्रत्येक घर में हनुमान  भक्त मिल मिल जाएंगे।

सनातनियों का ऐसा कौन सा घर होगा जहां हनुमत आराधन न किया जाता हो जहाँ हनुमान चालीसा या बजरंग बाण का पाठ ना होता हो। बल्कि हनुमान चालीसा तो लगभग बड़े ही नहीं बच्चों को भी याद है। हनुमान जी केवल रामकालीन  ही नहीं बल्कि तब से लेकर आज तक जन- जीवन की भक्ति,शक्ति एवं पराक्रम के स्रोत रहे हैं चाहे बलवान हो या दुर्बल बच्चे हो या बूढ़े स्त्री हो या पुरुष धनी या निर्धन सभी के आराध्य है यह तो हुई उनकी आराधना साधना व जन प्रियता की बात इसके साथ ही उनके गुणों का चिंतन करते हैं कहते हैं इष्ट की पूजा से कुछ नहीं होता जब तक उनके गुण भक्त में, साधक में नहीं आ जाते वह सच्चा भक्त नहीं बन सकता।

अतः जिसका जो इष्ट होता है उसके गुण स्वत: ही मनुष्य में आ जाते हैं तो यदि  हनुमान जी के भक्त हैं उनके सेवक हैं तो उनके सारे ही ना सही परन्तु कुछ गुण अवश्य मनुष्य के अंदर आने चाहिए तभी वह स्वयं को उनका भक्त कहलाने का अधिकारी हो सकता है अन्यथा नहीं। 

पवनपुत्र के गुणों का वर्णन करना आसान नही है केवल उनके कृपा प्रसाद से ही कुछ शब्द उनकी सेवा में निवेदन किये जा सकते है। इसी श्रृंखला में जब हनुमान जी के गुणों की बात करते है तो उनके गुणों में सर्व प्रमुख गुण है विनम्रता एवं अहंकार शून्यता का। वह कभी अपनी शक्ति का अभिमान नहीं करते बल्कि उन्हें तो अपनी शक्ति का भान भी नहीं रहता उन्हें तो उनकी शक्ति स्मरण करवानी पड़ती है और उनकी शक्ति के बारे में वीरता के बारे में क्या कहें जो बचपन में खेल-खेल में सूरज को फल समझकर मुंह में दबा गए।

लक्ष्मण मूर्छित हुए तो संजीवनी बूटी की जगह पूरा पर्वत उठा लाये। शूरता, दक्षता, बल, धैर्य, बुद्धिमत्ता, नीति, पराक्रम, विनम्रता आदि गुण पवन पुत्र के भीतर समाये हुए हैं ऐसा कौन सा गुण है जो बजरंगबली में ना हो ऐसा कौन सा कार्य है जो उनके लिए सुलभ न हो। कवन सो काज कठिन जग माही । जो नही होइ तात तुम पाही।।

हनुमान जी चारों वेदों और व्याकरण के विशुद्ध ज्ञाता के साथ-साथ विभिन्न प्रांतो एवं क्षेत्रों की भाषा और बोलियो के भी जानकार थे। जब माता-सीता के पास अशोक वाटिका में पहुंचते हैं तो विचार करते हैं की मां को संदेश कैसे और किस भाषा में दिया जाए 

"यदि वाचं प्रदास्यामि द्विजातिरिव संस्कृताम। रावणं मन्यमाना मां सीता भीता भविष्यति। अवश्यमेव वक्तव्यं मानुषं वाक्यमर्थवत। मया सांत्वयितुं शक्त्या वाल्यथेयमनिन्दिता।।" अर्थात यदि मैं द्विज की भांति संस्कृत भाषा का प्रयोग करूंगा तो माता सीता मुझे रावण मानकर भयभीत ना हो जाए। ऐसी दशा में मुझे अवश्य ही ऐसी भाषा का प्रयोग करना चाहिए जो साधारण जनता याने अयोध्या वासी बोलते हो अन्यथा में सती साध्वी सीता जी को उचित आश्वासन नहीं दे पाऊंगा ऐसा विचार करके हनुमान जी सामान्य भाषा में माता सीता से वार्तालाप करते हैं.

सामान्यतः संसार में देखा जाता है कि जिसमें बल होता है, उसमें बुद्धि नहीं होती, जिसमें बुद्धि होती है, वह बलवान नहीं होता, जिसमें ज्ञान होता है, उसमें भक्ति नहीं होती और जिसमें भक्ति होती है, उसमें ज्ञान की कमी रहती है, परंतु श्री हनुमान जी महाराज में इन सभी गुणों का समन्वय एक साथ दिखाई देता है. क्योंकि वह गुणों की खान है इतनी विशेषताएं होते हुए भी उनमें अहंकार का लेश मात्र भी नही है और हम जैसे सामान्य जीव में एक गुण भी आ जाता है, तो हम अहंकार से फूले नहीं समाते.

