धर्मशास्त्र
श्री भक्तमाल 33-श्री हित हरिवंश जी Sri Harivansh Ji
Paliwalwani!! परमभागवत श्री हितदास जी महाराज एवं श्री हित अम्बरीष जी से सुने भावों पर आधारित चरित्र !!
1. श्री राधारानी द्वारा वृंदावन जाने की आज्ञा और श्रीराधावल्लभ जी विग्रह की प्राप्ति
भगवान श्री कृष्ण के वंशी के अवतार श्री हितहरिवंश महाप्रभु जी को देवबंद मे स्वयं श्री राधाजी से निज मंत्र और उपासना पद्धति की प्राप्ति हुई । श्री राधा जी ने एक दिन महाप्रभु जी को स्वप्न मे वृन्दावन वास की आज्ञा प्रदान की । उस समय श्री महाप्रभु जी की आयु ३२ वर्ष की थी ।
अपने पुत्रों और पत्नी से चलने के लिए पूछा परंतु उनकी रुचि किंचित संसार मे देखी । श्री महाप्रभु जी अकेले ही श्री वृन्दावन की ओर भजन करने के हेतु से चलने लगे । कुछ बाल्यकाल के संगी मित्र थे, उन्होंने कहा कि हमारी भी साथ चलने की इच्छा है - हम आपके बिना नही राह सकते । श्री महाप्रभु जी ने उनको भी साथ ले लिया ।
रास्ते मे चलते चलते सहारनपुर के निकट चिडथावल नामक एक गांव में विश्राम किया । स्वप्न में श्री राधारानी ने महाप्रभु जी से कहा - यहाँ आत्मदेव नाम के एक ब्राह्मण देवता विराजते है । उनके पास श्री राधावल्लभ लाल जी का बड़ा सुंदर श्रीविग्रह है - उस विग्रह को लेकर आपको श्री वृन्दावन पधारना है, परंतु उन ब्राह्मणदेव का प्रण है कि यह श्रीविग्रह वे उसी को प्रदान करेंगे जो उनकी २ कन्याओं से विवाह करेगा । उनकी कन्याओं से विवाह करने की आज्ञा श्री राधा रानी ने महाप्रभु जी को प्रदान की।
द्वै कन्या सो तुमको दै है, अपनो भाग्य मानी वह लै है।। तिनको पाणिग्रहण जु कीजौ, भक्ति सहायक ही मानि लिजौ। तिहि ठां और एक मम रूप, द्विज लै मिलि है परम अनूप।। ताकौ लै वृन्दावन जैहौ, सेवन करि सबकौ सुख दैहौं।
महाप्रभु जी संसार छोड कर चले थे भजन करने परंतु श्री राधा जी ने विवाह करने की आज्ञा दी । महाप्रभु जी स्वामिनी जी की आज्ञा का कोई विरोध नही किया - वे सीधे आत्मदेव ब्राह्मण का घर ढूंढकर वहां पहुंचे । श्री राधारानी ने आत्मदेव ब्राह्मण को भी स्वप्न मे उनकी कन्याओं का विवाह श्री महाप्रभु जी से सम्पन्न करा देने की आज्ञा दी । आत्मदेव ब्राह्मण के पास यह श्री राधा वल्लभ जी का विग्रह कहाँ से आया ? इसपर संतो ने लिखा है -
आत्मदेव ब्राह्मण के पूर्वजो ने कई पीढ़ियो से भगवान शंकर की उपासना करते आ रहे थे , आत्मदेव ब्राह्मण के किसी एक पूर्वज की उपासना से भगवान श्री शंकर प्रसन्न हो गए और प्रकट होकर वरदान मांगने को कहा । उन पूर्वज ने कहा - हमे तो कुछ माँगना आता ही नही , आपको जो सबसे प्रिय लगता हो वही क्रिया कर के दीजिये । भगवान शिव ने कहा "तथास्तु "। भगवान शिव ने विचार किया कि हमको सबसे प्रिय तो श्री राधावल्लभ लाल जी है । कई कोटि कल्पो तक भगवान शिव ने माता पार्वती के सहित कैलाश पर इन राधावल्लभ जी के श्रीविग्रह की सेवा करते रहे ।
