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अघोषित इमर्जेंसी या घोषित चुनावी तानाशाही?

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अघोषित इमर्जेंसी या घोषित चुनावी तानाशाही?
अघोषित इमर्जेंसी या घोषित चुनावी तानाशाही?

आलेख : राजेंद्र शर्मा

समाचार पोर्टल 'न्यूजक्लिक' के खिलाफ मोदी सरकार के भीषण हमले ने एक बार फिर इस पर चर्चा तेज कर दी है कि क्या मौजूदा हालात को अघोषित इमर्जेंसी कहना उपयुक्त नहीं होगा? जाहिर है कि इमर्जेेंसी में प्रेस का जिस तरह से दमन हुआ था और प्रेस पर सेंसरशिप थोप दी गयी थी, उसकी याद प्रेस/ मीडिया पर हरेक हमला ताजा करता ही है। और 'न्यूजक्लिक' के खिलाफ दिल्ली पुलिस की कार्रवाई की भीषणता ने, स्वाभाविक रूप से इमर्जेंसी की याद दिला दी है। याद रहे कि दिल्ली पुलिस के स्पेशल सैल द्वारा 3 अक्टूबर की छापामारी तथा जब्तियों के बाद आधिकारिक रूप से दी गयी जानकारी के अनुसार भी, 9 महिलाओं समेत कुल 46 लोगों के घरों तथा उनसे जुड़े परिसरों पर छापामारी की गयी थी, जिनमें 'न्यूजक्लिक' से जुड़े पत्रकारों के अलावा इतिहासकारों व स्टेंड अप कॉमेडियनों से लेकर, वैज्ञानिक व सामाजिक कार्यकर्ता तक शामिल थे। पुरुषों को पूछताछ के लिए विशेष सेल के दफ्तर ले जाया गया, जबकि महिलाओं से उनके घरों पर ही पूछताछ की गयी। लंबी पूछताछ के बाद, न्यूजक्लिक के संपादक प्रबीर पुरकायस्थ और प्रबंधन कर्ताधर्ता, अमित चक्रवर्ती को आतंकवाद निरोधक कानून, यूएपीए के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया गया, जबकि बाकी सभी लोगों को अगली पूछताछ के लिए तैयार रहने के निर्देश के साथ घर भेज दिया गया। सभी लोगों के फोन, लैपटॉप, डैस्कटॉप आदि, जांच के नाम पर शुरूआत में ही जब्त किए जा चुके थे।

बाद में, धीरे-धीरे जानकारी सामने आयी कि इस पुलिस कार्रवाई का दायरा और बड़ा था, जिसमें 'न्यूजक्लिक' से जुड़े ऐसे लोगों के अलावा (जिनके सेल फोन, लैपटॉप आदि जब्त किए गए थे, लेकिन जिन्हें पुलिस अपने साथ लेकर नहीं गयी थी) दिल्ली ही नहीं, देश के अन्य हिस्सों में रह रहे, इस समाचार पोर्टल से पहले कभी जुड़े रहे लोग भी शामिल थे। अनुमानत: इस कार्रवाई की चपेट में आने वालों की संख्या सौ के करीब हो सकती है। मीडिया के खिलाफ इतने बड़े पैमाने पर ऐसी दमनकारी कार्रवाई इससे पहले कभी नहीं हुई होगी, न इमर्जेंसी से पहले और न इमर्जेंसी के बाद। वास्तव में इमर्जेंसी के दौरान भी कम से कम ऐसी कोई कार्रवाई नहीं हुई थी। फिर भी, जैसे इस कार्रवाई की इमर्जेंसी की भावना से समानता स्थापित करने के लिए ही, बड़े पैमाने पर कंप्यूटरों व हर प्रकार के रिकार्ड की जब्ती के बाद, समाचार पोर्टल के दफ्तर के दरवाजे पर, सरकारी मोहर के साथ, बड़ा सा ताला भी लटका दिया गया। यह दूसरी बात है कि इस ताले ने इस पूरी कार्रवाई की दुर्भावना और मनमानेपन को, इतने ज्यादा तमाम कायदे-कानूनों को अंगूठा दिखाने वाले तरीके से सामने ला दिया था कि शासन को, इस मामले में एक कदम पीछे हटना पड़ा और औपचारिक रूप से सीलबंदी की अपनी कार्रवाई को, अगले ही दिन वापस लेना पड़ा।

