आपकी कलम
सशक्त वित्तीय अनुशासन का संदेश- ललित गर्ग
ललित गर्गबजट हर वर्ष आता है। अनेक विचारधाराओं वाले वित्तमंत्रियों ने विगत में कई बजट प्रस्तुत किए। पर हर बजट लोगों की मुसीबतें बढ़ाकर ही जाता है। लेकिन इस बार बजट ने नयी परम्परा के साथ राहत की सांसें दी है। इस बजट में कृषि, डेयरी, शिक्षा, कौशल विकास, रेलवे और अन्य बुनियादी ढांचागत क्षेत्रों के लिए आवंटन बढ़ाने का प्रस्ताव भी किया गया है। इस बार के बजट से हर किसी ने काफी उम्मीदें लगा रखी थीं और उन उम्मीदों पर यह बजट खरा उतरा है। संभवतः यह इक्कीसवीं शताब्दी का पहला बजट है जिसे हम लोक-कल्याणकारी बजट कह सकते हैं। यह बजट वित्तीय अनुशासन स्थापित करने की दिशाओं को भी उद्घाटित करता है।
कई मामलों में यह बजट वाकई असाधारण है। पहली बार आम बजट 1 फरवरी को पेश किया गया है। अब तक यह फरवरी की आखिरी तारीख को पेश होता था। यही नहीं, 92 वर्षों में पहली बार रेल बजट अलग से पेश नहीं किया गया है। इस बार इसे आम बजट का पार्ट बनाया गया है।
यह बजट नोटबंदी के ठीक बाद आया है, इसलिए इसमें नोटबंदी के दौरान गाए गए गीतों की गूंज बिल्कुल साफ सुनाई पड़ रही है। पांच राज्यों में चुनाव के पूर्व इस बजट के प्रस्तुत होने के बावजूद इसमें चुनावों को प्रभावित करने या लुभाने जैसा कोई राजनीतिक नजरिया दिखाई नहीं दिया, यह भी इस बजट की एक विशेषता ही कही जायेगी। अक्सर बजट में राजनीति, वोटनीति तथा अपनी व अपनी सरकार की छवि-वृद्धि करने के प्रयास ही अधिक दिखाई देते हैं। लेकिन इस बजट को कसने की बुनियादी कसौटी भारत का विकास ही है। अपना घर, स्टार्टअप, मेक इन इंडिया, महिला एवं वृद्धों को राहत की दृष्टि से भी यह बजट उल्लेखनीय है।
यह बजट सही आर्थिक दिशा के एजेंडे के रूप में प्रस्तुत हुआ है, इसे हम कृषि, किसान, गांव एवं गरीब का बजट भी कह सकते हैं। इसमें सरकार का लक्ष्य 5 साल में किसानों की आमदनी दोगुनी करना है। इसके लिए उसने फसल बीमा के मद में नौ हजार करोड़ रुपये आवंटित किए हैं। 5 हजार करोड़ रुपये से सूक्ष्म सिंचाई निधि बनेगी। नए उपायों से उन्हें कितना लाभ पहुंचेगा, यह समय बताएगा। मिडल क्लास का वह वर्ग जो कुछ हद तक निवेश करता है, उसे अलग से कुछ नहीं मिला है।
जब-जब बजट प्रस्तुत होता है, आम-आदमी की दिक्कतें कम नहीं होती। लोक-कल्याणकारी बजट क्या होता है, कैसा होता है, लोग जानते ही नहीं थे। बल्कि इस शब्द से एलर्जी हो गई है। वर्षों से एक छोटी-सी मांग, आयकर छूट की सीमा बढ़ाने की, लगातार नजरअंदाज की जाती रही, लेकिन इस बजट में इस ओर ध्यान दिया गया है। निम्न मध्यमवर्ग को इनकम टैक्स में थोड़ी राहत दी गई है। 