आपकी कलम
त्रासद है उम्र की शाम का भयावह बनना
lalit gargपूरी दुनिया में वृद्धों का समाज बढ़ रहा है और उनकी खिलखिलाहट कम होती जा रही है। भारत सहित अगर हम दुनिया का आकलन करें तो 2050 तक दुनियाभर में साठ वर्ष की उम्र वाले लोगों की तादाद 11 से बढ़कर 22 फीसद हो जाएगी। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक बुजुर्गों की आबादी छह करोड़ से बढ़कर दो अरब हो जाएगी। देश के चैदह साल के उम्र के बच्चों की संख्या से उनकी तादाद ज्यादा होगी। यह तथ्य सुखद इसलिये प्रतीत हो रहा है कि औसत आयु बढ़ रही है, वही दुखद इसलिये लग रहा है कि हमारे समाज में वृद्धों की उपेक्षा बढ़ती जा रही है और उनका जीवन जटिल होता जा रहा है।
कहना यह गलत नहीं होगा कि आज के बदलते परिदृश्य में बुजुर्गों की हालात काफी चिंतनीय है। उम्र के इस दौर को सदैव असहजता से ही गुजारने के लिए हर समय बुजुर्ग विवश हो रहे हैं। भारत के बुजुर्गों की स्थिति पर चर्चा करते हुए ‘एल्डर एब्यूज इन इंडिया’ में यह कहा गया है अपमान, उपेक्षा, दुव्र्यवहार और प्रताड़ना की वजह से ज्यादातर वृद्ध बुढ़ापे को एक बीमारी मानने लगे हैं। अब चूंकि एक बहुत बड़ी आबादी बुजुर्गों की है तो दुनिया भर के विभिन्न सरकारों व योजनाकारों को इसी हिसाब से नीतियां और योजनाएं बनानी चाहिए।
हम भारत की बात करें तो यहां अपनों की उपेक्षा से त्रस्त करीब पैंतीस फीसद बुजुर्ग ऐसे हैं जो बीमारी के समय खर्चों का वहन स्वयं करते हैं, उन्हें तकलीफ यह दौर अकेले झेलना पड़ता है। बुजुर्गों की सुरक्षा और संरक्षण के मद्देनजर ही वरिष्ठ नागरिक भरण-पोषण विधेयक पास किया गया था। पर इस कानून का पालन हमारे समाज में कितना हो रहा है, यह बताने की जरूरत नहीं। इस उम्र में बुजुर्ग खुद को अकेला महसूस करते हैं, उनके अंदर असुरक्षा की भावना पनपने लगती है जो कभी-कभी उनके लिए मानसिक अवसाद का कारण भी बन जाती है। उनका अपना समय भी व्यतीत करना कठिन हो जाता है। यह उम्र स्वास्थ्य की नजरिए से काफी संवेदनशील होती है। इस अवस्था में शरीर में कई तरह के परिवर्तन होते हैं। इसलिए भी जरूरी है कि इनका ख्याल रखा जाए।
बुढ़ापा ऐसी अवस्था है जिसमें अनेक तरह के कष्ट बीमारियों घेर लेती हैं। शरीर साथ नहीं देता है। ऐसी दशा में यदि घर-परिवार के लोग भावनात्मक सहयोग नहीं देते तो वे मन से भी टूटने लगते हैं। उनकी जिंदगी तिल-तिलकर दम तोड़ने लगती है। इन परिस्थितियों में वे आत्महत्या जैसे कदम भी उठा लेते हैं। क्या आप भी उन्हें ऐसा देखना चाहेंगे? क्या यह हमारी संस्कृति का हनन है? क्यों न हम अपने बुजुर्गों/बड़ों के सम्मान व सेवा-सुश्रुषा के लिए संकल्पवत् हो। क्योंकि एक न एक दिन हमें भी इस अवस्था में जाना है। आगे बढ़ती हुई जिंदगी हमारे लिये भी दरवाजा खोल रही है, हम उसकी आहटें सुनें, उसकी भाषा पहचानें।
पल-पल खिसकती हुई जिंदगी को एक न एक दिन बूढ़ा होना ही है, यह अकाट्य है। शाश्वत सत्य है। हमारे बुजुर्ग हमारे पूज्यनीय हैं, वंदनीय हैं। उनका सम्मान किया जाना चाहिए, यह बात हमारे संस्कारों में होनी चाहिए किन्तु, आज के इस आपाधापी के दौर में लोग इस बात को नकारने लगे हैं। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण वृद्धाश्रम हैं। जहां लोग अपने बुजुर्गों को छोड़कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं और बुजुर्ग अपने अकेलेपन के मौन सन्नाटे को बिना किसी यंत्र के सुनते रहते हैं। जिन्होंने जन्म देकर दिखाई राह जीने की उनके प्रति सेवा और सम्मान भूल जाना यह तो भारतीय संस्कृति या यूं कहें तो पूरी मानवता पर कुठाराघात है। यंत्रवत् भागती जिंदगी हमें किस ओर ले जा रही है, किस छोर पहुंचायेगी? यह एक अहम् प्रश्न है। हर घर में इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि बच्चे जैसा देखते हैं वैसा ही अनुसरण करते हैं। आज बुुजुर्ग घरों में अपनों से दूर अकेले रहते हैं या फिर नौकरों के भरोसे। लेकिन इसका फायदा भी अक्सर नौकर उठाते हैं। हमें बुजुर्गों की देखरेख और सुरक्षा के लिए ठोस कदम उठाना होगा नहीं तो उम्र की यह शाम कहीं उनके लिए भयावह न बन जाए।
