आपकी कलम
अभिव्यक्ति स्वतंत्र तो हो, पर वह जिम्मेदार भी हो : हंसाराम
paliwalwani
जब समाज का निर्माण हुआ, तो कुछ अनिवार्य शर्तें भी बनीं। उनमें सबसे पहली शर्त यह थी कि व्यक्तिगत मूल्यों को सुरक्षित रखते हुए समाज का कल्याण सर्वोपरि रखा जाए। कालांतर में, प्रसिद्ध दार्शनिक जेरमी बेंथम ने इसे 'सबके लिए सबसे बड़ा सुख' (Greatest Happiness for the Greatest Number) कहा, जो आधुनिक कानूनों के मूल सिद्धांतों में से एक बन गया। लेकिन इसकी भी कुछ सीमाएँ थीं।
भारत में, संविधान-निर्माताओं ने अनुच्छेद 19(1) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को एक मौलिक अधिकार के रूप में स्वीकार किया, लेकिन इसके साथ ही अनुच्छेद 19(2) के तहत कुछ तार्किक प्रतिबंध भी लगाए। इनमें से एक था – ‘शिष्टाचार और सदाचार के हित में’ लगाया गया प्रतिबंध। बाद में, 'डॉक्ट्रिन ऑफ कंटेम्पररी कम्युनिटी स्टैंडर्ड्स' (समसामयिक सामाजिक मानदंडों का सिद्धांत) अस्तित्व में आया, लेकिन दुनिया के किसी भी न्यायालय ने नैतिक मूल्यों के इन प्रतिबंधों को पूरी तरह से समाप्त नहीं किया।
व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर समाज की चेतना को कुंठित करने वाली कोई भी अभिव्यक्ति मान्य नहीं हो सकती। पत्रकारों और नागरिकों को यह स्वतंत्रता इस उद्देश्य से दी गई थी कि वे विचारों का आदान-प्रदान कर जनमत को बेहतर बना सकें, लेकिन राज्य को यह अधिकार है कि वह सार्वजनिक हित की सीमा तय करे।
आज, इंटरनेट और सोशल मीडिया की सहज, सस्ती और सर्वसुलभ तकनीकों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को व्यापक बना दिया है, लेकिन इसके दुरुपयोग की प्रवृत्ति भी बढ़ी है। फूहड़ और भ्रामक कंटेंट समाज के लिए एक गंभीर खतरा बन चुका है। यह कहना कि "लोग यही सब देखना और सुनना चाहते हैं," केवल कानून, न्याय और नैतिकता की अपर्याप्त समझ को दर्शाता है।
विशेष रूप से, यूट्यूबर्स और सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स को अपनी सामाजिक जिम्मेदारी समझनी चाहिए। उनकी अभिव्यक्ति समाज की मानसिकता को आकार देती है, इसलिए उन्हें यह ध्यान रखना होगा कि उनकी सामग्री समाज के नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों को क्षति न पहुँचाए। स्वतंत्रता केवल अधिकार नहीं, बल्कि कर्तव्य भी है। अगर इसे जिम्मेदारी के साथ नहीं निभाया गया, तो समाज में अराजकता फैलने का खतरा रहेगा।
- हंसाराम-संस्थापक, दैनिक गुरुज्योति पत्रिका