भगवान शिव ने सोचा कि राधावल्लभ जी तो हमारे प्राण सर्वस्व है, अपने प्राण कैसे दिए जाएं परंतु वचन दे चुके है सो देना ही पड़ेगा । भगवान शिव ने अपने नेत्र बंद किये और अपने हृदय से श्री राधावल्लभ जी का श्रीविग्रह प्रकट किया । उसी राधावल्लभ जी का आज वृन्दावन में दर्शन होता है । श्री हरिवंश महाप्रभु जी का विधिवत विवाह संपन्न हुआ और श्री राधा वल्लभ जी का विग्रह लेकर महाप्रभु जी अपने परिवार परिकर सहित वृन्दावन आये । कार्तिक मास में श्री वृन्दावन में महाप्रभु का पदार्पण हुआ, यमुना जी के किनारे मदन टेर नामक ऊंची ठौर पर एक सुंदर लाता कुंज मे कार्तिक शुक्ल त्रयोदशी को श्री राधावल्लभ जी को सविधि अभिषेक करके विराजमान किया और उनका पाटोत्सव मनाया ।
2. नरवाहन पर कृपा
वृन्दावन में उस समय नरवाहन नाम के क्रूर भील राजा का आधिपत्य था। उसके पास कई सैनिक और डाकुओं की फौज थी, ये यमुना तटपर स्थित भैगाँव के निवासी थे । लोदी वंश का शासन सं १५८३ मे समाप्त हो जाने के बाद दिल्ली के आस पास कुछ समयतक अराजकता (केंद्र मे किसीका पक्का शासन न होना) की स्थिति रही थी । इस काल मे नरवाहन ने अपनी शक्ति बहुत बढा ली थी और सम्पूर्ण ब्रज मण्डल पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया था । आसपास के नरेश तो इनसे डरने ही लगे थे, दिल्लीपति बादशाह भी उससे भय खाते थे अतः इस क्षेत्र में कोई नही आता था । वृन्दावन उस समय एक घना जंगल था जहां हिंसक पशु रहते थे, जहां सूर्य की किरणें भी पृथ्वी पर नही आती थी।
दर्शन करने वाले भक्त दूर से ही उस वन को प्रणाम करते थे । श्रीचैतन्य महाप्रभु के कृपापात्र कुछ बंगाली सन्त यहाँ बसने की चेष्टा कर रहे थे, किन्तु डाकुओं के आतंक से यहाँ जम नही पा रहे थे । इसी काल मे सं १५९१ मे श्रीहित हरिवंश महाप्रभु श्री राधा वल्लभजी के विग्रह एवं अपने परिवार परिकरसहित वृन्दावन पधारे और ब्रजवासियों से भूमि लेकर श्रीवृन्दावन मे निवास करने लगे ।
नरवाहन के सेनापति ने एक दिन महाप्रभु जी को भगवान की सेवा करते देखा और सोचा कि कोई इस सघन वन में अपने परिवार सहित रहने वाला यह कौन व्यक्ति है ? ऐसे सघन वन मे कोई अपने परिवार सहित भजन करने क्यों आएगा? यहाँ क्या उसे प्राणों का भय नही है ? क्रोध में भरकर सेनापति उनके निकट गया परंतु निकट आने पर सेनापति का क्रोध शांत हो गया, उसने परम शांति का अनुभव किया । सेनापति ने जाकर यह बात नरवाहन को बताई ।
सेनापति ने कहा - महाराज ! एक सद्गृहस्थ व्यक्ति अपने परिवार ,धन संपत्ति और भगवान का श्रीविग्रह लेकर ऊंची ठौर पर बसने आया है । नरवाहन ने कहा - क्या तुम बुद्धिहीन हो, की तुम्हे इतना भी नही पता की ऐसे सघन वन मे कोई धन संपत्ति लेकर क्यो आएगा जहां हमारे सैनिको द्वारा उसके धन को छीना जा सकता है ? जिस वैन में हमको भी सशस्त्र जाना पड़ता है, उस वन मे क्या कोई भजन करने आएगा? वो कोई संत नही है , वो तो दिल्लीपति बादशाह का कोई गुप्तचर (जासूस) होगा ।