बहरहाल, 'न्यूजक्लिक' के खिलाफ हमले की अभूतपूर्व भीषणता के अलावा एक और चीज थी, जो इस संदर्भ में इमर्जेंसी की याद दिला रही थी। और वह थी यूएपीए जैसे दमनकारी कानून के अंतर्गत, जो वर्षों तक बिना मुकद्दमा चलाए, आरोपियों को जेल में बंद रखने का शासन को मौका देने के लिए ही कुख्यात है, इस समाचार पोर्टल के संपादक प्रबीर पुरकायस्थ और प्रबंधन प्रमुख, अमित चक्रवर्ती की गिरफ्तारी। लेकिन, ये गिरफ्तारियां इमर्जेंसी की याद सिर्फ इस दमनकारी कानून के इस्तेमाल के लिए भी नहीं दिला रही थीं। यहां इमर्जेंसी के निजी अनुभव की भी वापसी हो रही थी। प्रबीर पुरकायस्थ को, जो तब जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र थे तथा छात्र आंदोलन में सक्रिय थे, कुख्यात मीसा के तहत करीब उन्नीस महीने इमर्जेंसी में जेल में गुजारने पड़े थे। अब करीब अड़तालीस साल बाद, उन्हें एक और वैसे ही दमनकारी कानून, यूएपीए के तहत लंबे समय के लिए जेल में ठूंसने की मोदी राज की तैयारी लगती है। मलयाली पत्रकार, सिद्दीक कप्पन के यूएपीए के अंतर्गत ही दो साल बिना कोई मामला चले जेल में बंद रखे जाने या भीमा कोरेगांव प्रकरण में पत्रकार गौतम नवलखा समेत, अनेक मानवाधिकार तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं के करीब चार साल से जेल में बंद होने को देखते हुए, वर्तमान शासन इस कानून का सहारा लेने के पीछे क्या नीयत है, इस संबंध में किसी शक की गुंजाइश नहीं हो सकती है। यह आज के हालात में इमर्जेंसी के अनुभव को और भी प्रासंगिक बना देता है।

बहरहाल, बात सिर्फ हमले की भीषणता या इमर्जेंसी जैसे अनुभव के दोहराए जाने भर की नहीं है। और यहां वर्तमान अनुभव का एक और महत्वपूर्ण पहलू सामने आ जाता है, जो इसे अघोषित इमर्जेंसी के आगे, कहीं बहुत खतरनाक बना देता है। यह पहलू, जो इस कार्रवाई के लिए यूएपीए के सहारा लिए जाने में सामने आया, उस एफआइआर से और भी खुलकर सामने आ गया है, जिसके नाम पर यह भीषण कार्रवाई की गयी है। इस एफआइआर के आरोपों और इसके पीछे कानूनी प्रक्रिया के प्रति शासन की अगंभीरता का अंदाजा तो एक इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि देश के कई शहरों में और सौ के करीब लोगों के खिलाफ, जिनमें सबसे बड़ी संख्या पत्रकारों की ही है, यह कार्रवाई शुरू करने और इसके आधार पर यूएपीए के अंतर्गत दो लोगों को गिरफ्तार करने के बावजूद, पुलिस एफआइआर को छुपाए ही रखना चाहती थी। पुरकायस्थ की याचिका पर, अदालत द्वारा बाकायदा आदेश दिए जाने के बाद, उनकी गिरफ्तारी के दूसरे दिन ही पुलिस को उन्हें एफआइआर दिखाना मंजूर हुआ, जबकि देश का कानून यह कहता है कि आरोपों की जानकारी दिए बिना, किसी के खिलाफ कार्रवाई की ही नहीं जा सकती है।

