धर्मशास्त्र
श्रीनाथजी कों अरोगाई ता समें श्री आचार्य जी श्रीनाथजी द्वार हते
paliwalwani
रामानंद पंडित:
'पाछे श्री आचार्य जी पृथ्वी परिक्रमा कों पधारे। इहां श्री आचार्य जी के तिरस्कार सों रामानंद विकल होइ गए। जहां तहां बजार में खान-पान करे। मर्यादा सब छूटि गई। परंतु इतनी मर्यादा रही जो कछु खान पान करे सो पहिलें यह कहै, श्री गोवर्धन नाथ जी अरोगियो।
या प्रकार समर्पन करि के खाई। सो एक दिन रामानंद बाजार में चल्यो जात हतो, सो एक हलवाई जलेबी करत हतो।सो ताजी देखके रामानंद ने मोल ले उही बाजार में कह्यो, श्रीगोवर्धन नाथ जी अरोगियों।
या प्रकार समर्पण करि जलेबी खाई।सो जा समें रामानंद नें जलेबी श्रीनाथजी कों अरोगाई ता समें श्री आचार्य जी श्रीनाथजी द्वार हते।श्रीनाथजी कों राजभोग आयो हतो। सो समें भये श्री आचार्य जी भोग सराइवे कों मंदिर में पधारे। तब आचमन मुख वस्त्र कराये। तब श्रीनाथजी के मुखारविंद में जलेबी को टूक देखि श्री आचार्य जी श्रीनाथजी सों कहें जो आज कछु उत्सव तो नाहीं है। जलेबी कैसे अरोगे?
तब श्रीनाथजी ने कही जो -तिहारे सेवक ने मोकों जलेबी अरोगाई है।तब श्री आचार्य जी ने कही जो- कौन से वैष्णव ने जलेबी अरोगाई है?
तब श्रीनाथजी ने कही ,रामानंद पंडित थानेश्वर गाम के ने अरोगाई है ,सो मैं अरोग्यो हूं।
तब श्री आचार्य जी कही जो- मैं तो वाको त्याग कर्यो है, तुम वाकी समर्पि कैसे अरोगे?
तब श्रीनाथजी ने कही, मैं तुमकों वचन दियो है, जा कों तुम ब्रह्म संबंध करावोगे ताको मैं कबहू न छोडूंगो। तातें तुम त्याग करो परंतु तुमने पहले मोकों समर्प्यो हो सो कैसे छोड़ूं ?तब श्री आचार्य जी चुप ह्वै रहे।'
रामानंद पंडित तमचर हैं मगर साधारण तमचर नहीं, निकुंज के तमचर हैं जहां सब भगवद्स्वरुप है। श्रीकृष्ण स्वयं अपने परिकर एवं लीला सामग्री के रूप में प्रकट हैं अतः सब कुछ अलौकिक है,सब चिन्मय है।
लीला ऐसी कि वहां जो लीला का जीव है उसे भगवद् इच्छा से भूतल पर आना पड़ता है।
भूतल पर आये दैवी जीवों के उद्धार हेतु स्वयं श्रीकृष्ण ने ब्रह्मसंबंध की व्यवस्था प्रकट की।
इसमें सब कृष्ण को अर्पण करके जीव अंत में स्वीकार करता है-
मैं दास हूं,हे कृष्ण मैं आपका हूं।'
यह हृदय से कृष्ण का होना है। कृष्ण उसे कैसे छोड सकते हैं?
कोई मन से किसी का हो सकता है। अच्छा लगा,पसंद आया,मन से उसके हो गये।मन तो मन है। कभी मन की बात न हुई तो मन के उखडते देर नहीं लगती।
लेकिन हृदय से कोई किसीका हो तो चाहे जितने विघ्न आयें, नाराजगी हो फिर भी संबंध कभी टूटता नहीं।संबंध आधारभूत रुप में बना ही रहता है।
पंचाक्षर जप भले ही जीभ से कर लेते हैं वस्तुत:यह हृदय से होना चाहिए कि मैं आपका हूं।
किसी भी जीव से पूछें-तू किसका है?