सीप अपने भीतर जिस तरह मोती छुपाकर रखता है उसी तरह बुजुर्गों के मन रूपी सीप में आशीर्वाद रूपी अनेकों मोती छुपे रहते हैं। मन प्रसन्न होते ही वे इन मोतियों को दुआओं के रूप में लुटाते रहते हैं। बुजुर्गों की सेवा करके हम उनसे ये मोती प्रतिपल पा सकते हैं और उनकी भावनाओं से जुड़कर हम अपनी जिंदगी को सुंदरतम बना सकते हैं। एक पेड़ जितना ज्यादा बड़ा होता है वह उतना ही अधिक झुका हुआ होता है यानि वह उतना ही विनम्र और दूसरों को फल देने वाला होता है। यही बात समाज के उस वर्ग के साथ भी लागू होती है जिसे आज की तथाकथित युवा और एजुकेटेड पीढ़ी बूढ़ा कहकर वृद्धाश्रम में छोड़ देती है. वह लोग भूल जाते हैं कि अनुभव का कोई दूसरा विकल्प दुनिया में है ही नहीं। अनुभव के सहारे ही दुनिया भर में बुजुर्ग लोगों ने अपनी अलग दुनिया बना रखी है।
जिस घर को बनाने में एक इंसान अपनी पूरी जिंदगी लगा देता है, वृद्ध होने के बाद उसे उसी घर में एक तुच्छ वस्तु समझी जाता है। बड़े बूढ़ों के साथ यह व्यवहार देखकर लगता है जैसे हमारे संस्कार ही मर गए हैं। बुजुर्गों के साथ होने वाले अन्याय के पीछे एक मुख्य वजह सोशल स्टेटस मानी जाती है। सब जानते हैं कि आज हर इंसान समाज में खुद को बड़ा दिखाना चाहता है और दिखावे की आड़ में बुजुर्ग लोग उसे अपनी सुंदरता पर एक काला दाग दिखते हैं। यह वर्तमान दौर की एक बहुत बड़ी विडम्बना है।
क्योंकि साहिल पर तमाशाई तो बहुत हैं,
लेकिन डूबते की इमदाद कोई नहीं करता।
इस समय की बुजुर्ग पीढ़ी आज घोर उपेक्षित है। इसका कारण है हमारी आधुनिक सोच और स्वार्थपूर्ण जीवन शैली। दादा-दादी, नाना-नानी की यह पीढ़ी एक जमाने में भारतीय परंपरा और परिवेश में अतिरिक्त सम्मान की अधिकारी हुआ करती थी और उसकी छत्रछाया में संपूर्ण पारिवारिक परिवेश निश्चिंत और भरापूरा महसूस करता था। न केवल परिवार में बल्कि समाज में भी इस पीढ़ी का रुतबा था, शान थी। आखिर यह शान क्यों लुप्त होती जा रही है?
महान विचारक कोलरिज के यह शब्द-‘पीड़ा भरा होगा यह विश्व बच्चों के बिना और कितना अमानवीय होगा यह वृद्धों के बिना? वर्तमान संदर्भ में आधुनिक पारिवारिक जीवन शैली पर यह एक ऐसी टिप्पणी है जिसमें वृद्ध और नई पीढ़ी की उपेक्षा को एक अभिशाप के रूप में चित्रित किया गया है। हमें जहां नई पीढ़ी को संवारना है वहीं बुजुर्ग पीढ़ी के प्रति भी जागरूक बनना होगा। उनके प्रति उपेक्षा, घृणा को समाप्त करना होगा। हमारी मध्यम पीढ़ी के ऊपर यह कलंक न लग पाए कि हमने अपने स्वार्थों के कारण दो पीढ़ियों को जुड़ने नहीं दिया।
वृद्ध पीढ़ी को संवारना, उपयोगी बनाना और उसे परिवार की मूलधारा में लाना एक महत्वपूर्ण उपक्रम है। जिंदगी वह है जो हम बनाते हैं। ऐसा हमेशा हुआ है और हमेशा होगा। इसलिए हमें अपने दादा-दादी और नाना-नानी के जीवन को उपेक्षा के दंश से बचाना होगा। नई आंखों से बुजुर्ग पीढ़ी को देखने का अनुभव विलक्षण होता है यह विशालता और महानता का संसार है।
प्रेषकः
ललित गर्ग
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