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नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी लोकसभा में पत्रकारों को कैद करने की बात नहीं उठाते तो क्या लोकसभा अध्यक्ष उन्हें मिलने के लिए बुलाते?

paliwalwani
नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी लोकसभा में पत्रकारों को कैद करने की बात नहीं उठाते तो क्या लोकसभा अध्यक्ष उन्हें मिलने के लिए बुलाते?
नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी लोकसभा में पत्रकारों को कैद करने की बात नहीं उठाते तो क्या लोकसभा अध्यक्ष उन्हें मिलने के लिए बुलाते?

अगर आज नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी लोकसभा में पत्रकारों को कैद करने की बात नहीं उठाते तो क्या लोकसभा अध्यक्ष उन्हें मिलने के लिए बुलाते?

पत्रकारों की समस्या आज की नहीं है नई संसद बनने के बाद से 1 साल की हैऔर अगर सही रूप से कही जाए तो पिछले 5 साल की। 

कैसे? पहले 5 साल वाली बात करते हैं। 5 साल से लोकसभा की मीडिया एडवाइजरी कमेटी नहीं बनी है। यह कमेटी नए पत्रकारों को लोकसभा की प्रेस गैलरी में पास देने की सिफारिश करती थी और उसके आधार पर लोकसभा सचिवालय वह पास इशू करता था। 

अब कोई नए पास इशू नहीं हो रहे हैं और जिनके पास पुराने पास थे उन्हें रिन्यू नहीं किया जा रहा है। अब पिछले 1 साल की। जो नई संसद बनने के बाद से पैदा हुई हैं।नई संसद में पुरानी की तरह कोई सेंट्रल हॉल या कॉरिडोर या प्रेस रूम ऐसा नहीं है जहां वह सांसदों से बात कर सके। खड़े होने बैठने के लिए कोई कोना स्थान नहीं है। 

लोकसभा की प्रेस गैलरी में राज्यसभा के सांसदों को भी बिठाया जाता है। यह भयानक आश्चर्यजनक है। लोकसभा में राज्यसभा के सांसदों की अलग गैलरी बनाई नहीं है। पुरानी संसद में वह थी।

लोकसभा राज्यसभा दोनों की प्रेस गैलरी में जाने से पहले जहां फोन रखवाया जाता है उसके साथ अब पर्स घड़ी पेन भी रखने के लिए कहा जाता है।इसका एक बड़ा कारण तो यह है कि इस स्थान पर विजिटर का सामान भी रखवाते हैं सीआईएसफ वालों को विजिटर और प्रेस में अंतर समझ में नहीं आता है। पुराने संसद में प्रेस के लिए फोन रखने का स्थान बिल्कुल अलग था सिर्फ प्रेस के लिए। 

यहां नहीं है। साथ ही वहां फोन रखने के खुले खाने थे यहां छोटे-छोटे से ताले वाले खाने बना दिए हैं जिसकी दो चाबियां आपके साथ रखने के लिए दे दी जाती हैं।वह बहुत ही असुविधाजनक है। 

नई संसद में पत्रकारों के लिए कैंटीन अलग नहीं है स्टाफ के साथ है और इसमें सबसे बड़ी समस्या यह है कि सीआईएफ भी वही खाना खाने आता है जिनकी संख्या करीब 4000 है इतनी भीड़ हो जाती है कि पत्रकारों को खाना मिलना मुश्किल हो जाता है। पुरानी संसद में मीडिया के लिए अलग कैंटीन थी।

नई संसद के बाहर एक ही मीडिया स्टैंड बनाया है जिसे राहुल ने आज पिंजरा कहा। है भी वह ऐसा ही। पुरानी संसद के बाहर कई स्टैंड थे। बड़े और खुले। साथ ही अंदर भी प्रेस कॉन्फ्रेंस का एक बड़ा कमरा था जहां पत्रकार फोटोग्राफर कैमरामैन बैठ सकते थे। समस्याएं बहुत हैं। 

हमने पिछले 1 साल में इन पर काफी लिखा है। और ट्विटर की टाइमलाइन पर वह सब देखने को मिल सकती हैं। और सबसे बड़ी बात अधिकारियों को सारी समस्याएं मालूम है। और मालूम तो लोकसभा अध्यक्ष को भी हैं। मगर समस्या यह है की स्पीकर साहब खुद निर्णय नहीं लेते हैं और अपने से ऊपर की तरफ देखते हैं। 

अब संसद में स्पीकर से बड़ा कोई नहीं होता है। वहां प्रधानमंत्री और नेता प्रतिपक्ष के अधिकार भी एक सांसद के बराबर ही होते हैं। संसद भवन का पूरा क्षेत्राधिकार अंदर और बाहर लोकसभा अध्यक्ष के अंतर्गत आता है। ‌वहां सोमनाथ चटर्जी बलराम जाखड़ मावलंकर जैसे अध्यक्ष हुए जिनकी स्वतंत्र और निष्पक्ष प्रशासन की तारीफ उनके विरोधी भी करते हैं। 

मगर अब सभी संस्थान समर्पण कर चुके हैं। संसद का प्रशासन भी। ऐसे में आज नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने संसद भवन में मीडिया को पिंजरे में कैद करने की बात कह कर भगत सिंह के शब्दों में बहरों को भी सुनाने जैसा धमाका जैसा कर दिया।

संयोग ही है कि भगत सिंह ने भी इसके बगल वाले संसद भवन में ही धमाका किया था। बात लंबी हो रही है मगर इसके साथ अंत करते हैं कि उसे धमाके की खबर पत्रकार ने ही दुनिया को दी थी। पत्रकार दुर्गादास ने पहली स्टोरी यही संसद भवन से ब्रेक की थी। उस समय संसद सेन्ट्रल असेंबली कहलाती थी। और दुर्गादास न्यूज एजेंसी AP के लिए काम करते थे। बाद में हिंदुस्तान टाइम्स के एडिटर बने।

-शकील अख्तर

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