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तिब्बती शरणार्थियों के सपने पूरे करना हर भारतीय की जिम्मेदारी : डॉ. परविंदर सिंह
Ravindra Arya
1962 की त्रासदी के बाद भारत बना तिब्बत का दूसरा घर
रिपोर्ट : रविंद्र आर्य
"तिब्बती शरणार्थियों के सपनों को साकार करना केवल भारत सरकार की नहीं, बल्कि हर भारतीय की नैतिक जिम्मेदारी है," यह विचार वर्ल्ड पीस इंस्टिट्यूट के राजदूत डॉ. परविंदर सिंह ने गोरखपुर के कुशीनग स्थित थाई मंदिर में आयोजित संवाद कार्यक्रम में रखे। उन्होंने कहा कि भारत और तिब्बती समाज के बीच जो संबंध हैं, वे केवल शरण और सहायता के नहीं, बल्कि संवेदनशीलता, सांस्कृतिक एकता और आध्यात्मिक साझेदारी के हैं।
डॉ. सिंह ने कहा कि भारत वह देश है जिसने 1959 में तिब्बती समुदाय को निर्वासन की पीड़ा से उबरने का अवसर दिया। जब चीन की सेना ने ल्हासा पर नियंत्रण कर लिया और दलाई लामा तेनजिन ग्यात्सो को अपनी जान बचाकर भारत आना पड़ा, तब भारत ने ना सिर्फ शरण दी, बल्कि सम्मान और पहचान भी दी।
दलाई लामा का भारत आगमन: शांति का मार्ग चुनने वाले निर्वासितों की कहानी
- डॉ. सिंह ने ऐतिहासिक घटनाओं का ज़िक्र करते हुए कहा कि 1959 में चीन द्वारा तिब्बत पर अधिकार के बाद, हजारों तिब्बती नागरिक हिमालय पार कर भारत में शरण लेने को मजबूर हुए। उन्होंने बताया कि
- “दलाई लामा केवल तिब्बत के नेता नहीं थे, बल्कि तिब्बत की आत्मा थे। उनका भारत आना पूरी तिब्बती अस्मिता का पलायन था।”
- भारत सरकार, विशेषकर पंडित जवाहरलाल नेहरू, ने दलाई लामा और उनके अनुयायियों को धर्मशाला (हिमाचल प्रदेश) में बसाया, जो आज भी तिब्बती निर्वासित सरकार का मुख्यालय है। इसके अलावा भारत के विभिन्न राज्यों में 40 से अधिक तिब्बती बस्तियाँ विकसित हुईं हैं, जहाँ लगभग 90,000 तिब्बती नागरिक रहते हैं।
तिब्बती संस्कृति का पुनर्जागरण भारत की भूमि पर
- डॉ. सिंह ने कहा कि तिब्बती समाज ने भारत को सिर्फ सहायता के रूप में नहीं देखा, बल्कि यहां की संविधानिक व्यवस्था, लोकतंत्र, और विविधता को आत्मसात करते हुए योगदान भी दिया।
- “भारत की भूमि को वे अपनी मां मानते हैं और भारतीय कानून, संस्कृति और मूल्यों का पूर्ण आदर करते हैं।”
- आज भारत के 12 राज्यों—हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, दिल्ली, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, मध्यप्रदेश, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, ओडिशा, महाराष्ट्र, मेघालय और कर्नाटक—में तिब्बती समाज संगठित रूप से निवास करता है। उन्होंने शिक्षा, स्वास्थ्य, बौद्ध परंपराओं और संस्कृति के संरक्षण में उल्लेखनीय योगदान दिया है।
अहिंसा, आत्म-संयम और सेवा के प्रतीक
डॉ. सिंह ने कहा कि तिब्बती शरणार्थी समाज ने दुनिया को यह दिखाया है कि निर्वासन का मतलब संघर्ष और हिंसा नहीं होता। उन्होंने हमेशा शांति और आत्मनियंत्रण का मार्ग अपनाया। यह गांधी के भारत और बुद्ध के दर्शन के प्रति उनकी श्रद्धा का परिचायक है।
उन्होंने कहा, "तिब्बती लोग न केवल शरणार्थी हैं, बल्कि भारत के साझेदार हैं — एक ऐसे साझेदार, जिन्होंने इस देश को भी आध्यात्मिक रूप से समृद्ध किया है।"
निष्कर्ष : ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ का जीवंत उदाहरण
डॉ. परविंदर सिंह के वक्तव्य और तिब्बती समुदाय की यह यात्रा भारत के ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ के आदर्श का सजीव प्रमाण है। यह केवल मानवीय शरण नहीं, बल्कि संस्कृति, सहिष्णुता और सेवा का साझा संकल्प है।
फैक्ट फाइल : तिब्बती समुदाय और भारत
- 1959 : दलाई लामा का भारत आगमन
- 40+ बस्तियाँ: भारत के 12 राज्यों में
- 90,000 से अधिक शरणार्थी
- धर्मशाला : निर्वासित तिब्बती सरकार का मुख्यालय
- संस्थाएँ : बौद्ध शिक्षा, संस्कृति और सेवा में सक्रिय