धर्मशास्त्र
स्वामी असंग आनंद जी महाराज द्वारा श्री मद्भागवत महापुराण षष्ठम स्कंध अध्याय 16 के मुख्य अंश
paliwalwani
दीर्घकाल तक सत्संग का श्रवण करते-करते धीरे-धीरे मन और सोच परिवर्तित हो जाते हैं। और शास्त्र के अनुकूल दिशा में चलने लगते हैं।
मुनि के लिए संसार के भोगविलास, धन, संपदा, हानि-लाभ, निद्रातुल्य हैं। उनका कोई अस्तित्व नहीं है। उनमें कोई महत्व बुद्धि नहीं है।
भगवान के भक्ति ही परम धन है।
प्रकृति का नियम है यहां जो भी मिलेगा वह छूटेगा ही।
सुख का अभाव ही दुख बन जाता है।
जिस व्यक्ति, वस्तु, स्थिति की प्राप्ति में आप जितने सुखी हो रहे हैं उसका वियोग होने पर उतना ही दुखी होंगे।
आध्यात्म को समझने के लिए सूक्ष्म और शुद्ध बुद्धि की आवश्यकता है।
जीवन यापन के लिए जितने धन की आवश्यकता है उतना संग्रह करने के बाद भी यदि आप धन अर्जन करने में अपनी ऊर्जा और समय लगा रहे हैं तो आप बुद्धिमान नहीं है।क्योंकि आप अपने समय और ऊर्जा का सही दिशा में उपयोग न करके उसका व्यर्थ ही दुरुपयोग कर रहे हैं।
कामना ही बताती है कि मन अभी संसार में ही लगा हुआ है।
आध्यात्म का पुष्प स्वातंत्र्य में खिलता है।
जिस संबंध से हमें जितना सुख मिलता है उतना ही दुख भी भरपूर मिलता है। हम केवल मोह वश आंखें बंद कर लेते हैं। और सच्चाई को स्वीकार नहीं करते।
जो आज तुम्हें प्रिय लग रहा है कल वही तुम्हें रुलाएगा।
श्रद्धावान के ही जीवन में परिवर्तन आता है। जो गुरु के सम्मुख उपलब्ध होते हैं उनकी हर बात मानने के लिए तत्पर होते हैं उन्हीं का जीवन प्रगति मार्ग पर आरुढ़़ होता है।
जीवंत गुरु की नितांत आवश्यकता है।
संसार में कुछ भी सदा नहीं रहता ।जो पहले था वह अब नहीं है जो अब है वह आगे नहीं रहेगा। जन्म से पहले हम तुम नहीं थे और मृत्यु के पश्चात भी नहीं रहेंगे।इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि इस समय भी उनका अस्तित्व नहीं है। क्योंकि सत्य वस्तु तो सब समय एक सी रहती है।
तीन बातें अति दुर्लभ है- मनुष्य जन्म ,संतों का संग, मुक्ति की इच्छा। आदि शंकराचार्य जी महाराज
यदि किसी भी कारण वश हमारे किसी प्रियजन का शरीर नहीं रहता तो उनके सद्गति के लिए श्रीमद् भागवत करवानी चाहिए।
यदि भजन में मन नहीं लग रहा है तो समझें कि संसार को बहुत अधिक महत्ता दी हुई है। वहां से मन हटाएं तभी भगवान में मन लगेगा।
सत्संग सुनने के बाद उस पर मनन करें।वहां बैठे लोगों से संसार की चर्चा करके श्रवण किए हुए ज्ञान को व्यर्थ न जाने दें।
समय रहते अपने कल्याण का साधन कर लें।
भजन करने से वह आध्यात्मिक लाभ नहीं मिलता जितना लाभ भजन करके भी जब यह वेदना हृदय में उठती है कि हेनाथ !मेरे !किए से कुछ नहीं होता मैं थक चुका हार चुका अब मैं कोई साधन करके आपको प्राप्त नहीं कर सकता! आंखों से झज्जर आंसू बहते हैं बार-बार हृदय से पुकार उठती है। जब इस प्रकार की वेदना से हृदय व्यथित हो जाता है तब दीनदयाल की करुणा जीवन में बरसती है।
आज इतना ही जय मां।