इंदौर

भारतीय पत्रकारिता महोत्सव : महानाट्य छत्रपति शिवाजी महाराज

मिर्ज़ा ज़ाहिद बेग़
भारतीय पत्रकारिता महोत्सव : महानाट्य छत्रपति शिवाजी महाराज
भारतीय पत्रकारिता महोत्सव : महानाट्य छत्रपति शिवाजी महाराज

इंदौर. भारतीय पत्रकारिता महोत्सव सीजन 17 में रविवार 13 अप्रैल 2025 की शाम 'नटराज थिएटर ग्रुप एंड फ़िल्म प्रोडक्शन' द्वारा जाल सभागृह में खेले गए. महानाट्य 'छत्रपति शिवाजी महाराज' ने उपस्थित रँगमंच प्रेमियों में देशप्रेम, वीरता और राष्ट्रगौरव की सम्मिलित भावना का संचार कर उन्हें रोमांचित कर दिया.

नाटक की शुरुआत बाल शिवाजी द्वारा अपने पिता शाहू जी महाराज से तलवारबाज़ी सीखने के दृश्य से हुई. सर्वप्रथम युवा शिवाजी को तोरणा के युद्ध में भेजा जाता है. अगला ही दृश्य शिवाजी महाराज की सतत विजयों से त्रस्त बीजापुर सल्तनत के सेनापति अफ़ज़ल खान का है.  वह शिवाजी को संधि प्रस्ताव भेज निःशस्त्र बुलाकर धोखे से मारना चाहता है, पर शिवाजी उसके काइयाँपन को समझ मुलाक़ात के समय अपने पंजे में बाघनख पहन कर जाते हैं.

ख़ुद भी निःशस्त्र आने का वादा कर अफ़ज़ल खान गले मिलने के बहाने अपनी आस्तीन में छिपाए खंज़र से शिवाजी को मारने की क़ोशिश करता है, पर गुरिल्ला युद्ध में माहिर शिवाजी बिजली की फुर्ती से पंजे में पहने बाघनख से अफ़ज़ल खान को मौत के घाट उतार देते हैं. 

शिवाजी द्वारा एक के बाद एक जीते जा रहे, किलों और उनकी बढ़ती ताक़त से परेशान औरंगज़ेब उन्हें अपने दरबार में बुलाकर क़ैद कर लेता है. अपनी चतुराई से शिवाजी फलों की टोकरी में छुप कर क़ाराग़ार से आज़ाद हो स्वदेश पहुँच जाते हैं. बाद में शिवाजी महाराज अपने पराक्रम से स्वराज की स्थापना करते हैं. अत्यंत रुग्ण होकर वे स्वर्ग सिधारते हैं और उनके पुत्र संभाजी महाराज का राजतिलक होता है. 

अत्यंत तीव्र गति से खेले गये, इस नाटक के हर प्रसंग पर हॉल ''जय भवानी-जय शिवाजी'' के नारों और करतल ध्वनि से गूँजता रहता है. निर्देशक अर्जुन नायक ने बहुत छोटा स्टेज होने के बावज़ूद युद्ध दृश्यों और मराठा लोक संस्कृति का प्रभावी मंचन कर अपनी निर्देशकीय क्षमता की छाप छोड़ी है. नटराज थियेटर ग्रुप के द्वारा ही लिखे इस नाटक में कुछ तथ्यात्मक ग़लतियाँ हैं, जैसे अफ़ज़ल खान को मुग़ल बताया गया है. जबकि वह बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह का सेनापति होकर स्वयं बीजापुर की ओर से औरंगज़ेब की मुग़ल सेना से लोहा लेता रहा था. निर्देशक की रंगमंचीय ईमानदारी की प्रशंसा करनी होगी कि उसने बिना लाग-लपेट के अनजाने में हुई किसी भी तरह की ऐतिहासिक त्रुटियों के लिए खेद व्यक्त कर दिया था. 

कुल जमा 38 मिनट के नाटक में शिवाजी महाराज के जीवन की समग्र घटनाओं और उनके हिन्दवी स्वराज की परिकल्पना को समेटना सम्भव ही नहीं था. फिर भी कहा जा सकता है कि इतने कम समय में भी निर्देशक शिवाजी महाराज की प्रजावत्सलता, धर्मनिरपेक्षता और देशप्रेम की उदात्त भावना को दर्शकों के सामने बख़ूबी बयान करने में सफल हुआ है. 

नाटक के अंतिम दृश्य में अत्यंत रुग्ण शिवाजी महाराज अपने पुत्र संभाजी को कहते हैं-"तुम धर्म पर चलना पर धर्मान्ध मत बनना... मुग़लों से लड़ना पर उनसे सीख भी लेना... याद रखना हर नागरिक को अपनी श्रद्धा और विश्वास के साथ जीने का अधिकार है, यही मेरे हिन्दवी स्वराज का आधार है. " शिवाजी की यह सीख आज भी सबके लिए  प्रासंगिक है.

शिवाजी के रोल में आयुष शर्मा ने लाज़वाब अभिनय कर दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया. औरंगज़ेब के रोल में डॉ. जितेंद्र सिंह तोमर और अपनी वीरता पर आत्ममुग्ध अफ़ज़ल खान के रोल में शैलेश वाणी ने प्रभावी अभिनय किया है. जीजाबाई के रोल में निष्ठा मौर्य जैसी सक्षम अभिनेत्री के लिए करने को कुछ ख़ास नहीं था... जबकि अभी गत सप्ताह ही इन्दौर के नाट्य प्रेमी डी ए वी वी आडिटोरियम में खेले गए नाटक 'लहरों के राजहंस' में  गौतम बुध्द के सौतेले भाई की पत्नी 'सुंदरी' के रोल में उनके अभिनय की रेंज देख चुके हैं. उन्हें पर्याप्त स्पेस दिया जाना था.

प्रभावी दृश्यानुकूल संगीत संरचना अर्पित और प्रकाश की थी. प्रकाश परिकल्पना अर्जुन नायक की थी. फाइट मास्टर कबीर पटेल ने युध्द दृश्यों को प्रभावी रूप से मंचित किया. मनोरम नृत्य और रूप सज्जा मुस्कान केसरी की और पात्रानुसार वस्त्र विन्यास निष्ठा मौर्य का था.

समग्र रूप से कहा जा सकता है कि यदि मंच पर ज़्यादा स्पेस होता, शिवाजी को शिवाजी महाराज बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वालीं राजमाता जीजाबाई के पात्र को अधिक समय दिया जाता, शाइस्ता खान प्रसंग को स्थान दिया जाता... तो यह नाटक वास्तव में महानाट्य का प्रभाव छोड़ने में समर्थ होता. पता नहीं निर्देशक को इतनी ज़ल्दी क्यों थी...?

नाट्य समीक्षक : मिर्ज़ा ज़ाहिद बेग़

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