हमारे बल की थाह पाने आया होगा। तुमने उसे यहां से बाहर निकाला क्यो नही ? सेनापति ने कहा - मै सशस्त्र क्रोध मे भर कर गया तो था परंतु वह इतना सुंदर है कि उसके निकट जाते ही मेरा क्रोध चला गया , मै कुछ कहने सुनने की स्तिथि में नही रह पाया । नरवाहन क्रोध में भरकर सशस्त्र सैनिको के साथ मदन टेर पर पहुंचे , उस समय महाप्रभु जी मुख्य द्वार की ओर पीठ करके बैठे हुए थे और अपने परिकर के साथ दिव्य वृन्दावन के स्वरूप की चर्चा कर रहे थे ।
नरवाहन ने अभी महाप्रभु जी के मुख का दर्शन भी नही किया था, केवल महाप्रभु जी पीठ का दर्शन करते ही सम्मोहन से हो गया । हाथ से तलवार छूट गयी और उस दिव्य चर्चा को सुनता ही रह गया । आंखों से झरझर अश्रुओं की धार बह रही थी । महाप्रभु जी ने घूम कर नरवाहन को देखा और उस समय नरवाहन को ऐसा लग रहा था कि वे किसी घोर निद्रा से धीरेधीरे जाग रहे है और उनके चारो ओर एक अद्भुत प्रकाश फैलता जा रहा है, जौ अत्यन्त सुहावना और शक्तिदायक है ।
उसको आपने पिछले हिंसापूर्ण कृत्योंपर पश्चात्ताप होने लगा । महाप्रभु जी ने कहा - मूर्ख ! निरंतर कुत्सित क्रूर कर्म करने से तेरी बुद्धि पर आवरण पड़ा है । ये देख , वृन्दावन के राजा रानी तो यहाँ बैठे है । एक बार इस रूप सुधा का पान तो कर । श्री हिताचार्य ने इनकी ओर करुणार्द्र दृष्टि से देखा और महाप्रभु जी की कृपा से श्री राधा कृष्ण और दिव्य वृन्दावन के साक्षात दर्शन हो गए । इन्होने अपना मस्तक महाप्रभु जी के चरणों मे रख दिया ।
नरवाहन ने श्री हिताचार्यं से अपनी शरण मे लेने की प्रार्थना की । महाप्रभु ने इनको दीक्षा दे दो और भविष्य मे सम्पूर्ण क्रूर-कर्मो को छोड़कर वैष्णवजनोचित आचरण करने के आज्ञा दी । इसके बाद इनको उपासना का स्वरूप बताया और गुरु, इष्टधाम की महिमा समझायी । नरवाहनजी ने अपनी गढी मे वापस पहुँचकर वहाँ का सम्पूर्ण वातावरण बदल दिया और सेवा मे अपना सारा समय लगाने लगे । लूट-पाट बन्द कर देने से अब इनके तथा इनके आश्रित कर्मचारियों की जीविका का साधन खेती और कर वसूली ही रह गया था । उस समय यमुना जी के मार्ग से व्यापार होता था । वृंदावन क्षेत्र से गुजरने वाले जो मालवाहक नौका होते थे, ये लोग उनसे थोड़ा सा कर (टैक्स) लेकर जाने देते थे । लूटपाट बंद हो गयी थी । इनके आचरण-परिवर्तन कि सूचना चारों ओर फैल गयी थी ।
3. नरवाहन जी की गुरु भक्ति
एक दिन एक जैन व्यापारी कई नावों मे बहुमूल्य सामान लादे हुए यमुनाजी मे दिल्ली से आगरा की ओर यात्रा कर रहा था । व्यापारी ने कई बजरों (बडी नावों ) में अपने साथ बन्दूकों से सुसज्जित सैनिक तैनात कर रखे थे जिस कारण किसी को कर ना देना पड़े । नरवाहन जी के कर्मचारियों को ऐसे लडाकू व्यापारी के आने की पूर्व सूचना मिल चुकी थी और उन्होंने भी अपने सैनिक बुला लिये थे ।
