आपकी कलम

ब्राह्मण समाज के भीष्म पितामह विष्णु प्रसाद शुक्ला : बुझ गया दीपक.. रह गईं बातें

नितिनमोहन शर्मा
ब्राह्मण समाज के भीष्म पितामह विष्णु प्रसाद शुक्ला : बुझ गया दीपक.. रह गईं बातें
ब्राह्मण समाज के भीष्म पितामह विष्णु प्रसाद शुक्ला : बुझ गया दीपक.. रह गईं बातें

में जी भर जिया

मन से मरु...

लौटकर फिर आऊंगा

कूच से क्यो डरूँ...

यथा नाम-तथा गुण। विष्णु प्रसाद शुक्ला का जीवन भी कुल, समाज, संगठन और देश के लिए ही था। वे इसी के लिए जिये। इसी के लिए मरे। स्वयम के लिये नही, समग्र के लिये जिये। निर्भीक और निडर रहकर। हर चुनोतियो का सामना किया। विजय पाई। पराजय पर भी अविचलित रहे। कर्मपथ पर अंतिम समय तक सक्रिय रहे। फिर महाप्रयाण कर चले। उसी बैकुंठ की तरफ...जहा भगवान विष्णु का वास है। उसी विष्णु पथ पर निष्प्रह भाव से लौट गए..जहा से आगमन हुआ था। बेकुण्ठवासी।

लौ जनसंघ के जमाने में प्रज्वलित हुई 

वो दीपक बुझ गया जिसकी लौ जनसंघ के जमाने में प्रज्वलित हुई थी ओर जो आज तक दैदीप्यमान थी। इसी दीपक के उजास में पहले जनसंघ ओर फिर भाजपा ने अहिल्या नगरी में अपनी राजनीतिक यात्रा शुरू की। इस दीपक का प्रकाश ओर लो का तेज इतना था कि पार्टी और संगठन दोनो एक साथ ऊंचाई पाते गए। राह की हर विघ्न बाधा इस प्रज्वलित दीपक के सामने दूर हो गई। जहा कही भी अंधेरा नजर आता था...ये देदीप्यमान दीपक वहां जाकर अपना उजास बिखेर देता था। जिसकी रोशनी से बाधा खड़ी करने वालो की भी आंखे चुंधिया जाती थी और वे भाग खड़े होते थे। 

ये दीपक कभी टिमटिमाया नही। सदैव पूरी ऊर्जा के साथ रोशन रहा। लेकिन वक्त की आंधी के आगे किसकी चली। गुरुवार को के दीपक बुझ गया। बाती भी शांत हो गई। बस अब बाते ही शेष रह गई। विष्णुप्रसाद शुक्ला। बड़े भैया। बाबूजी। इसी नाम से ये दीपक आजीवन पूजित रहा।

वे ब्राह्मण समाज के भीष्म पितामह तो थे ही भाजपा के भी "बाबूजी" थे। जनसामान्य के लिए बड़े भैय्या थे तो आताताइयों के लिए " विष्णु बड़े" थे।उनकी मौजूदगी ही आत्मविश्वास का परिचायक थी। जनसंघ ओर भाजपा के मुफलिसी के दिनों के वे "भामाशाह" थे तो प्रतिपक्ष से मैदानी लड़ाई में वे "राणा प्रताप" थे। रिश्ता निभाने में वे "राम" थे तो राजनीति क्षेत्र के वे "कृष्ण" थे जिनकी कूटनीति ओर रणनीति के आगे दिग्विजयसिंह जैसे दिग्गज अपने ही गढ़ में परास्त हो गए। मित्रता में वे कृष्ण-सुदामा के पर्याय थे और मिसाल भी थे। किसी के लिये वे राम थे किसी के लिए बलराम थे।

"शिव" तो वो थे ही। तभी तो "अपनो" से मिले हलाहल को वे आजीवन पीते रहे। कभी बून्द बून्द तो कभी अंजुरीभर। कभी दल में हाशिये पर किये गए तो कभी पात्र होने के बाद भी दरकिनार किये गए। लेकिन कंठ में विष लिए "विष्णु" नीलकंठ बने रहे। उफ्फ तक नही की। 

हद तो तब हुई जब उन्हें उनके ही दल से बेदखल कर दिया गया। और वो भी तुच्छ राजनीति के कारण। 2008 का विधनासभा चुनाव था वो। बेटे संजय शुक्ला का पहला चुनाव। कांग्रेस से बेटा चुनाव लडा। भाजपा के भीष्म पितामह के सामने धर्म संकट। पुत्र मोह प्रदर्शित करे या उस पार्टी का साथ दे जिसे उन्होंने अपने मित्रों के साथ खड़ा किया था। जैसे पितामह भीष्म आजीवन हस्तिनापुर के साथ खड़े रहे, वैसे ही बड़े भैय्या ने पार्टी के साथ ही डटे रहे। 

लेकिन उनके ही दल से चुनाव लड़ने वाले नेता ने ऐसा षड़यंत्र रचा की बाबूजी पार्टी से निष्कासित कर दिए गए। नवम्बर 2008 की वो रात जीवनभर विष पीने वाले विष्णुप्रसाद शुक्ला के लिये कभी न भुलाने वाली रात हो गई। उनके खिलाफ बेहद ही आपत्तिजनक विज्ञापन भी अखबारों में उनके ही दल के नेता ने प्रकाशित करवाया। बावजूद इसके वे पार्टी से नाराज नही हुए। उनका समर्पण ही ऐसा था कि सम्बंधित नेता का षड़यंत्र विफल हो गया और भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने 24 घण्टे के अंदर ही उनका निष्कासन वापस ले लिया। लेकिन ये टीस उनके जेहन में अंतिम समय तक रही कि जिस दल के लिए सर्वस्व समर्पित किया, उसने अंतिम समय में लांछन लगाया। 