और आखिरकार, जो एफआइआर सामने आयी है, उसे एक भोंडी कपोल-कल्पना पर आधारित रहस्यकथा ही कहा जा सकता है, जिसमें बिना किसी तुक के आरोपों की माला बनाकर पेश कर दी गयी है। इस कहानी के अनुसार, सामाचार पोर्टल न्यूजक्लिक भारतीय राष्ट्र-राज्य के खिलाफ विदेशी आतंकवादी षडयंत्र के हिस्से के तौर पर काम कर रहा था। लेकिन, यह पोर्टल ऐसा क्या काम कर रहा था, जो ऐसे षडयंत्र का हिस्सा था यानी उसने वास्तव में क्या अपराध किया था, इसका इस पूरी कहानी में कोई जिक्र ही नहीं है। अलबत्ता, इस कार्रवाई के क्रम में पुलिस की पूछताछ में प्राय: सभी लोगों से और खासतौर पर पत्रकारों से जो सवाल पूछे गए हैं, उनसे लगता है कि तीन मुद्दों की रिपोर्टिंग इस सरकार की निगाहों में खासतौर पर अपराध की श्रेणी में आती है -- तीन कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों का ऐतिहासिक आंदोलन, कोविड-19 महामारी के सामने सरकार के कदमों की सफलता-विफलताएं और वर्ष 2020 के शुरू का दिल्ली का दंगा तथा उससे पहले से चल रहा नागरिकता कानून संशोधन/एनआरसी-विरोधी आंदोलन। जाहिर है कि आम तौर पर, मोदी सरकार की आलोचना ही गुनाह है, पर खासतौर पर इन तीनों मुद्दों पर आलोचना तो, आतंकवादी गुनाह है।

और उस पर यह आतंक मामूली आतंकवाद का नहीं, विदेश-संचालित और उस पर भी चीन संचालित आतंकवाद का मामला है! पुन: विदेश संचालितता के ये आरोप भी किसी तथ्य या साक्ष्यों के मोहताज नहीं हैं। ये आरोप, एक और आरोप से निकले हैं कि 'न्यूजक्लिक' समाचार पोर्टल के रूप में अपना काम, नेविल रायसिंघम नाम के एक अमरीकी उद्योगपति के इशारे पर कर रहा था। क्यों? क्योंकि उसमें इस उद्योगपति ने अपने कुछ करोड़ रुपयों का निवेश किया था। लेकिन, डिजिटल मीडिया में विदेशी निवेश तो भारतीय कानून में वैध है और ऐसे निवेश से मीडिया के संपादकीय निर्णयों को प्रभावित होने से बचाने के लिए भी, कानूनी प्रावधान मौजूद हैं। वास्तव में 'न्यूजक्लिक' का शुरू से यही रुख रहा है कि उसने भारतीय कानून का पालन करते हुए निवेश हासिल किए हैं और भारतीय कानून का पूरी तरह से पालन करते हुए ही यह डिजिटल प्लेटफार्म, अपनी पत्रकारिता का काम करता रहा है।

किसी भारतीय कानून के उल्लंघन के कोई साक्ष्य भी नहीं हैं। वास्तव में 2021 से भारत सरकार की तीन-तीन एजेंसियां -- आयकर विभाग, सीबीआइ और एन्फोर्समेंट डाइरेक्टरेट -- ठीक इन्हीं आरोपों की जांच करती रही हैं और कोई उल्लंघन साबित नहीं कर पायी हैं। यहां तक कि यूएपीए के तहत ताजा कार्रवाई से चंद रोज पहले ही, दिल्ली हाई कोर्ट ने एन्फोर्समेंट डाइरेक्टरेट के अपने आरोपों के पक्ष में साक्ष्य पेश नहीं कर पाने को देखते हुए, इस मामले में उसके प्रबीर पुरकायस्थ के खिलाफ कोई दमनकारी कार्रवाई करने पर रोक ही लगा दी थी। सच तो यह है कि इसके बाद ही, उन्हें बिना अदालती सुनवाई के लंबे समय तक सलाखों के पीछे रखने के लिए, अब एनआइए को लाया गया है और यूएपीए का दांव आजमाया गया है।

