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Friday, 24 March 2023
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देश-विदेश

आखिर क्यों कश्मीर के महाराजा हरिसिंह भारत में विलय के लिए नहीं थे तैयार?

02 November 2021 12:09 AM Paliwalwani
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26 अक्टूबर 1947 वो दिन है, जब जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने मजबूरी में भारत के साथ विलय करने संबंधी 02 पेज के विलय पत्र पर साइन किए थे. इसके बाद इस राज्य का विलय भारत में हो गया. अक्सर ये सवाल उठता है कि जम्मू-कश्मीर के महाराजा ने भारत के साथ विलय पर फैसला लेने में इतनी देर क्यों की. वो आखिर क्यों भारत के साथ अपने राज्य को मिलाना नहीं चाहते थे.

क्लीमेंट एटली के ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनने और भारत में कैबिनेट मिशन की गतिविधियों के बाद ये बहुत साफ था कि भारत की आजादी और बंटवारा दोनों तय है. ऐसा होगा ही होगा. तब भारत और पाकिस्तान को मिला दें तो 600 के ऊपर रजवाड़े थे.इन रजवाड़ों के सामने ब्रिटिश सरकार ने दो विकल्प रखे कि या तो अपनी रियासत का विलय भारत या पाकिस्तान में किसी एक साथ कर लें या फिर स्वतंत्र अस्तित्व रखें. रजवाड़ों से ये भी कहा गया कि ऐसा करते समय अपनी भौगोलिक स्थिति और जनता के मन को जरूर देखें.

जम्मू कश्मीर में उस समय महाराजा हरि सिंह शासक थे और उनके मंत्री थे रामचंद्र काक. हालांकि जब ब्रिटिश राज ने भारतीय रजवाड़ों को ये विकल्प दिया तो ये भी साफ कर दिया कि उनका स्वतंत्र रह पाना मुश्किल होगा. ब्रिटिश इंडिया के अंतिम वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने सभी रजवाड़ों को यह साफ़ कर दियाा था कि स्वतंत्र होने का विकल्प उनके पास नहीं था. वे भौगोलिक सच्चाई की अनदेखी भी नहीं कर सकते थे. वे भारत या पाकिस्तान, चारों ओर से जिससे घिरे थे, उसमें ही शामिल हो सकते थे.

महाराजा का सपना था कश्मीर को आजाद और अलग रखना

महाराजा हरि सिंह अपने राज्य को ना तो भारत में मिलाना चाहते थे और ना ही पाकिस्तान में. उनके दिमाग में ये खयाल था कि वो भारत और पाकिस्तान के बीच आजाद मुल्क की हैसियत से रहेंगे. वो जम्मू-कश्मीर को स्विटजरलैंड की तरह खूबसूरत देश बनाना चाहते थे. हालांकि किसी के साथ नहीं जाने की कई वजहें और भी थीं. जिसे करण सिंह ने अपनी जीवनी “हेयर एप्रेंट” में लिखा-

“उस समय भारतीय उपमहाद्वीप में चार प्रमुख ताकतें थीं और मेरे पिता के संबंध सभी से शत्रुतापूर्ण थे. कांग्रेस से उनके संबंध बिल्कुल खराब थे, क्योंकि नेहरू की करीबी उनके विरोधी शेख अब्दुल्ला से थी. जिन्ना को वो पसंद नहीं करते थे. मुस्लिम लीग के आक्रामक मुस्लिम सांप्रदायिक रुख को वो कतई बर्दाश्त नहीं कर सकते थे. इसलिए उन्होंने पाकिस्तान के ललचाने वाले प्रस्तावों को ठुकरा दिया. नेशनल कांफ्रेंस और उसके नेता शेख अब्दुल्ला से उनके रिश्ते दशकों से शत्रुतापूर्ण थे.”

बदले हुए हालात को समझ नहीं पा रहे थे

अशोक पांडे की किताब “कश्मीरनामा” में लिखा है, “शेख अब्दुल्ला सहित नेशनल कांफ्रेंस के कई प्रमुख नेताओं की गिरफ्तारी के बाद शायद हरि सिंह को लगा था कि वह बगैर दबाव के मनचाहा फैसला ले सकते हैं. हरि सिंह चाटुकारों से घिरे रहते थे. लिहाजा महाराजा ना तो बदली हुई वैश्विक परिस्थितियों को समझ पा रहे थे और ना ही भारत और पाकिस्तान के बनने के बाद बदली हुई घरेलू स्थितियों को.”

राजगुरु की भविष्यवाणी पर भी था विश्वास

वो स्वतंत्र राजा के रूप में ही जम्मू-कश्मीर पर राज करना चाहते थे. किताब लिखती है, ” उनके कश्मीर पर लगातार राज करते रहने और उसे आजाद बनाए रखने के पीछे उनका एक और आधार था- राजगुरु संतदेव की भविष्यवाणी. उसने भविष्यवाणी की थी कि हरि सिंह पूरे जम्मू-कश्मीर के चक्रवर्ती सम्राट बनेंगे. महाराजा को भी पूरा भरोसा था कि ऐसा ही होगा.”