कर मांगने पर व्यापारी ने मना किया, नरवाहन जी के सैनिकों ने बहुत समझाया पर वह व्यापारी समझा नही और अंत मे व्यापारी ने बन्दूकों से लडाई छेड़ दी । इधर से भी बन्दूके चलने लगी और उसके सशस्त्र बज़रे डुबा दिये गये । उसके नीच व्यवहार के कारण नरवाहन जी के सैनिकों ने नावों का माल लूटना पड़ा और व्यापारी को बन्दी बना लिया । इस युद्ध मे दोनों ओर के अनेक सैनिक मारे गये और यमुना जी का जल रक्त रंजित हो गया ।
इनके सैनिकों ने बन्दी व्यापारी एवं उसके तीन लाख मुद्रा के सामान को ले जाकर नरवाहन जी के सामने प्रस्तुत किया । युद्ध का वृत्तान्त सुनकर नरवाहन का मन खिन्न हो उठा और उनको उस व्यापारीपर क्रोध आ गया । ब्रजवासियों की हत्या करने और यमुना जी को रक्त रंजित करने के कारण इन्होंने आज्ञा दी कि उसको हथकडी बेडी में जकडकर कारागार (जेल) मे डाल दिया जाय और जबतक वह इतना ही धन घर से मंगाकर दंड की भरपाई न कर दे तबतक उसको छोडा न जाय । आब व्यापारी के पास जितना धन था वह सब लूट चुका था, उसके पास दंड की भरपाई करने के लिए धन बचा नही था । नरवाहन जी की एक दासी उस समय वही उपस्थित थी । व्यापारी तरुण और सुन्दर था ।
उस तरुण व्यापारी को देखकर दासी के मन मे करुणा आ गयी । वह उसकी मुक्ति का उपाय सोचने लगी । व्यापारी को कारागार मे बन्द हुए कई महीने हो गये, किंन्तु वह अपने घरसे धन न मँगा सका । नरवाहनजी के कर्मचारियों ने कुछ ही दिनों मे उसे फाँसीपर लटकाने की योजना बना रखी थी और नरवाहन जी के आदेश की प्रतीक्षा कर रहे थे । दासी को जब इसकी सूचना मिली तो वह घबडा उठी ।
वह सोचने लगी कि इससे जो भूल होनी थी सो हो गयी, यदि इसकी मृत्यु हो गयी तो इसके परिवार वालो का क्या होगा? अभी तो यह जवान है और इसको जीवन का बहुत सारा भाग देखना बाकी है । एक दिन अर्द्धरात्रि के समय कारागार के द्वारपर जाकर उसने सोते हुए व्यापारी को जगाया । दासी ने उससे कहा कि तुमको शीघ्र ही फाँसीपर लटकाये जाने की बात चल रही है । व्यापारी घबड़ाकर दासी से अपनी जीबन-रक्षा का उपाय बताने की प्रार्थना करने लगा । दासी ने कहा - तुम्हारे बचने का एक मंत्र बताती हूँ । उसने व्यापारी के गले मे तुलसी कंठी बांध दी औरे राधावल्लभी तिलक उसके मस्तक पर लागा दिया ।
दासी ने कहा - "राधावल्लभ श्री हरिवंश, राधावल्लभ श्री हरिवंश " इस नाम की प्रात:काल ब्राह्म वेला मे धुन लगा देना । इस नाम को सुनकर नरवाहन जी स्वयं दौडे हुए तेरे पास आ जायेंगे । जब कुछ पूछेंगे तब तुम उनसे यह कहना मै श्री हरिवंश जी का शिष्य हूँ तब वे अपने हाथसे तेरी हथकडी खोल देंगे और तुझे तेरा सम्पूर्ण धन वापस देकर तुझे आदरपूर्वक विदा कर देंगे । दासी के जाने के कुछ देर बाद ही व्यापारी ने पूरी शक्ति से श्री राधा वल्लभ श्री हरिवंश नाम की धुन लगा दी । नरवाहन जी उस समय नित्य दैनिक कर्म कर रहे थे ।