बड़े भैय्या... ये नाम इंदौर शहर की पहचान के साथ ऐसा चस्पा हुआ कि बाबूजी के अलावा कोई "बड़े" इस शहर तो दूर...अंचल में नही हुआ। बड़े भैय्या ऐसा नाम था कि प्रदेशभर में पहचाना जाता था। वे भाजपा के ही नही, बल्कि इस शहर के भी असली बड़े भैय्या थे। जिसकी कही कोई सुनवाई नही, वो बड़े भैय्या के पास चला जाता और उसका काम हो जाता। साहस और वीरता के साथ उनमें मानवीयता भी कूट कूट कर भरी थी। सर्वहारा वर्ग के प्रति उनका प्रेम आजीवन रहा और वे उम्र के अंतिम पड़ाव में इसी वर्ग के लिए फिक्रमंद रहा करते थे। 

ब्राह्मण समाज के तो वे पितामह थे जिन्होंने शहर में विप्रवर्ग का संगठन खड़ा किया। आजीवन वे कान्यकुब्ज ब्राह्मण समाज के मुखिया रहे और समाज के लिए स्कूल कॉलेज रोजगार से लेकर शादी ब्याह तक वे स्वयम करवाते थे। वे सही मायने में समाज के बाबूजी थे और माँ बहनों के बड़े भैय्या।

बडे भैय्या सत्यनारायण सत्तन ओर प्रकाश सोनकर। ये तिकड़ी भाजपा ही नही शहर की जान थी। बड़े भैया के कारण ही आज विधनासभा 2 भाजपाई गढ़ बनी हुई है। वे भले ही 1990 का चुनाव सुरेश सेठ के सामने हार गए लेकिन पार्टी के लिए इस श्रमिक क्षेत्र में ऐसी जमीन तैयार कर गए कि जिसकी फसल भाजपा आज भी बड़ी दम्भोक्ति के साथ काट रही है। ऐसे ही उन्होंने सांवेर जैसी लम्बी चोंडी ओर उलझी हुई सीट को भी अपने श्रम और पसीने से सींचा जहा आज भी कमल खिला हुआ है। राजनीतिक सुख उनके नसीब में नही था लेकिन उन्होंने अपनी सदारत में भाजपा के कई नेताओं के नसीब संवार दिए। प्रदेश के दिग्गज नेता कैलाश विजयवर्गीय भी उनमें से एक है। ये फेहरिस्त बहुत लंबी है। 

लेकिन स्वयम की जब भी बारी आई, भाजपा में उस वक्त के ताकतवर गुट ने हर बार उनकी राह रोक ली या रास्ते में काटे बिछा दिए। बावजूद इसके प्यारेलाल खंडेलवाल, राजेंद्र धारकर ओर नारायण राव धर्म के मार्गदर्शन में दोस्तो की इस तिकड़ी ने अपने परिश्रम, पुरुषार्थ ओर पराक्रम से पार्टी का काम, नाम और धाक सब तरफ जमा दी। इस मित्रता में एक नाम फूलचंद वर्मा और खुरासान पठान का भी था। पठान ओर शुक्ला की मित्रता तो ऐसी रही कि मांगलिक पत्रिकाओं में भी एक दूसरे के नाम रहते है। पठान के यहां निकाह में शुक्ला दर्शनाभिलाषी ओर स्वागतातुर तो शुक्ला के यहां विवाह में पठान परिवार इसी भूमिका में। सत्तन गुरु ओर बड़े भैय्या की मित्रता तो आजीवन ऐसी रही कि जब भी दोनो मिलते तो ऐसा लगता जैसे दो अल्हड़ नोजवान आपस मे मिल रहे हो। उम्र का कोई पेंच दोनो के बीच कभी रहा ही नही। कांग्रेस नेता कृपाशंकर शुक्ला, महेश जोशी से भी उनकी मित्रता प्रगाढ़ थी। वे राजनीति के एक तरह से अजातशत्रु हो गए थे। उन्हें इस बात से कभी फर्क नही पड़ा कि उनके ही दल के कुछ लोग निजी स्वार्थों के चलते उनके साथ शत्रुवत व्यवहार करते रहे। 

खेर.. बड़े भैय्या की अब केवल बड़ी बड़ी बातें ही अजीवन चलना है। परिवार के लिए बैलगाड़ी से शुरू कर हेलीकॉप्टर तक एम्पायर खड़ा करने वाले बड़े भैय्या हमारे बीच मौजूद नही रहेंगे लेकिन उनकी जिजीविषा ओर जीवटता शुक्ला परिवार को जीवनपथ पर सदैव संबल देती रहे। ऐसी प्रभु गोवर्थनधर के श्रीचरणों में करबद्ध प्रार्थना के साथ बड़े भैय्या को खुलासा फर्स्ट परिवार की तरफ अश्रुपूरित श्रद्धांजलि।

नितिनमोहन शर्मा...✍️

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