धर्मशास्त्र

विचार चाहे कितने भी अच्छे क्यों ना हों, वो सार्थक तभी माने जाते है जब उनकी झलक आपके व्यवहार में दिखती हो...!

paliwalwani
विचार चाहे कितने भी अच्छे क्यों ना हों, वो सार्थक तभी माने जाते है जब उनकी झलक आपके व्यवहार में दिखती हो...!
विचार चाहे कितने भी अच्छे क्यों ना हों, वो सार्थक तभी माने जाते है जब उनकी झलक आपके व्यवहार में दिखती हो...!

आत्मानुसंधान की प्रक्रिया और ही है। इसमें वह मैं विचार मुख्य है जो अस्तित्व हीन है। इसे माना हुआ अहंकार, लघु मैं या मैं विचार भी कहा जाता है।मन इसी तरह है।

हम दिन-रात जिस मैं का प्रयोग करते हैं वह विचार ही है। इसमें खोकर हम अपने होने तक को भूल जाते हैं। मैं विचार (कह सकते हैं अहम्मन्यता) और अस्तित्व बोध को एक समझने की भूल ही समस्या उत्पन्न करती है। इन दोनों को कभी एक नहीं समझना चाहिए।

मैं विचार अस्तित्व हीन है,मन की तरंग मात्र लेकिन जिस होने का अनुभव सभी को हो ही रहा है,जिस अस्तित्व का बोध हो ही रहा है उसे कोई भी नकार नहीं सकता। एक छोटी सी चींटी में भी वह उतना ही मौजूद है जितना मनुष्य में।उसे तुच्छ नही समझा जा सकता।

एक महात्मा आये थे उनका तो पूरा जोर था इस पर।वे कहीं बैठते तो पहले सावधानी से इधर उधर देख लेते कि कहीं कोई छोटा-मोटा जीव तो नहीं है। चींटी की उपस्थिति को भी वे अत्यधिक महत्व देते। आकार से किसी को लघु देखकर उसे तुच्छ मानने की वृत्ति हो सकती है। मानसिक भी होती है।

कोई बडा आदमी कोई छोटा आदमी। वस्तुत : सब लघु मैं का ही विस्तार है जिसका पता लगाया जाय तो मिले ही नहीं। रमण महर्षि की आत्मानुसंधान प्रक्रिया में इसी लघु मैं पर सवाल उठाया जाता है जो कि विचार मात्र है-मैं विचार। इसमें विचारों का पीछा करना नहीं है चाहे वे कथित रुप से कितने ही अच्छे या बुरे हों।

विचारों का पीछा नहीं किया जाय, उनमें डुबा नहीं जाय तो वे सब एक जैसे हो जाते हैं। अमल करने का काम नहीं। अच्छा बुरा मानने से फर्क आता है। मानसिक संघर्ष शुरू हो जाता है।अपराध भाव से हीनता आती है। हीनता-ग्रंथि मजबूत होती है। जो मैं विचार अस्तित्व हीन है वह सक्रिय हो जाता है जिससे सुखदुख का खेल शुरू हो जाता है।

'मैं सुखी हूं, मैं दुखी हूं ' यह अहम्मन्यता, मैं विचार की ही उपज है। आदमी अत्यंत दुखी हो सकता है बिना वास्तविकता को जाने। ऐसे 'अत्यंत दुखी' मिल जायेंगे। हम भी हो सकते हैं। इसलिए मुक्ति का मार्ग बताया जाता है। सुखदुख का सीधा संबंध विचारों से है।

जैसे विचार वैसा प्रभाव। इसलिए कहा जाता है कि  जैसे ही कोई विचार उठे ,पूछें यह विचार किसे उठा? स्वाभाविक है मैं विचार को। यह मैं विचार कौन है? इसका पता लगायेंगे तो अस्तित्व बोध तो मिलेगा लेकिन मैं विचार नहीं मिलेगा। इसलिए नहीं मिलेगा क्योंकि उसकी सत्ता ही नहीं है।वह एक विचार मात्र है,ख्याली पुलाव, माया का खेल। मैं अरु मोर तोर तें माया।

लेकिन होने का अनुभव सभी को हो ही रहा है यह कल्पना नहीं है। अस्तित्व बोध में जितनी गहराई से, दृढ़ता से टिका जाय उतना ही मस्तिष्क में मैं मैं,  सुखी-मैं दुखी मैं का शोर धीमा पड़ता जायेगा। निरंतर स्व में रहने का अभ्यास जारी रखा जा सके तो यह मैं मैं का शोर बिल्कुल शांत हो जाता है।सन्नाटा छा जाता है।ऐसा सन्नाटा जो भीड भरे बाजार में भी अनुभव किया जा सकता है।

ऐसा जो साधक होगा उसमें आत्मबोध तो होगा मगर अहंकार नहीं होगा। आज मैं स्वप्न में यही आत्मानुसंधान कर रहा था तो 'नीब करौरी बाबा' दिखाई दिये और बहुत देर तक दिखते रहे। उनका संबंध हनुमानजी के साथ जोडा जाता है।वे सिद्ध पुरुष थे। मैंने विचार किया कि हनुमानजी का संबंध आत्मानुसंधान की प्रक्रिया से क्या हो सकता है?