श्रीहरिवंश नाम सुनते ही दौडे हुए कारागार मे आये और देखा कि व्यापारी दीन हीन अवस्था मे पड़ा है और रो रो कर" राधावल्लभ श्री हरिवंश" जप रहा है । व्यापारी से पूछा कि तुम कौन हो ?ये तुम किसका नाम लेते हो? उसने दासी के कहे अनुसार कह दिया कि मै श्री हरिवंश महाप्रभु का शिष्य हूं, कुछ दिन मे मृत्यु को प्राप्त होने वाला हूं । सोचा कि मरने से पहले अपने इष्टदेव और गुरुदेव का स्मरण कर लूं । यह सुनकर कि वह श्री हरिवंशजी का शिष्य है, नरवाहन कांप गए और उससे क्षमा माँगने लगे ।
प्रात: होते ही इन्होंने व्यापारी को स्नान कराकर उसको नवीन वस्त्र पहनाया तथा उसका पूरा धन वापस दिया । चलते समय इन्होंने व्यापारी को दण्डवत्-प्रणाम करके उसकी रक्षाके लिये अपने सेवक उसके साथ कर दिये । उस दासी से व्यापारी ने पूछा - आपने मुझे किसका नाम दिया था? केवल छल और लोभ से मैने जिनका नाम लिया, जिनका नाम लेने से मृत्यु टल गई - वे कौन है ? क्या उनके दर्शन हो सकते है ?
दासी ने कहा की वह श्री हरिवंश महाप्रभु है, मदन टेर पर विराजते है। उसने जाकर श्री हरिवंश जी महाराज के दर्शन किये और अपना सारा द्रव्य उनके चरणों मे समर्पित कर दिया । उसने अत्यन्त दीनता पूर्वक महाप्रभुजी से प्रार्थना की कि आपका मंगलमय नाम कपटपूर्वक लेने से ही मेरी प्राण-रक्षा हो गयी । अब आप मुझे दीक्षा देकर मेरे इस नये जन्म को कृतार्थ कर दीजिये । महाप्रभुजी ने उसका आग्रह देखकर उसको दीक्षा तो दे दी, किंतु उसका धन स्वीकार नही किया तथा व्यापारी को श्रीहरि हरिजन की सेवा करने का आदेश देकर विदा कर दिया ।
नरवाहन जी का नियम था कि महाप्रभु जी का दर्शन करके ही अन्न जल ग्रहण करते थे । उस व्यापारी के जाने के ३ दिन बाद भी नरवाहन, महाप्रभुजी के दर्शन करने नही आये । नरवाहन बड़ी ग्लानि में था कि किस मुख से गुरुदेव के सन्मुख जाऊं? मैने गुरु चरणो की साक्षी मे प्रण लिया था कि कभी जीव हिंसा नही करूँगा । यदि मै अपने गुरु भ्राता को प्राण दंड दे दिया होता तो कैसा अनर्थ हो जाता ? निर्जल निराहार पश्चाताप करते हुए नरवाहन महल मे पडे थे ।
तीसरे सिन महाप्रभु जी ने नरवाहन को सामने उपस्थित होने की आज्ञा दी । नरवाहन कांपते हुए दृष्टि नीचे करके महाप्रभु जी के सामने उपस्थित हुआ । जैसे ही नरवाहन ने दंडवत करने झुके, आज महाप्रभु जी ने नरवाहन को झुकने नही दिया और उन्हे अपने हृदय से लगा लिया ।महाप्रभु जी ने कहा - नरवाहन ! तुमने बिना सत्य जाने इतना बड़ा निर्णय ले लिया । केवल उस व्यापारी के मुख से मेरा नाम सुनते ही उसको छोड दिया । तुम्हारे जैसी गुरुभक्ति किसमे होगी ? नरवाहन जी की अद्भुत गुरुनिष्ठा से प्रसन्न होकर श्री हिताचार्य ने अपनी वाणी मे उनके नामकी छाप दे दी । ये दोनों पद हित चौरासी मे संकलित है।