इंदौर

बहुत याद आएंगे महामंडलेश्वर लक्ष्मणदासजी : विदा हुआ एक...'धर्मयोद्धा'

नितिनमोहन शर्मा
बहुत याद आएंगे महामंडलेश्वर लक्ष्मणदासजी : विदा हुआ एक...'धर्मयोद्धा'
बहुत याद आएंगे महामंडलेश्वर लक्ष्मणदासजी : विदा हुआ एक...'धर्मयोद्धा'
  •  शहर के सबसे सहज, सरल महंत का अवसान, जन जन में लोकप्रिय 
  •  राम जन्म भूमि आंदोलन का अहम चेहरा रहे महंतजी, उगाड़े बदन हर जगह संभाला मोर्चा 
  •  पंचकुइयां आश्रम को ऊंचाई पर पहुँचाने में पूरा जीवन समर्पित कर दिया 
  •  आश्रम की करोड़ो की जमीन, सम्पत्ति, आजीवन दमदारी से रक्षा की 

 नितिनमोहन शर्मा...✍️

पंचकुइयां आश्रम आज जैसा वैभव सम्पन्न नही था। न इतना मशहूर जैसा आज है। एक प्राचीन देवस्थान जहां राजा रामचंद्र जी 'टीकमजी महाराज' के रूप में विराजमान है। पांच कुइयां। बगल से गुजरता सिरपुर तालाब का ओवरफ्लो का निर्मल शीतल जल। एक सुंदर नदी का स्वरूप। उससे सटा आश्रम ऒर नदी से जुड़े चित्ताकर्षक घाट। और लम्बी चौड़ी खाली जमीन जिस पर फसलें लहलहाती। न अगल बगल में बस्ती। न आश्रम तक आने की कोई सड़क। आश्रम के पीछे नजर दौड़ाओ तो चन्दननगर नजर आता था। न राज नगर था। न पंचमूर्ति नगर। न रामानंद नगर। न दामोदर नगर और न नगीन नगर। यानी आश्रम से नजर डालो तो पीछे की तरफ बस खेत ही खेत। बस बगल में हुकुमचंद कालोनी के नाम पर पांच पच्चीस मकान। जहा आज राजनगर जैसा सघन आबादी इलाका 5 सेक्टर में बसा है, वहां केवल खेत थे और खेतों के बीच मे एक चक्की थी। कुशवाह की चक्की के नाम से जाना जाता था उसे। आश्रम फलियारी बाबा के नाम से लोकप्रिय संत का ठिकाना था।

उसी दौर में छरहरी काया और कसरती बदन के युवा लक्ष्मणदास जी महाराज ने आश्रम की बागडोर संभाली। उसी दौर में अवैध कालोनियों का दौर शुरू हुआ। पुराने इन्दौर में खेती की जमीनों पर अवैध कालोनियां आकार लेने लगीं नोटरी पर प्लॉट मिलने लगे और देखते ही देखते आश्रम के आसपास कई कालोनी बस्तियां बन गई। सघन आबादी का डेरा डल गया। उसी दौर में भूमाफियाओ की नजर आश्रम की जमीन पर पड़ी। बुजुर्ग सन्तो से भरे आश्रम की जमीन भूमाफ़ियाओ को बेहद मुफीद लगी। उन्हें लगा आसानी से कब्जा कर प्लॉट काटे जा सकते है। लेकिन उन्हें भान नही था कि आश्रम में अब लक्ष्मणदास भी है।

नीचे धोती ऒर उपर से उगाड़े बदन लक्ष्मणदास जी तब एक हाथ मे धारदार कुल्हाड़ी और दूजे हाथ मे त्रिशूल के साथ जो मैदान पकड़ा तो आश्रम की जमीन पर कब्जे का मंसूबा बनाने वाले भाग खड़े हुए। आश्रम की जमीन बचाने के लिए महंत जी ने जो 'रुद्रावतार' धारण किया, वो ही उनका फिर मूल स्वरूप हो गया। आज जो आश्रम लम्बे चौड़े स्वरूप में नजर आ रहा है, वो महंत जी के मैदान में दिखाए पुरुषार्थ का प्रतिफल है। न उन्होंने आश्रम को कब्जेदारों से बचाया बल्कि आश्रम की पूरी भूमि को बाउंड्रीवाल कर सुरक्षित भी किया। गौशाला के निर्माण से लेकर द्वादश ज्योतिर्लिंग जैसा भव्य मंदिर का निर्माण भी आश्रम में हुआ। आज आश्रम का शंभु सत्संग हॉल अगल बगल के लोगो के साथ साथ राजनीतिक दलों के आयोजनों का भी प्रमुख केंद्र है।