जब श्रीराम ने हनुमानजी पूछा कि तुम कौन हो? तो उन्होंने कहा-देहदृष्टि से मैं आपका दास हूं तथा आत्मदृष्टि से आपका ही स्वरुप हूं। 'सियाराम मय सब जग जानी।' 'जगत पसारा राम का।' कृष्ण कहते हैं -सारा जगत सूत्र में सूत्र के मणियों की तरह मुझमें गुंथा हुआ है।

अर्थात् कुछ भी पृथक् नहीं है। जो साधक ऐसा ध्यान करता है कि कुछ भी ईश्वर से पृथक् नहीं है,वह दुख मुक्त हो जाता है। दुख का कारण झूठे अहंकार का झूठा अहसास है कि मैं हूं-अलग,कुछ विशेष। यह जिस भी देह का सहारा लेकर ऐसा कहता है वह देह खुद नाशवान है। क्षणभंगुर है।कुछ नहीं कहा जा सकता कि कब किसकी देह छूट जाय।

लेकिन इससे क्या होता है?वह जीवात्मा फिर से नया शरीर धारण करके आ जाता है मानो नये वस्त्र पहनकर। कृष्ण कहते हैं -'वासांसि जीर्णानि यथा विहाय  नवानि गृह्णाति नरो:पराणि।' वस्त्रों की तरह जीवात्मा देह बदलता रहता है और हर बार मानता है

यही मैं हूं।

इसलिए फर्क समझाने के लिए कहा गया-यह शरीर क्षेत्र है, इसे जाननेवाला क्षेत्रज्ञ है। मैं...मैं हूं यहां तक ठीक है लेकिन मैं यह या और कुछ कैसे हो सकता हूं? अगर मैं अपने आपको यह मोबाइल मान लूं कि मैं यह मोबाइल हूं तो दिमाग का इलाज कराना पडे बेशक। जैसे मैं यह मोबाइल नहीं हूं ऐसे ही मैं यह शरीर भी नहीं हूं।

लेकिन जब मैं अपने को भूलकर यह शरीर अर्थात् कुछ और मान लेता हूं तब अहंकार का खेल शुरू होता है।उसका भ्रमजाल फैलता है,जो माया का काम है। बहुत ही थोडे साधक या सिद्ध देहद्रष्टा होकर जीते हैं बाकी तो सब लोग क्षणभंगुर देह से एकरुप होकर अहंकार का ही जीवन जीते हैं जो माना हुआ है,जो लघु है,जो मैं नामक विचार है।

जितने शब्द उतने विचार। मैं कहा तो मैं विचार।

विचार को आधार मिलता है शरीर का। स्वयं का(आत्मा का,सेल्फ का) आधार मिले तब तो ठीक है। मैं कौन हूं? मैं स्वयं हूं। और कुछ नहीं -सुखी दुखी, अमीर-गरीब,मूर्ख विद्वान, स्त्री पुरुष कुछ भी नहीं। सब देह आधारित अहंकार की पहचान है मगर मैं स्वयं हूं केवल -

यह आत्मा की पहचान है।यह आत्मस्वरुप को जानना है। आत्मा एक शब्द नहीं है।यह प्रत्यक्ष होनापन है। यह हर जीवात्मा है।देह से जुड़कर रहे तो जीव, नहीं जुडे स्वतंत्र रहे तो आत्मा। महर्षि आगे कहते हैं -दो स्वयं नहीं हैं। इसलिए मैं स्वयं हूं ऐसा कहना एक चीज को दो बार कहना हुआ।

केवल स्वयं हूं ऐसा कहना पर्याप्त है। लेकिन हूं कहने से भी फर्क आता है कि केवल मैं ही। दूसरे क्या करेंगे? क्या वे यूंही हैं? वे भी वही हैं। इसे महापुरुषों ने "है" कहकर पुकारा है। जो है वह है की तरह है और वह एक ही है,अखंड है। उसमें मैं हूं,तुम हो,यह है,वह है'

ऐसा भेद नहीं है। भेद जिसके कारण है वह माया भी उसीकी है। वह है का है ही रहता है। जब हमारे हूं का अनुभव है के अनुभव में परिवर्तित हो जाता है तभी मुक्ति है। यदि कोई हूं कि जगह है के अनुभव में रहने की कोशिश करे तो यह भी कल्याणकारी है क्योंकि तब सारे भेद लुप्त हो जाते हैं,झूठा भ्रम फैलाने वाला अहंकार अदृश्य हो जाता है।

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