2.5 लाख से 5 लाख रुपये तक की आय पर 10 के बजाय 5 प्रतिशत टैक्स देना होगा। इससे न सिर्फ वेतनभोगी लोगों, बल्कि छोटे कारोबारियों को कुछ राहत मिलेगी। उम्मीद की जा रही है कि इससे वे कारोबारी स्वतः अपने आय-व्यय का लेखा-जोखा पेश करने को प्रोत्साहित होंगे, जो आमदनी छिपाने की कोशिश करते रहे हैं। आय और महंगाई के कारण बढ़े हुए खर्च का अनुपात स्पष्ट आधार बनता है। पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्य वृद्धि ने तो सभी उपभोग की वस्तुएँ महंगी की ही है। महंगाई के अथाह समुद्र में डूबते मनुष्य को यह बजट कितना उबारेगा, यह समय ही बतायेगा। इस बजट को तैयार करते हुए अन्तर्राष्ट्रीय चुनौतियों के दबाव भी सामने रहे हंै। जैसे कच्चे तेल की बढ़ती कीमतें, अमेरिका की ब्याज दरों में वृद्धि और तमाम देशों द्वारा अपनाई जा रही ग्लोबलाइजेशन विरोधी नीतियां।
आर्थिक शुचिता एवं वित्तीय अनुशासन को प्रभावी ढंग से लागू करने का संकल्प और सन्देश इस बजट ने दिया है। पहली बार चुनावी चंदे के मसले पर बजट में ऐसी व्यवस्था करने की घोषणा की गई है जिससे भ्रष्टाचार की जड़ खोखली होती जायेगी। राजनीतिक दलों को अधिकतम दो हजार रुपये की धनराशि ही नगद चंदे के रूप में दर जा सकेगी। पहले नोटबंदी और अब इस नयी व्यवस्था से निश्चित रूप से राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता आयेगी एवं भ्रष्टाचार पर नकेल कसी जायेगी। इसे कालेधन का प्रवाह रोकने की दिशा में कठोर कदम कहा जा सकता है, पर इसमें कितनी कामयाबी मिल पाएगी या राजनीतिक दलों में कितना आर्थिक अनुशासन स्थापित होगा, कहना मुश्किल है। मोदी सरकार ने नोटबंदी को गरीबों के हित में उठाए गए कदम के रूप में प्रस्तुत किया था। कहा गया था कि धनी लोग काले धन से मौज-मस्ती करते हैं, जबकि कर चोरी का बुरा नतीजा गरीबों को भुगतना पड़ता है। अरस्तु ने सावचेत किया था कि करदाता को जब यह ज्ञान होता है कि सरकार को दिये गये कर को चुनिंदे व्यक्ति और नौकरशाह अपनी समृद्धि के लिए दुरुपयोग कर रहे हैं, तो करदाता इसे कत्तई बर्दाश्त नहीं करेगा।“
राष्ट्रीय आय का 30 से 40 प्रतिशत तक काला धन बन रहा है। आप देखेंगे कि सार्वजनिक उद्योग बीमार पड़ते हैं पर पांच सितारा होटल, अंग्रेजी स्कूल, पांच सितारा अस्पताल, शराब बनाने वाले उद्यम, महंगे कपड़े बनाने वाली मिलें, कभी बीमार नहीं पड़ते। इसीलिये बजट में सबसे अधिक चिंता कालेधन पर रोक लगाने को लेकर देखी गई है। इसके लिए डिजिटल भुगतान को बढ़ावा देने, तीन लाख रुपए से अधिक के लेन-देन को रोकने और राजनीतिक दलों को मिलने वाले नगद चंदे की सीमा बीस हजार से घटा कर महज दो हजार रुपए करने का प्रस्ताव किया गया है। नोटबंदी के बाद से ही सरकार डिजिटल भुगतान को बढ़ावा देती आ रही है, इसके लिए कुछ पुरस्कार और विक्रेताओं के लिए प्रोत्साहन योजनाएं भी शुरू की गई हैं। चूंकि सरकार वस्तु एवं सेवा कर अधिनियम लागू करने की जल्दी में है, इसलिए भी डिजिटल भुगतान को बढ़ावा देकर कालेधन पर अंकुश लगाने और कर भुगतान में पारदर्शिता लाना चाहती है। फिर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को बढ़ावा देने के इरादे से किए गए प्रस्ताव भी अभी कसौटी पर चढ़ने हैं। क्योंकि वैश्विक हालात प्रतिकूल हैं, तब निवेशकों में मुनाफे का भरोसा पैदा