वे राम जन्म भूमि आंदोलन का स्थानीय प्रमुख चेहरा थे। संघ परिवार के हर आंदोलन के वे अगुवाकर रहे। उस दौर में हिंदुत्व के मूददे पर कोई भी धरना प्रदर्शन या आंदोलन हो...महंतजी अपनी पूरी संत मंडली के साथ मौके पर होते थे। वे ऐसे आंदोलनों में किसी बुलावे का इंतजार भी नही करते थे। उस दौर में वे तत्कालीन राजनीति और जिला प्रशासन की आंख की किरकिरी भी थे। कांग्रेस के दबदबे का दौर था पर महंत जी डरे नही। न दबे। न झुके। पूरा जीवन वे हिंदुत्व विचार को न केवल समर्पित रहे बल्कि अपने आश्रम को भी उसी मानदंड से गढा भी। 

पुराने इंदौर के वे संत महंत तो थे ही, परिवार के सदस्य भी थे। पश्चिमी इन्दौर के एक बड़े हिस्से में उनका घर घर नाता था। जब भी कुम्भ या सिहंस्थ मेला आता, महाराजजी इन्दौर से आने वालों की बहुत चिंता करते। डाकोर खालसा से जुड़ा आश्रम हर कुम्भ मेला में इंदौर खालसा के नाम से डेरा लगाता जहा इंदोरियो के लिए सब निःशुल्क रहता था। न्यूनतम संसाधनों के साथ महंतजी में न केवल आश्रम को ऊंचाइयां दी बल्कि भक्तों के सुख दुःख की चिंता भी की। आजीवन निस्वार्थ भाव से आश्रम की सेवा करने वाले महंतजी में आज के कथित सन्तो महंतों जैसी संपति नही जुटाई। न ठिये ठिकाने बनाये। बस अपने आराध्य टीकमजी को समर्पित रहे और हिंदुत्व विचार के लिए विरोधियों से लड़ते रहे। 

हिंदुत्व आंदोलन में प्रमुख भूमिका निभाने के बाद भी सत्ता सरकार से कोई लोकेषणा भी नही की। भाजपा का वैभव युग आ गया। नए नए संत महंत पैदा हो गए। सरकारों से उपकृत भी होने लगें। पदवी लेने लगे। महंतजी के मुंह सामने के लाल पीली नीली बत्ती में सवार भी हो गए। लेकिन लक्ष्मणदास जी इन सबसे ये कहकर दूर रहे कि रामजी का काम कोई पद प्रतिष्ठा के लिए नही किया था। 

भाजपा ने भी सत्ता में आने के बाद अपने नए संत महंत बना लिए ओर महाराज भुला दिए गए। लेकिन महंतजी में इसका कभी मलाल नही किया और न किसी से कोई शिकवा शिकायत की। बस मुस्कुराते रहते थे। उसी चित्ताकर्षक मुस्कान के साथ ये धर्मयोद्धा हम सबके बीच से गोलोकधाम प्रस्थान कर गए। वो ही आधी उगड़ी काया के साथ। बेहद सहजता के साथ। अपने आराध्य 'टीकमजी सरकार' के श्रीचरणों में। 

खुलासा फर्स्ट ऐसे बिरले महंतजी के श्रीचरणों में अपने अश्रुपूरित श्रद्धासुमन समर्पित करता है ऒर शासन प्रशासन के साथ साथ संत समाज से आग्रह भी करता है कि जिस आश्रम की एक एक इंच भूमि की रक्षा करने में महंत जी मे अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया, उस आश्रम ओर मन्दिर के आसपास के बड़े अतिक्रमण ओर कब्जे हटाकर आश्रम की एक एक इंच भूमि का सीमांकन कर सुरक्षित करें। ये ही सच्ची श्रद्धांजलि होगी उस महंत के लिए जो चाहता तो स्वयम भी मठाधीश बनकर आश्रम के वैभव को वैसे ही भोगता जैसे वर्तमान के संत महंत ओर श्रीमंत भोग रहे है। लेकिन वो तो जय जय सियाराम कहते हुए...बैकुण्ठ प्रस्थान कर गए।

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