माउंटबेटन ने तब लंदन को क्या लिखा

एमजे अकबर की किताब “कश्मीर – बिहाइंड द वेल” में लिखा है, माउंटबेटन जब कश्मीर पहुंचे तो हरिसिंह और उनके प्रधानमंत्री काम ने मामले को टालने की नीति अपनाई-जो उन हालात में सबसे खतरनाक नीति थी. 27 अप्रैल 1947 को माउंटबेटन ने लंदन को लिखा:

”महाराजा और उनके प्रधानमंत्री के साथ मेरी कई दौर की बातचीत हुई लेकिन हर बातचीत में दूसरे लोग मौजूद रहे हैं. इसलिए मुझे मांग करनी पड़ी कि मैं महाराजा से एक घंटे अकेले में बात करना चाहता हूं और फिर एक घंटे उनके और उनके प्रधानमंत्री के साथ. महाराज ने सुझाया कि ऐसा वक्त मेरी यात्रा के आखिरी दिन 22 जुलाई को निकाला जा सकता है. मैं सहमत हो गया. उस आखिरी दिन पेटदर्द के कारण महाराज बिस्तर से बाहर ही नहीं आ सके. नेहरू बहुत क्षुब्ध हैं कि मैं शेख अब्दुल्ला की रिहाई के बारे में बात नहीं कर सका.”

हालात बिगड़ रहे थे और महाराजा चुप्पी साधे थे

अकबर की किताब कहती है कि कश्मीर के हालात बिगड़ने लगे थे. जिस पर गांधी भी उतने ही चिंतित हो उठे थे. अब जबकि स्वतंत्रता कुछ ही दिन दूर थी लेकिन हरि सिंह चुप्पी साधे हुए थे. पाकिस्तान के जिन्ना का इस्लाम और भारत के नेहरू का लोकतंत्र दोनों ही उन्हें भयभीत करते थे, इसलिए उन्होंने बात टालने का रास्ता पकड़ा. जिसकी कीमत काफी हद तक आज भी अदा की जा रही है.

क्या कश्मीर को खिलौना समझकर खेल रहे थे महाराजा

अपनी पुस्तक “भारतीय राज्यों का एकीकरण” में वीपी मेनन ने लिखा है कि ”जुलाई में जब राज्य मंत्रालय गठित किया जा रहा था, कश्मीर के प्रधानमंत्री काक दिल्ली में ही थे, पटियाला के महाराजा की सलाह पर उन्हें एक तैयारी की सभा में निमंत्रित किया गया पर वे आए ही नहीं. आखिरकार मेनन की मुलाकात काक से हुई वाइसराय भवन में. तब काक इस मामले को टालने में लगे हुए थे कि कश्मीर किस देश में जाने की सोचता है.”

मेनन लिखते हैं: ”मै न तो इस आदमी को समझ सका और न इसका खेल ही जान सका.”

वैसे मेनन ने उनका खेल खूब अच्छी तरह समझ लिया था और उन्होंने उसे सफाई से रखा भी: महाराजा के दिमाग शैतान कुलबुला रहा था और वे बगैर कुछ किए हुए सर्वोत्तम फल की आशा लगाए हुए थे. इसके साथ ही वो स्वतंत्र जम्मू-कश्मीर के खिलौने से भी खेल रहे थे.

जम्मू-कश्मीर का सेना प्रमुख क्या चाहता था

“ओरिजिंस ऑफ अ डिस्प्यूट -कश्मीर 1947” में प्रेमशंकर झा ने लिखा, “जम्मू-कश्मीर की राज्य सेना के प्रमुख मेजर जनरल स्कॉट ने निजी तौर पर महाराजा पर दवाब बनाने की कोशिश की कि वो पाकिस्तान के साथ विलय कर लें.”

इसके पीछे दो महत्वपूर्ण तथ्य थे. पहला तो ये एक मुस्लिम बहुल प्रदेश का पाकिस्तान के साथ जाना उन हालात में सामान्य सी बात थी. आखिर हिंदुस्तान और पाकिस्तान का बंटवारा ही इसी आधार पर हुआ था. अशोक पांडे की किताब “कश्मीरनामा” के अनुसार, “रामचंद्र काक लगातार पाकिस्तान के संपर्क में थे और पाकिस्तान प्रशासन उन्हें प्रलोभन दे रहा था.”

क्या था नेहरू और पटेल का रुख

“कश्मीरनामा” किताब के अनुसार, “जहां नेहरू कश्मीर को भारत में शामिल कराने के लिए काफी बेताब थे तो सरदार पटेल शुरू में इसके खिलाफ थे या कम से कम बहुत उत्साहित नहीं थे. कश्मीर के मुस्लिम बहुल होने के कारण पटेल मानते थे कि उसे पाकिस्तान को दे देना चाहिए लेकिन नेहरू को भरोसा था कश्मीर के सबसे लोकप्रिय नेता शेख अब्दुल्ला और वहां की जनता पर.”

पटेल ने महाराजा पर दबाव बनाने की कोशिश नहीं की

किताब के अनुसार, ” सरदार पटेल और उनके सचिव मेनन ने जहां बाकी रियासतों को भारत में शामिल करने के लिए जमकर मेहनत की और हर तरह के दबाव की नीति अपनाई, वहीं 15 अगस्त 1947 के बाद कश्मीर में कबायली हमले के बाद भी हरि सिंह पर भारत में शामिल होने के लिए कोई दबाव बनाने की कोशिश नहीं की जबकि नेहरू ने बार बात चेताया था.”

तभी कबायली हमले ने महाराजा को दिया झटका

तो ये पक्का है कि महाराजा हरि सिंह को भारत और पाकिस्तान का बंटवारा अपने राज्य के लिए एक ऐसा अवसर लग रहा था, जिसमें वो सही मायनों में आजाद मुल्क बनकर अच्छी तरह रह सकेंगे लेकिन वो जमीनी हकीकत नहीं समझ पा रहे थे. जब कबायली आक्रमण तेज हो गया और वो तेजी से आगे बढ़कर इलाकों पर कब्जा करने लगे तब महाराजा हरि सिंह आनन फानन में भारत के साथ विलय पत्र पर साइन किये.

 

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