तो वह कहेगा-मैं मेरा हूं।
पुष्टि मार्ग में हरि गुरु वैष्णव तीनों एक रुप हैं इसलिए कृष्ण से तो कह ही सकते हैं कि मैं आपका हूं पर गुरु तथा वैष्णव से भी कह सकते हैं -मैं आपका हूं।
यह मनोभाव मात्र नहीं है इसकी गहराई में हृदय ही जुडा हुआ है।
संबंध इसीको कहते हैं।
एक घर में रहने पर भी रोज के झगडे तथा परायापन हो तो उसे संबंध नहीं कहा जा सकता।
यह सम रुप से एक दूसरे से बंधना है।
सम का मतलब दोनों हृदय में हैं।
संबंध हार्दिक है।
गुरु को चाहे कितना ही महिमा मंडित किया जाय मगर गुरु, वैष्णव से प्रेम से,हृदय से जुडे होते हैं।उनकी दृष्टि में अनुग्रह पूर्ण कोमलता होती है,न कि बड़े होने का गुमान।
वैष्णव को भाव रहता है कि गुरु बड़े हैं पर गुरु को यह भाव नहीं होता कि वैष्णव छोटे हैं।वे तो उनके हृदय के टुकड़े हैं।
जहां जहां वैष्णव व गुरु का ऐसा गहरा प्रेम है वहां पुष्टि मार्ग जीवंत समझना चाहिए।
गुरु, वैष्णव की तरह वैष्णव वैष्णव का प्रेम भी हार्दिक है।
संसारी जीवों में अप्रेम,अनबन की घटना घट सकती है, वैष्णवों में घटे तो इसे उचित नहीं कहा जा सकता। कदाचित ऐसा कुछ हो भी तब भी वह स्थायी नहीं होना चाहिए।भीतर यह ज्ञात रहना जरूरी है कि वैष्णव का स्वरूप क्या है!
वैष्णव नहीं है तो फिर ठीक है।उसके लिए कोई नियम नहीं।
रामानंद में कुछ विचित्र ता है।
वे श्रीनाथजी के भक्त हैं इसमें कोई संशय नहीं इसलिए माना जा सकता है कि पूर्वसंस्कार वश उनके मुख से निकल गया होगा कि जल्दी गोबर बटोर ले, नहीं तो वैष्णव ले जायेंगे।
कभी-कभी न चाहने पर भी मुख से कोई बात निकल जाती है तो बखेडा हो जाता है।क्षमा मांगने पर भी छोडा नहीं जाता,हठ पकड ली जाती है कि ऐसा बोला ही क्यों?
हो सकता है बोलने वाले के मन में ऐसा कोई भाव न हो। मुंह से निकल गया तो आगे के लिए ध्यान रखे बिना विचारे न बोले।
जबान पर पहरेदार बिठा दो।
सबसे बढ़िया तो सतत श्रीकृष्ण:शरणं मम का उच्चारण है जैसी वल्लभ आज्ञा है। दूसरे कोई विचार आवें ही नहीं।सतत अष्टाक्षर।
एक संत मन से मौन हो गये थे।एक व्यक्ति के पास मन पढ़ने की सिद्धि थी। उसने संत का मन पढ़ने की चेष्टा की तो थोड़ी देर में आश्चर्यचकित होकर उसने कहा-अरे,ये तो कुछ भी नहीं सोच रहे हैं।इनका मन सर्वथा मौन है।
ऐसा व्यक्ति वल्लभ आज्ञा का पालन करने वाले वैष्णव का मन पढेगा तो वहां भी आश्चर्यचकित होगा क्यों कि वहां सिवाय अष्टाक्षर के -श्रीकृष्ण: शरणं मम के और कुछ भी नहीं है।
सतत बोलने के प्रयास से थकान लगती है तो शरण में तो रहा ही जा सकता है। शरणागति का भाव लगातार बना रहे तो यह अष्टाक्षर का फल ही समझना चाहिए।
वल्लभ ने रामानंद को जल छिड़ककर त्यागा यह बहुत बडी बात है।किसीको किसीसे बहुत प्रेम हो और वह बोलना छोड दे तो भी आशा बनी रहती है कि फिर मिलेंगे, फिर बोलेंगे।
लेकिन जल छिड़ककर त्याग दे तो यह तो स्थायी हो गया। रामानंद तो पागल जैसे हो गये। होंगे ही। फिर भी हृदय का एक तार जुडा हुआ था।चाहे जब जहां कुछ भी खाने लगे,अपरस, पवित्रता,भोजन मर्यादा छूट गयी लेकिन जो भी खाते पहले समर्पित करते -श्रीगोवर्धननाथजी अरोगियो।'
गोवर्धन नाथ जी भी गोवर्धन नाथ जी हैं।यह संशय मिटा दिया कि कोई बाजार की वस्तु उन्हें अरोगाये तो वे अरोगते हैं या नहीं?
