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आज का अमृत : संत कबीर के 11 दोहे-सुंदर संदेश-आइये पढ़े, शेयर करे

Paliwalwani
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संत कबीर 15 वीं सदी के भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे। कबीर शब्द अरब भाषा से आया है। अरबी के अल-कबीर का अर्थ होता है- महान। यह इस्लाम में ईश्वर का 37वां नाम है। कबीर हिन्दी साहित्य के भक्तिकालीन युग में ज्ञानाश्रयी-निर्गुण शाखा की काव्यधारा के प्रवर्तक थे। इनकी रचनाओं ने हिन्दी प्रदेश के भक्ति आंदोलन को गहरे स्तर तक प्रभावित किया। भारतीय परंपरा के मुताबिक, कबीर 1398 से लेकर 1518 तक जिए थे। आधुनिक विद्वान उनके जन्म और मृत्यु की तारीख के बारे में निश्चित नहीं हैं। कबीर की माता का नाम नीमा और पिता का नाम नीरू था। वैष्णव संत रामानंद ने कबीर को अपना शिष्य बनाया। कबीर का सबसे महान ग्रन्थ बीजक है। इसमें कबीर के दोहों का संकलन है।

आइये पढ़े, संत कबीर के लोकप्रिय दोहें हिंदी अर्थ सहित–

कबीर का दोहा 1. 

अबुध सुबुध सुत मातु पितु, सबहिं करै प्रतिपाल ।

अपनी ओर निबाहिये, सिख सुत गहि निज चाल ।।

अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि मात-पिता निर्बुधि-बुद्धिमान सभी पुत्रों का प्रतिपाल करते हैं। पुत्र कि भांति ही शिष्य को गुरुदेव अपनी मर्यादा की चाल से मिभाते हैं।

कबीर का दोहा 2.

ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय ।

औरन को शीतल करै, आपौ शीतल होय ।।

अर्थ : मन के अहंकार को मिटाकर, ऐसे मीठे और नम्र वचन बोलो, जिससे दुसरे लोग सुखी हों और स्वयं भी सुखी हो।

कबीर का दोहा 3.

कबीरा ते नर अँध है, गुरु को कहते और ।

हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ।।

अर्थ : कबीर दास जी ने इस दोहे में जीवन में गुरु का क्या महत्व हैं वो बताया हैं। वे कहते हैं कि मनुष्य तो अँधा हैं सब कुछ गुरु ही बताता हैं अगर ईश्वर नाराज हो जाए तो गुरु एक डोर हैं जो ईश्वर से मिला देती हैं लेकिन अगर गुरु ही नाराज हो जाए तो कोई डोर नही होती जो सहारा दे।

कबीर का दोहा 4.

करै दूरी अज्ञानता, अंजन ज्ञान सुदये ।

बलिहारी वे गुरु की हँस उबारि जु लेय ।।

अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि ज्ञान का अंजन लगाकर शिष्य के अज्ञान दोष को दूर कर देते हैं। उन गुरुजनों की प्रशंसा है, जो जीवो को भव से बचा लेते हैं।

कबीर का दोहा 5.

कहैं कबीर देय तू, जब लग तेरी देह ।

देह खेह होय जायगी, कौन कहेगा देह ।।

अर्थ : कबीर दास जी कहते हैं जब तक देह है तू दोनों हाथों से दान किए जा। जब देह से प्राण निकल जाएगा। तब न तो यह सुंदर देह बचेगी और न ही तू फिर तेरी देह मिट्टी की मिट्टी में मिल जाएगी और फिर तेरी देह को देह न कहकर शव कहलाएगा।

कबीर का दोहा 6.

कहै कबीर तजि भरत को, नन्हा है कर पीव ।

तजि अहं गुरु चरण गहु, जमसों बाचै जीव ।।

अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि भ्रम को छोडो, छोटा बच्चा बनकर गुरु-वचनरूपी दूध को पियो । इस प्रकार अहंकार त्याग कर गुरु के चरणों की शरण ग्रहण करो, तभी जीव से बचेगा।

कबीर का दोहा 7.

कुमति कीच चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय ।

जनम-जनम का मोरचा, पल में डारे धोया ।।

अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि कुबुद्धि रूपी कीचड़ से शिष्य भरा है, उसे धोने के लिए गुरु का ज्ञान जल है। जन्म - जन्मान्तरो की बुराई गुरुदेव क्षण ही में नष्ट कर देते हैं।

कबीर का दोहा 8.

केते पढी गुनि पचि मुए, योग यज्ञ तप लाय ।

बिन सतगुरु पावै नहीं, कोटिन करे उपाय ।।

अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि कितने लोग शास्त्रों को पढ-गुन और योग व्रत करके ज्ञानी बनने का ढोंग करते हैं, परन्तु बिना सतगुरु के ज्ञान एवं शांति नहीं मिलती, चाहे कोई करोडों उपाय करे।

कबीर का दोहा 9.

गुरु की आज्ञा आवै, गुरु की आज्ञा जाय ।

कहैं कबीर सो संत हैं, आवागमन नशाय ।।

अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि व्यवहार में भी साधु को गुरु की आज्ञानुसार ही आना जाना चाहिए। सद् गुरु कहते हैं कि संत वही है जो जन्म-मरण से पार होने के लिए साधना करता है।

कबीर का दोहा 10.

गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़ै खोट ।

अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट ।।

अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि गुरु कुम्हार है और शिष्य घड़ा है, भीतर से हाथ का सहार देकर, बाहर से चोट मार - मारकर और गढ़-गढ़ कर शिष्य की बुराई को निकलते हैं।

कबीर का दोहा 11.

गुरु को सिर राखिये, चलिये आज्ञा माहिं ।

कहैं कबीर ता दास को, तीन लोकों भय नाहिं ।।

अर्थ : कबीर दास जी कहते है किगुरु को अपना सिर मुकुट मानकर, उसकी आज्ञा मैं चलो। कबीर साहिब कहते हैं, ऐसे शिष्य-सेवक को तनों लोकों से भय नहीं है।

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