आपकी कलम
सीएम रहते हुए मोदीजी ने मनमोहन सरकार की गलतियां गिनाईं और कुर्सी पाते ही, उन सभी को दोहराया : सौमित्र राय
Paliwalwaniसौमित्र राय...
भारत की अर्थव्यवस्था रईसों की गुलाम है. भारत में अर्थव्यवस्था को लेकर जो भी नीतियां बनाई जाती हैं, चाहे बजट हो या कोई वेलफेयर स्कीम हो ध्यान में कॉरपोरेट को रखा जाता है, उसकी पूंजी को रखा जाता है. GST का भी ऐलान होता है तो उसमें भी ध्यान में कॉरपोरेट को ही रखा जाता है. क्या जब भारत की अर्थव्यवस्था रईसों की गुलामी कर रही है, तो इस देश की तमाम इकोनामिक पॉलिसीज भी कॉरपोरेट को ही ध्यान में रखकर चलती है ? और अगर ऐसा है तो क्या देश के प्रधानमंत्री जनता के जरिए चुनकर प्रधानमंत्री पद तक जरूर पहुंच जाते हों लेकिन जब अर्थव्यवस्था का जिक्र हो तो उनके जेहन में एक ही सवाल रहता है कि भारत की इकोनॉमी का पहिया तभी चलेगा जब कारपोरेट की पूंजी उसमें लगती रहेगी ?
नरेंद्र मोदीजी का दिमाग कभी स्थिर नहीं रहा
प्रधानमंत्री के रूप में भी नरेंद्र मोदीजी का दिमाग कभी स्थिर नहीं रहा. गुजरात के सीएम रहते हुए उन्होंने मनमोहन सरकार की तमाम गलतियां गिनाईं और कुर्सी पाते ही, उन सभी को दोहरा दिया. कल उन्होंने रेवड़ी बांटने वालों से दूर रहने की बात कही, जबकि यूपी चुनाव से पहले बांटी गईं रेवड़ियों को जानबूझकर भूल गए. कल से GST का सबसे भयानक कहर लोगों की जेब पर टूटने वाला है. महंगाई और बढ़ेगी. मोदी ने कभी उसकी भी आलोचना की थी.
दरअसल, भारतीयों का स्वभाव है कि सबसे बुरे दिनों में वे ईश्वर की शरण लेते हैं. 70 के दशक में एक युवा का आक्रोश उसे सिस्टम के ख़िलाफ़ लड़ने पर मजबूर करता था. 90 के दशक में प्रेम रोग और फ़िर मोबाइल रोग से ग्रस्त आज का युवा सिस्टम से हारकर उसी सिस्टम में कोई दूसरा रास्ता निकालने की कोशिश करता है, लेकिन नहीं मिलता.
देश में लोकतंत्र नाम की कोई चीज़ ही नहीं
यशवंत सिन्हा ने कल कहा कि देश में लोकतंत्र नाम की कोई चीज़ ही नहीं है. आज उन्होंने उसी लोकतंत्र की आवाज़ सुनने की अपील की है. कल से ही संसद शुरू हो रही है- विरोध के तमाम शब्दों को असंसदीय के पिटारे में डालकर. हंगामा, छींटाकशी, व्यक्तिगत हमले- और फिर संसद स्थगित. लोकतंत्र के भीतर रहकर ही जब सवालों का हल तलाशने की प्रक्रिया पर पुलिस स्टेट का पहरा लग जाये तो इसे लोकतंत्र का अपहरण मानना ज़्यादा मुनासिब है.
