आपकी कलम

आओ.. 'नुगरापन' नकारे : कुओं-बावड़ियों को बनाये नर्मदाजी का संगी साथी, टैंकर से मुक्ति लो

नितिनमोहन शर्मा
आओ.. 'नुगरापन' नकारे : कुओं-बावड़ियों को बनाये नर्मदाजी का संगी साथी, टैंकर से मुक्ति लो
आओ.. 'नुगरापन' नकारे : कुओं-बावड़ियों को बनाये नर्मदाजी का संगी साथी, टैंकर से मुक्ति लो

 शहर-समाज का पास आया सुनहरा मौका, पुरखो की जल दौलत को संभाल ले..संवार ले 

 सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक संगठन आगे आये, क्लब-संस्थाओं के पास भी आया अवसर 

 जिला प्रशासन, नगर निगम के सहयोग से इस गर्मी शहर में चले 'जल आंदोलन' 

 नितिनमोहन शर्मा...

वक्त आ गया है अब। हम अपने ऊपर लगे नुगरे होने के कलंक को धो ले। मलमल कर उसी पानी से, जिसे हमने बिसरा दिया। जिसे हमने कचरा डालकर दूषित कर दिया। जिसे हमने नर्मदाजी के आने के बाद लावारिस छोड़ दिया। जिसे हमने अपनी आंखों के सामने अतिक्रमण करने के लिए छोड़ दिया। हमारे बाप दादाओं की और कुछ हद तक अपनी भी प्यास बुझाने वाले इस जल को फिर से अपनी अंजुरी में समेट ले। कर ले फिर से एक बार उसी जल की आचमनी जिसने इस इन्दौर को सालों साल पानी पिलाया। ये अकूत जल दौलत की 'एफडी' को 'छुट्टा' करवा लें।

आने वाली पीढ़ियों के, हमारे नोनिहालो के ये दौलत बहुत काम आएगी। पता है पूरी दुनिया जल को सहेजने में लगी हैं। तीसरा विश्वयुद्ध भी इसी दौलत के लिए होने के इशारे भी तो सामने हैं। फिर क्यो न हम पुनः सम्रद्धि पा ले। अपने हिस्से की जल दौलत फिर से समेट ले। हम जल के मामले में कभी कंगले यू भी नही थे। हमारे बुजुर्गों ने अपने श्रम से जल का अकूत भण्डार हमको दिया था। कुओं, कुइयां के रूप में। सुंदर कलात्मक बावडियों के रूप में। ताल-तलैय्या के स्वरूप में। बस, हम ही संभाल नही पाये। 

  • हमे इस "जल दौलत" के प्रति नुगरा बना दिया

टोटी खोलते ही झर्रर से झरते जल ने हमे इस "जल दौलत" के प्रति नुगरा बना दिया। पाइप के सहारे दूसरी मंजिल तक सर्रर से पानी क्या आया हम उस  रस्सी और गिर्री को ही बिसरा बेठे को किसी जल संतूर सी गूंजती थी और गहराई से पानी उलीचकर आपके हमारे हंडे घड़े और गगरो को भर देती थी। आँगन में 'नलका' क्या लगा, हम पनघट को सुना कर बेठे। ये जानते हुए भी कि इन कुओं बावड़ियों में अथाह पानी हिलोर मार रहा हैं। वे बेचारे तो कुछ समझ ही नही पाये कि लोगो ने उन तक आना अकस्मात क्यो छोड़ दिया। वे तो अलसुबह से आबाद हो जाते थे। खनकते कंगन और चमकते बर्तनों की उनको आदत थी। पनघट पर खिलखिलाहट के वे आदि थे। कभी सुने रहे ही नही। लेकिन हमने उनके हिस्से में सन्नाटा परोस दिया। अपने अंदर हमारे हिस्से का अथाह जल लिए वे हमारी बाट ही जोहते रहे। पर हम पलटकर नही गए। एकदम नुगरे बन गए। ये सोचकर अहसानफरामोश हो गए कि अब क्या जरूरत? अब कौन थके? जब टोटी खोलते ही घर मे पानी ही पानी तो फिर कोन जाए पनघट?