सुंदरकांड जो रामायण व रामचरितमानस का अहम कांड है वह वस्तुतः हनुमान जी के चरित्र वाक्चातुर्य, बुद्धिमत्ता, विनम्रता अन्यान्य गुणों से संपन्न स्वर्णिम कांड है। हनुमान जी जब 100 योजन समुद्र पार करते हैं तब मार्ग में विभिन्न प्रकार की बाधाएं विभिन्न रूपों में उनका मार्ग अवरुद्ध करने के लिए आती है परंतु वह बुद्धिमत्ता के प्रयोग से सारी बाधाओ को पार करके आगे बढ़ते जाते हैं उसी क्रम में उनकी भेंट सुरसा से होती है जब उन्हें लगता है कि यहां विस्तार से काम नहीं होगा तो वह अपने स्वरूप को लघु करके सुरसा के मुख में प्रवेश करके पुनः बाहर आ जाते हैं उनके इस कार्य व बुद्धिमत्ता की सुरसा प्रशंसा करते हुए आशीष देती है हनुमान जिस कार्य से तुम आए हो वह अवश्य सफल होगा मैं तुम्हारी परीक्षा लेने आई थी मैंने तुम्हारे बुद्धि बल का भेद पा लिया है।

 राम काज सब करिहहु  तुम्ह बल बुद्धि निधान।आशीष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान। इसके बाद लंका में जाकर केवल माँ सीता की खोज ही नहीं करते बल्कि पूरी लंका का अवलोकन करके वहां का नक्शा दिमाग में बिठाकर लाते हैं कहां किस जगह क्या-क्या बना है उसकी सुरक्षा कैसी है शस्त्रागार में क्या है ऐसे ही पूरी लंका का भ्रमण नहीं  करते यह उनके बुद्धि कौशल का परिचय हैं। रावण की लंका में अशोक वाटिका को उजाड़ कर रावण के पुत्र व वीर योद्धाओं का वध करके लंका में आग लगाकर श्री राम के नाम का डंका बजाते हैं, मानो चेतावनी दी हो, लंका वासियों को भयभीत किया और उन्हें सोचने पर मजबूर कर दिया जिसका दूत ऐसा विध्वंस कर सकता है तो उसके स्वामी कैसे होंगे।

अपने संपूर्ण जीवन में हनुमान जी सेवक धर्म को बड़ी कुशलता से निभाते हैं वह अपने कार्य का श्रेय हमेशा दूसरों को देते हैं जब लंका से लौटकर श्री राम के चरणों में आते हैं शीश झुकाए चुपचाप खड़े रहते हैं सब वानर उनके पराक्रम का वर्णन करते हैं वह कुछ नहीं कहते फिर प्रभु श्री राम हनुमान जी से कहते हैं 

सुन कपि  तोहि समान उपकारी। नहि कोउ सुर नर मुनि तनु धारी ।।  

राम जी द्वारा की गई प्रशंसा का बड़ी नम्रता पूर्वक नेत्रों को नीचे करके प्रभु को प्रणाम करते हुए बजरंगबली कहते हैं -

"सो सब तब प्रताप रघुराई नाथ न कछू मोरि प्रभु ताई।" "ता कहूं प्रभु कछु गम नहीं जहां पर तुम अनुकूल।

 तव प्रभाव बड़वानलहि , जारि सकई खलु तुल।।

हे प्रभु ! जिस पर आप प्रसन्न हो उसके लिए कुछ भी कठिन नहीं है आपके प्रभाव से रुई भी बड़वानल को निश्चय ही जला सकती है (अर्थात असंभव भी संभव हो सकता है )

श्रेष्ठ अद्वितीय एवं उदात्त चरित्र के धनी श्री हनुमान जी को तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में श्री राम के अन्य सेवक के रूप में चित्रित किया है कहा भी गया है 'सबसे सेवक धर्म कठोरा' आज सब मालिक बनना चाहते हैं सेवक नहीं, गुरु बनना चाहते हैं परंतु शिष्य नहीं। हनुमान जी के गुणों में से कोई एक गुण भी जिसने अपने जीवन में उतार लिया वही उनका सच्चा भक्त कहलाने के योग्य हो सकता है जब सच्चा भक्त बन जाएगा तो उसके लिए कुछ भी अगम्य नहीं होगा। श्रीमन्मध्वाचार्य जी के द्वारा रचित 'तंत्रसार' में लिखा है विद्यावापि धनम् वापि राज्यं वा शत्रुनिग्रहं। तत्क्षणादेव चाप्नोति सत्यं सत्यं सुनिश्चित्तम। 

अर्थात विद्या, धन, राज्य श्री शत्रु निग्रह आदि सभी कामनाओं की पूर्ति निश्चित ही  हनुमान जी के पूजन से संभव है हनुमान जी अष्ट सिद्धि और नवनिधि के दाता है यह आशीर्वाद केवल उन्हें ही प्राप्त है वह लौकिक और पारलौकिक दोनों ही सुख प्रदान कर सकते हैं राम से मिलना है तो हनुमान जी से बना कर रखिए एक हनुमंत ही है जो भगवंत से मिला सकते हैं अन्य कोई नहीं जो यह कार्य  सके।

यह कार्य तो स्वयं राम जी, कृष्ण जी और शिवजी भी नहीं करते हैं ऐसा कौन सा कार्य है जो केवल हनुमान जी कर सकते हैं संकट कटे मिटे सब पीरा ।जो सुमिरे हनुमत बलबीरा। प्रभु के चरणों में यही प्रार्थना है जो भी हनुमान जी के चरणों में समर्पित इस वाणी को पढ़े उनके सारे संकट हनुमान जी महाराज शीघ्रतिशीघ्र दूर करने की कृपा करें।

  • रतलाम जिला ब्यूरो चीफ : जगदीश राठौर M. 9425490641

 

  1. !! हनुमान जी के गुणों में से कोई एक गुण भी जिसने अपने जीवन में उतार लिया वही उनका सच्चा भक्त कहलाने के योग्य हो सकता है जब सच्चा भक्त बन जाएगा तो उसके लिए कुछ भी अगम्य नहीं होगा ।श्रीमन्मध्वाचार्य जी के द्वारा रचित 'तंत्रसार' में लिखा है विद्यावापि धनम् वापि राज्यं वा शत्रुनिग्रहं। तत्क्षणादेव चाप्नोति सत्यं सत्यं सुनिश्चित्तम !! 

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