नरेंद्र मोदी नेतृत्व की लड़ाई हार चुके हैं...वे कुर्सी से चिपके हुए
कहीं न कहीं चीफ जस्टिस भी कोर्ट के बाहर मंचों पर यही कह रहे हैं लेकिन कोर्ट रूम में खुद को उसी अपहृत हालत में पाते हैं. दबाव में. देश नेतृत्व विहीन है. नरेंद्र मोदी नेतृत्व की लड़ाई हार चुके हैं खुद से. वे कुर्सी से चिपके हुए हैं, क्योंकि उनकी पार्टी लोकतंत्र को लूट पा रही है. वे प्रधानमंत्री पद पर काबिज़ हैं, क्योंकि अवाम ने श्रीलंका की तरह बगावत नहीं की है. अवाम के पास आटा, दाल, चावल खरीदने का पैसा अभी है, न हो तो फ्री में मिलने की उम्मीद है. लोग जानते हैं कि मुश्किल वक़्त में जब खाने को कुछ नहीं हो तो फ्री का राशन और लाभार्थी कोटे के कुछ फायदे उन्हें ज़िंदा रखेंगे।
एजुकेशन सभी के फायदे लिए और 2014 में भगवा ओढ़ लिया
यह मुफ़लिसी, जकड़न बंदी बनाये गए एक कैदी की ज़िंदगी जैसी है। कार, बंगला, बैंक बैलेंस वाले उस नवधनाढ्य मिडिल क्लास के लिए भी, जिनके बच्चे बेरोज़गार घूम रहे हैं। इस नव धनाढ्य वर्ग ने कांग्रेस राज के 10 साल में ही सबसे ज़्यादा दौलत कमाई। कोठियां खड़ी कीं। कार, लोन, एजुकेशन सभी के फायदे लिए और 2014 में भगवा ओढ़ लिया। कुछ ने कांग्रेस के ट्रोल की भूमिका संभाल ली।
इसी मिडिल क्लास को अब सबसे ज़्यादा निचोड़ा जा रहा है। सीवर से बजबजाती गड्ढों वाली सड़कों पर ये अपनी गाड़ियां लेकर घूमते हैं। रूस से आ रहे सस्ते तेल पर 3 गुनी ज़्यादा कीमत चुकाकर। जब भी सरकार के किसी चमचे उद्योगपति का लोन माफ़ होता है तो बीजेपी के नेता इसी मिडिल क्लास के मुंह पर उनकी बेवकूफ़ी और बुझदिली के लिए थूकते हैं।कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। मिडिल क्लास अपना मुंह साफ़ कर फ़िर किसी रेस्त्रां में जाकर क्रेडिट कार्ड से खाना ऑर्डर कर फोटू खिंचवाता है-अपनी झूठी शान दिखाने के लिए। असल में वह अपहृत, कैदी है। पिंजड़े में एक गिनी पिग की तरहयही सब श्रीलंका में भी हुआ। फिर 6 युवा सड़क पर निकले और सोशल मीडिया ने हजारों को उनसे जोड़ दिया। श्रीलंका का लोकतंत्र कैद से आज़ाद हुआ। लेकिन देश अपने मुस्तकबिल को ढूंढ रहा है।उनके पास दो रास्ते हैं- एक या तो वे लोकतंत्र के भीतर ही एक खुशहाल देश की नई व्यवस्था बनाएं या सैन्य शासन में कैद हो जाएं।
मोदी का विरोध यानी राष्ट्र द्रोह... ब्रिटिश हुकूमत की तरह...!
भारत क्या करेगा? यहां तो पहले ही पुलिस स्टेट है, जिसका मानना है कि मोदी का विरोध यानी राष्ट्र द्रोह। ब्रिटिश हुकूमत की तरह। सत्ता का अपहरण, सत्ता की लूट, देश के संसाधनों, संपत्तियों की बिकवाली, ध्वस्त हो चुकी संस्थाओं के बीच कोई राजनीतिक ताकत कैसे उभरेगी? मिडिल क्लास के हाथ-पैर बांध दिए गए हैं। सरकार उन्हें एटीएम मशीन मान चुकी है। उनसे लूटकर अदाणी-अम्बानी की तिजोरी भरी जा रही है। जल्द इनकी भी कमर टूटेगी। बैंकों को बेचने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। ये आखिरी प्रहार होगा- जब मिडिल क्लास की शान, उनकी दौलत भी पूंजीवाद की भेंट चढ़ेगी।