  • निर्मल शीतल जल से आबाद ये पनघट देखते ही देखते मरघट बन गए

आपके हमारे इस नुगरेपन से निर्मल शीतल जल से आबाद ये पनघट देखते ही देखते मरघट बन गए या बना दिए गए। वह भी तब जबकि इन कुओ बावडियों में जीवन पूरी तरह आबाद था। वे सांस ले रहे थे। आस में भी थे कि भले ही हम अब काम के नही रहे लेकिन हमारी देखरेख तो वैसे ही होगी जैसे घर के बुजुर्गों की होती हैं। समाज का ये ही तो संस्कार है न? काम के नही रहने पर कोई अपने घर के 'बूढ़ों-हाड़ौ' को देश निकाला नही देता। खटिया पर वे खांसते खकारते रहते लेकिन परिवार का ही हिस्सा होते हैं। लेकिन हमने तो जीते जी इन जल स्त्रोतों का गला घोंट दिया। पानी की आंव से इनकी नब्ज़ और धड़कन बरक़रार थी। फिर भी हमने उन्हें ढाँक दिया। कचरे से पाट दिया। मकान दुकान दफ्तर मल्टी मन्दिर दरगाह तान दी। धूप छांव, सूरज-चांद से महरूम कर दिया। एक ही झटके में पुरखो की इस विरासत को जिंदा दफ़न कर दिया। उनका गला घोंट दिया, जिन्होंने हमारे पुरखो के गले तर किये थे। 

  • टैंकर क्यो दौड़ रहे हैं? हंडे घड़े मटके क्यो विरोधस्वरूप फुट रहे हैं? 

क्या बीती होगी उन पर? वे जीवित देह नही थे लेकिन हमारे देव थे। पूजते थे हम उनको। आज भी वो दस्तूर है लेकिन अब कहाँ कुएँ? अब कहा कुआ पूजन? गांव भी तो अब बोरिंग के हवाले हो चले हैं। मोटर पम्प का पूजन कर रस्म निभाई जा रही है लेकिन ये अफ़सोस होता ही नही की कुओं की जगह मोटर पम्प क्यो पूज रहे हैं? जबकि कभी बगल में ही तो कुँआ था। अरे पानी भले ही नही पीते लेकिन उनको मारते तो नही। कम से कम शास्त्रोंक्त परम्पराओ के काम तो आते। अब जलवा पूजन तो होता है लेकिन पनघट के जलवे के बिना। और फिर जिस 'नए जल' को पा कर आप इतराये थे, उससे प्यास बुझ गई? हर बरस ये टैंकर क्यो दौड़ रहे हैं? हंडे घड़े मटके क्यो विरोधस्वरूप फुट रहे हैं? हाहाकार क्यो मचा है? 600-700 फीट गहराई तक क्या तलाश रहे है आप? 

  • ये दौलत आबाद रहेगी तो धरती का आँचल भी जल से भीगा रहेगा

वक्त आया है फिर से। अपनी गलती को स्वीकारने का। अपने ऊपर लगे नुगरेपन के ठप्पे को हटाने का। एक दर्दनाक हादसे ने ये अवसर दिया हैं। यू समझो कि 36 ज़िंदगियों ने अपनी जान देकर, पुरखो की इन अनमोल विरासत को जीवन दे दिया है। कम से कम उन 36 ज़िंदगियों के प्रति श्रद्धा भाव से ही सही, मैदान पकड़े।कलेक्टर इलैयाराजा और महापौर पुष्यमित्र भार्गव भी साथ है आपके। आगे आये। बगेर किसी शोर शराबे के। बगेर छपने छपाने के रोग के। बगेर किसी दिखावे के। बगेर किसी मान सम्मान के। अवसर आया है, सभी सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और राजनीतिक संगठनों के लिए। क्लब, संस्थाओ के लिए। स्कूल, कालेज, पाठशालाओं के लिए। शहर, समाज के लिए। सरकार और शासन के लिए। लौटे उनके पास, जो बुझाते थे कभी आपकी प्यास। नमन करे उनको। गले लगे उनके। माफी मांगे हम उनसे। कान पकड़े और वादा करें कि भले ही हम अब ये जल नही पी सकते लेकिन इस जल दौलत को खो भी नही सकते। ये दौलत आबाद रहेगी तो धरती का आँचल भी जल से भीगा रहेगा। फिर 600-700-800 फीट तक जल तलाशने के बाद भी बोरिंग मशीन धुला नही उड़ाएंगी।

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