इंदौर
इंदौर की असल समस्याएँ कौन सुलझाएगा, जब शहर बहसों में कौन-सी चाट की दुकान लगेगी तय कर रहा है?
paliwalwani
इंदौर.
इंदौर 21वीं सदी का शहर है—देश का गौरव, स्वच्छता का प्रतीक, तेजी से बढ़ता मेट्रोपॉलिटन। लेकिन अफसोस कि आज शहर का सबसे “गंभीर मुद्दा” यह तय करना बन गया है कि सराफा चौपाटी पर कौन-सी दुकान चलेगी और कौन-सी नहीं। विकास अधूरा है। फ्लाईओवर रेंग रहे है। अतिक्रमण बढ़ रहा है। पार्किंग के लिए हाहाकार मचा हुआ है।
ट्रैफिक अपनी चरम अव्यवस्था पर है। पर शहर की चर्चा का केन्द्र बिंदु? 80 दुकानें रहेंगी या 180? और किसे चाट, मोमोज, या चाइनीज़ बेचने का परमाधिकार मिलेगा। यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि जिन समस्याओं पर शहर की ऊर्जा खर्च होनी चाहिए, वहाँ प्रशासन और व्यापारी—दोनों—अपनी शक्ति एक खानपान चौपाटी की दुकानें गिनने में लगा रहे हैं?
सराफा चौपाटी इंदौर की सांस्कृतिक पहचान है, इस पर विवाद नहीं। पर यह पहचान तब तक ही टिकाऊ है जब मूलभूत शहरी ढांचा मजबूत हो। एक शहर पहले रहता है, उसके बाजार बाद में। समस्या दुकानों की नहीं, प्राथमिकताओं की है। नगर निगम कहता है—रात 9 बजे के बाद ही दुकान लगाओ। व्यापारी कहते हैं—दुकान नहीं हटेगी, बाकी सब मान लेंगे। संघ अध्यक्ष कहते हैं—80 परम्परागत दुकानें ही चलेंगी, बाकी अवैध हटेंगी। तीनों पक्ष अपनी-अपनी जगह सही होंगे, पर शहर कहाँ है इस बहस में?
क्या इंदौर की सूरत इस एक चौपाटी से तय होगी? क्या शहर की पहचान सिर्फ मोमोज और चाइनीज़ ठेलों से खतरे में है? या फिर शहर की पहचान को सबसे ज्यादा खतरा उन असली समस्याओं से है, जिन्हें हम लगातार नजरअंदाज कर रहे हैं? सड़क पर निकलते ही जाम का सामना करने वाला नागरिक, पार्किंग के लिए लाइन में खड़ा वाहन चालक, अधूरे निर्माण कार्य—इनकी परेशानी कोई बवाल नहीं बनती। लेकिन एक चौपाटी पर 80 बनाम 180 दुकानें—यह बवाल है।
एक शहर केवल “व्यवस्था बनाए रखने” से नहीं, “दृष्टि रखने” से चलता है। सराफा की पारंपरिक पहचान बचाना जरूरी है—पर उससे भी ज्यादा जरूरी है शहर का संतुलित विकास, प्रशासनिक प्राथमिकताएँ और समस्याओं की सीधी जवाबदेही। जब राजधानी जैसे दावे करने वाला शहर अपनी ऊर्जा चौपाटी के अवैध-वैध ठेलों पर खर्च करता है, तब यह स्वीकार करना पड़ता है कि—हमारा प्रशासनिक फ़ोकस भीड़ को मैनेज करने में खर्च हो रहा है, और शहर को मैनेज करने की फुर्सत नहीं मिल रही।
इंदौर को चाहिए दृष्टि, दिशा और निर्णय—सिर्फ दुकानें गिनने वाले नियम नहीं। सराफा अव्यवस्था दूर होना चाहिए—पर साथ ही यह भी समझना चाहिए कि शहर की असल प्रगति सड़क, पानी, ड्रेनेज, ट्रैफिक और भविष्य की शहरी योजना पर निर्भर करती है, न कि इस बात पर कि कौन मोमोज बेचेगा और कौन खस्ता कचोरी।
इंदौर को अब यह तय करना होगा, क्या हम भविष्य की ओर बढ़ रहे हैं—या फिर 21वीं सदी में भी “कौन-सी दुकान हटेगी” तय करके ही खुद को प्रशासनिक रूप से सफल मानेंगे? शहर का असली सवाल यही है—क्या इंदौर अपनी बुनियादी समस्याओं को प्राथमिकता देगा, या फिर हम यूँ ही चौपाटियों पर होने वाले छोटे-छोटे बवालों में अपनी ऊर्जा खर्च करते रहेंगे?





