Tuesday, 17 June 2025

इंदौर

इन्दौर मीडिया कॉन्क्लेव-2025 : पटरी से उतरी-परिचर्चा

मिर्ज़ा ज़ाहिद बेग़
इन्दौर मीडिया कॉन्क्लेव-2025 : पटरी से उतरी-परिचर्चा
इन्दौर मीडिया कॉन्क्लेव-2025 : पटरी से उतरी-परिचर्चा

मिर्ज़ा ज़ाहिद बेग़...

इन्दौर.

इन्दौर प्रेस क्लब  के 63 वें स्थापना दिवस पर आयोजित 'इन्दौर मीडिया कॉन्क्लेव-2025 के शुभारम्भ दिवस पर तीसरे सत्र में 'अख़बारों से सिमटता साहित्य' विषय पर परिचर्चा हुई। इस परिचर्चा में श्री प्रियदर्शन(सीनियर एक्जीक्यूटिव एडिटर-एनडीटीवी इंडिया),श्री अनन्त विजय(वरिष्ठ पत्रकार-दैनिक जागरण दिल्ली,श्रीमती निर्मला भुराड़िया(वरिष्ठ पत्रकार-इन्दौर) और लेखिका डॉ स्वाति तिवारी ने भाग लिया। परिचर्चा की सूत्रधार स्थानीय साहित्यकार डॉ अमिता नीरव थीं। उन्होंने सर्वप्रथम श्री अनन्त विजय को आमंत्रित कर उन्हें परिचर्चा के सूत्र सौंपे।

अनन्त विजय ने कहा कि हमें साहित्य को व्यापक दृष्टिकोण में देखने की आवश्यकता है। अखबारों में अब व्यावसायिक मज़बूरियों वश साहित्य हाशिए पर चला गया है। उन्होंने आयोजकों को धन्यवाद दिया कि उन्होंने टीवी/इंटरनेट/सोशल मीडिया को परिचर्चा योग्य नहीं समझा। अख़बार अब कुबेरनाथ जैसे साहित्यकार को ज़गह नहीं देते।  वर्तमान में मीडिया में वैचारिक मिलावट हो गई है। अनन्त ने विषय से भटकते हुए आरोप लगाया कि सबसे पहले एनडीटीवी ने मिलावट की शुरुआत की।

प्रियदर्शन ने अपनी बात शुरू करते हुए कहा कि साहित्य अब अख़बार में ही नही बल्कि पूरे जीवन में बिक गया है। विचार विरोधी होना अच्छी बात नहीं। हरिशंकर परसाई विचार विरोधी नहीं थे। मीडिया के अंदर शुरू से विचार हीनता की परम्परा रही है। फूलन देवी को दस्यु सुंदरी कहना विचारहीनता की पराकाष्ठा थी। वे ज़ुल्म का शिकार महिला थीं। कविता कहानी खूब छप रही हैं। पर कविता से कविता और कहानी से कहानी ग़ायब है।

चिन्ता इस बात की है कि असमानता/शोषण और अभावों की कहानी नहीं छापी जा रही। उन्होंने कहा कि मार्क्सवादी पार्टी के हारने से मार्क्सवाद की उपयोगिता  ख़त्म नहीं होती। जो भी दल रोटी का सवाल उठाता है वह मार्क्सवाद का एजेंडा ही उठाता है। विकास का नकली संसार रचा जा रहा है। लोगों को आज भी व्यंग के नाम पर परसाई और शरद जोशी याद आते हैं। उन्होंने स्थानीय साहित्य क़ार और परिचर्चा की सूत्रधार डॉ अमिता के वृहद उपन्यास 'माधवी' का ज़िक्र करते हुए कहा कि यदि साहित्य हो तो पढ़ते-पढ़ते आँख  दर्द होने के बाद भी उसे पढ़ा जा सकता है। 

अनन्त विजय उनके अभिप्राय को नहीं समझ पाए उन्होंने इस बार माधवी पर कटाक्ष किया। निर्मला भुराड़िया ने कहा कि विषय बहुत प्रासंगिक है पर मीडिया से साहित्य एक दिन में ग़ायब नहीं हुआ। इसे समझने के लिए हमें विगत कई दशकों की साहित्य यात्रा करनी होगी। हमें अखबारों को मिशन भाव से ही चलाना होगा अन्यथा उसके होने की क्या उपादेयता है? अखबारों में जैसे ख़बर ज़रूरी है वैसे ही विचार और नैतिकता ज़रूरी है। 

सब जानते हैं कि अख़बारो की लागत बढ़ती जा रही है। अख़बार के मूल्य से उसकी प्रतिपूर्ती नहीं हो पा रही इसलिए पूंजीपती और सत्ता जनित लाभ उसकी मज़बूरी बन गए हैं। अखबारों में सम्पादक नाम की संस्था का निरंतर ह्रास होता जा रहा है।

डॉ. स्वाति तिवारी ने विषय वस्तु को पकड़ने में बहुत देर की पर उन्होंने महत्वपूर्ण बात की कि "अख़बारों में सूचना, शिक्षा, लोकरंजन और दिशादर्शन होना अनिवार्य है।" कहानियों का सम्पादन नहीं हो सकता। उनका मर्म ख़त्म हो जाता है पर अखबारों द्वारा यह किया जा रहा है।

डॉ. अमिता ने हस्तक्षेप करते हुए कहा कि यूथ अब ई पेपर,ई बुक पढ़ रहा है। फिर हमारी यह ज़िद क्यों है कि अखबारों में साहित्य होना चाहिए। 

अनन्त विजय द्वारा एनडीटीवी पर बिलावज़ह सर्वप्रथम मिलावट करने के आरोप के साथ ही परिचर्चा पटरी से उतर गई थी। प्रत्युत्तर में प्रियदर्शन के कटाक्ष के बाद दोनों विद्व पुरुषों में आपसी कटाक्ष, विचार भिन्नता और बहस सोशल मीडिया बहस के स्तर तक उतर आई। अंततः वह विषय से हट कर वामपंथ, दक्षिणपंथ, मंदिर, मस्ज़िद, साम्प्रदायिक दंगो तक पहुँच गई।

बेशक़ दोनों पुरुष प्रतिभागी विद्वान थे पर वे 'मैं ही सही हूँ' इस पूर्वाग्रह के कारण परिचर्चा को उस स्तर तक नहीं ले जा सके जिसकी उनसे अपेक्षा थी। कहा जा सकता है कि परिचर्चा से श्रोताओं की बौद्धिक प्यास तृप्त नहीं हो पाई।

दोनों महिला प्रतिभागी अनन्त-प्रियदर्शन के वैचारिक आग्रह-दुराग्रह से निर्लिप्त रहीं। सूत्रधार डॉ अमिता ने बार-बार परिचर्चा में प्रश्नों के माध्यम से हस्तक्षेप कर बहस को व्यक्तिगत और तनावपूर्ण होने से रोकने के भरसक प्रयास किये और वे किंचित रूप से सफ़ल भी रहीं। 

अक्सर प्रोग्राम देरी से शुरू होते आये हैं पर प्रेसक्लब की परिचर्चा में यह पहली बार हुआ कि वह निर्धारित समय 4.30 से पहले ही शुरू कर दी गई। इस कारण समय पर आने वालों को परिचर्चा के सूत्र पकड़ने में बहुत कठिनाई हुई।

रिपोर्ट : मिर्ज़ा ज़ाहिद बेग़

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