विदेश संचालित आतंकवाद का दावा, इस दावे पर आधारित है कि इस सबके पीछे चीनी आतंकवादी षडयंत्र है। यह दावा भी, इस एक और दावे पर आधारित है कि अमरीकी नागरिक होते हुए भी, अमरीकी उद्यमी रायसिंघम जो कि चीन में शंघाई में भी रहता है, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का सक्रिय सदस्य है और पार्टी का सक्रिय सदस्य है, इसलिए भारत के खिलाफ चीन के षडयंत्र का हिस्सा है! दिलचस्प है कि कथित टैरर फंडिंग के इस षडयंत्र में वीवो तथा शाओमी जैसी भीमकाय, टेलीकॉम उत्पादक कंपनियों को भी लपेट लिया गया है। लेकिन, यह सब कितना अगंभीर है, इसको प्रख्यात संपादक, सिद्घार्थ वरदराजन ने अपनी हाल की एक टिप्पणी में, कुछ छोटे-छोटे और बहुत ही सीधे-सरल सवालों से बेपर्दा कर दिया है। संक्षेप में उनका सवाल यह है कि अगर वाकई यह विदेश संचालित टेरर-फंडिंग नेटवर्क का मामला है, तो उस नेटवर्क के मुख्य संचालकों यानी चीनी सरकार, संबंधित चीनी कंपनियों से लेकर अमरीकी नागरिक रायसिंघम तक के खिलाफ, मोदी सरकार ने अब तक क्या कदम उठाए हैं? या फिर ये सब दावे सिर्फ मोदी सरकार के आलोचकों को दबाने की लाठी बनने के लिए ही हैं, उस के अलावा किसी तरह ध्यान देने के लिए नहीं।

यहीं हम मौजूदा हालात के अघोषित इमर्जेंसी से आगे, इमर्जेंसी से ज्यादा खतरनाक होने पर आ जाते हैं। इतिहासकार प्रो. ज्ञान प्रकाश, जिन्होंने इंदिरा गांधी की इमर्जेंसी पर बहुत चर्चित किताब लिखी है, वर्तमान परिस्थिति के इस चरित्र पर जोर देते हुए, जिन दो विशेषताओं को रेखांकित करते हैं, उनमें पहली तो विरोधियों को कुचलने के लिए विदेशी टैरर फंडिंग नैटवर्क जैसे आरोप जडऩा ही है, जिन्हें जडऩा ही काफी है और साबित करने की कोई जरूरत नहीं है। और दूसरी विशेषता है, उपलब्ध कानूनी प्रक्रियाओं के दायरे से बाहर जाकर, किसी भी बहाने या साधन से अपने विरोधियों को कुचलना। जाहिर है कि इसके सामने इंदिरा गांधी की इमर्जेंसी काफी मासूम दिखाई देती है।

हैरानी की बात नहीं है कि देश भर में सिर्फ मीडिया से जुड़े लोग ही नहीं, आम तौर पर जनतंत्र की परवाह करने वाले नागरिक भी इस सचाई को समझ रहे हैं कि यह सिर्फ एक न्यूज पोर्टल को कुचलने की कोशिश का मामला नहीं है। यह मुख्यधारा के मीडिया के बड़े हिस्से को खरीदकर जेब में डालने के बाद, अब शासकों के मीडिया की बची-खुची स्वतंत्र आवाजों और खासतौर पर डिजिटल मीडिया में ऐसी आवाजों का भी बर्बरता से गला दबाने की कोशिश का ही मामला है। और इस कोशिश की कामयाबी, जनतंत्र के लिए मौत की घंटी होगी। इसीलिए, इस हमले का सत्तापक्ष और उसके पालतू मीडिया को छोडक़र, देश और दुनिया भर से जैसा चौतरफा विरोध हो रहा है, वैसा इमर्जेंसी में सेंसरशिप का नहीं हुआ था।                                                                                    

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक 'लोकलहर' के संपादक हैं।)

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