करना एक बड़ी चुनौती है। सरकार इस पर कैसे खरी उतरेगी, इसका खाका बजट में सामने नहीं आया। इसी तरह डूबते कर्ज से समस्याग्रस्त बैंकों को राहत देने लिए सिर्फ 10,000 करोड़ रुपए का प्रावधान ऊंट के मुंह में जीरा के समान है। रक्षा बजट में 5.8 फीसदी की वृद्धि भी अपर्याप्त मानी जाएगी। ऋणों की लूट से बैंकों की स्थिति चिन्ताजनक है। यह भी एक तरह का भ्रष्टाचार है। इस बार की नोटबंदी ने बैंकों में एक नये तरह के भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया है। हर नागरिक प्रतिदिन सरकार को किसी न किसी रूप में कुछ देता है और हर रोज किसी न किसी रूप में देने से अधिक चोरी कर लेता है। इस स्थिति पर नियंत्रण करके ही हम भ्रष्टाचार को समाप्त करने की दिशा में आगे बढ़ सकेगे।
इस बजट को नोटबंदी से लगे झटकों को संभालने का प्रयास भी कहा जा सकता है। क्योंकि अगले वित्त वर्ष के लिए मनरेगा या आंगनबाड़ी जैसी सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं की मद बढ़ाई गई है। बुनियादी ढांचा परियोजनाओं पर निवेश में बड़ी वृद्धि का इरादा दिखाया गया है। लघु एवं मध्यम कंपनियों तथा मध्य वर्ग को कर रियायत मिली है। कृषि ऋण, सिंचाई व्यय, फसल बीमा एवं ग्रामीण सड़क निर्माण के ऊंचे लक्ष्य तय किए गए हैं। इसके बावजूद वित्त मंत्री राजकोषीय अनुशासन में रहे। उन्होंने अगले वित्त वर्ष में राजकोषीय घाटा 3.2 फीसदी पर सीमित रखने का अनुमान व्यक्त किया। इससे भारत की वित्तीय व्यवस्था में निवेशकों का भरोसा कायम रहेगा।
आंकड़ों के मुताबिक देश में आयकर रिटर्न भरने वालों की कुल संख्या 3.7 करोड़ और टैक्स देने वालों की संख्या 2.7 करोड़ ही है। वित्त मंत्री की मानें तो एक तरह से 2.7 करोड़ आय करदाताओं के कंधों पर देश की सवा अरब से ज्यादा आबादी का बोझ है। जरूरत है आयकर देनेवालों का दायरा बढ़ाने के रास्तों को तलाशने की।
सरकार टैक्स के दायरे में ज्यादा से ज्यादा लोगों को लाने की बात तो करती है, लेकिन वास्तविकता में ऐसा कोई ठोस उपक्रम सामने नहीं आया है। चाणक्य नीति में कहा गया है कि जिस प्रकार फूल से भंवरा मधुकरी कर बिना फूल को नुकसान पहुंचाए काम चलाता है, ठीक उसी प्रकार सरकार को जनता से कर लेना चाहिए। अधिक नहीं। लेकिन एक आदर्श शासन व्यवस्था वह है जिसमें हर व्यक्ति कर देना अपनी जिम्मेदारी समझे। ऐसा तभी संभव है जब ईमानदार बजट हो और ईमानदार ही करदाता हो। सरकारी बजट को आम लोग समझते ही नहीं कि उनके धन का कितना उपयोग या दुरुपयोग हो रहा है। जो समझते हैं वे सिवाय विरोध के कुछ नहीं करते। ऐसी स्थिति में जब नैतिकता और मूल्यविहीनता का सारा आर्थिक ढांचा चरमरा उठा है, तब देश को एक सशक्त वित्तीय अनुशासन की आवश्यकता है। खर्च पर प्रतिबन्ध हो। फिजूलखर्ची एवं सुविधा के खर्च रोक दिए जायें। मितव्ययता की वृत्ति अपनाकर हम देश की अस्मिता एवं अखण्डता को बचा सकते हैं।
प्रेषकः
ललित गर्ग
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