रामानंद तो संकट में आ गये थे।हालत विक्षिप्त हो गयी थी,करे तो करे क्या,तो यही सही।जो भी खाय पहले श्रीनाथजी को अरोगादे। श्रीनाथजी भी अरोगते।ऐसा नहीं कि मैं तो यह नहीं अरोगूंगा। अपरस में रहकर शुद्धता से रसोई कर।'
रामानंद को तो जोरदार चोट पडी थी।पूरी मानसिकता छिन्न-भिन्न हो गयी।हृदय का एक कोना जरुर सुरक्षित था कि
हे श्रीजी बावा अरोगियो।
भगवान इस प्रेम की,इस भावसंबंध की पराकाष्ठा को समझते हैं।वे नहीं समझेंगे तो और कौन समझेगा?
इसलिए श्रीनाथजी ने महाप्रभु जी से कहा-
'मैं तुमकों वचन दियो है जाकों तुम ब्रह्मसंबंध करावोगे ताको मैं कबहू न छोडूंगो।तातें तुम त्याग करो परंतु तुमने पहले मोकों समर्प्यो हो सो कैसे छोड़ूं?'
इसका मतलब जिन्होंने भी ब्रह्मसंबंध लिया है उन्हें निर्भय हो जाना चाहिए कि अब किसी भी हालत में श्रीनाथजी छोड़ने वाले नहीं हैं।एक बार हाथ पकडा सो पकडा।अब तो निकुंज में लेकर ही छूटेगा ताकि जीव कृष्ण सेवा करने के लिए स्वतंत्र हो।
ऐसा भी नहीं कि निर्भय हो गये तो अब जो जी में आये करेंगे बल्कि तब तो और ज्यादा बल अनुभव होना चाहिए सेवासत्संगस्मरण के लिए।
विवेकधैर्याश्रय का पालन करने में कठिनाई लगती है किंतु श्रीकृष्ण ने हाथ पकड रखा है यह पता है तो क्या कठिनाई है?
किसीने अपमान किया, अपशब्द कहे तो क्रोध, उत्तेजना से भरने से पहले अपने हाथ पकडे वचन से बंधे कृष्ण के हाथ देख लेने चाहिएं।
बड़े अद्भूत हाथ हैं मधुराष्टक में कहा है-पाणिर्मधुर: कृष्ण के हाथ मधुर हैं।चरण भी मधुर हैं। जहां भक्त पहुंचता है चरण भी वहां पहुंच जाते हैं ताकि हाथ उसे थाम सकें।ये हाथ गुरु छोड दें तब भी पकड़े रहते हैं।
इससे गुरुकृपा और भगवद् कृपा में भेद मालूम होता है। वस्तुत:ऐसा है नहीं क्योंकि वल्लभ द्वारा त्यागे जाने का परिणाम अनेक दृष्टि से प्रेरणादायक है तथा शुभ है। वास्तव में त्यागा था नहीं। कृष्ण और कृष्ण के परिजनों में स्थायी वियोग असंभव है। कोई तो रास्ता निकालना ही पडता है।
आगे प्रसंग आयेगा,महाप्रभुजी कहेंगे-आज पाछे जो वैष्णव को अपराध न करेगो तो लक्ष जन्म में अंगीकार करुंगो।'
रामानंद तो बिल्कुल बदल ही गये साथ ही अखिल वैष्णव सृष्टि को यह संदेश भी मिला कि वैष्णव अपराध कभी करना नहीं।
ये जो छुटपुट बातें हो जाती हैं,थोडी बहुत नाराजगी हो जाती है इससे भी सावधान रहना चाहिए। कोई वैष्णव नाराज हो तो उसकी मर्जी,स्वयं सदा सद्भाव से पूर्ण तथा प्रसन्न ही रहे।
क्रमशः
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"आज की बानिक कही न जाय बैठे निकस कुंजद्वार।
लटपटी पाग सिर सिथिल चिहुर खसित वरुहाचंदरस भरे व्रजराजकुमार।।
श्रमजल बिंदु कपोल विराजत मानों ओस कण नीलकमलपर।
गोविंद प्रभु लाडिलो ललन वर कहा कहो अंग अंग सुंदरवर।।"
श्रीगोवर्धन नाथ की जय।
श्रीनाथजी द्वार।