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दुनिया के सबसे बड़े दानदाता ने वसीयत में लिखवाया था मेरे क्रियाकर्म पर दो हजार रुपए से ज्यादा खर्च मत करना

Paliwalwani
दुनिया के सबसे बड़े दानदाता ने वसीयत में लिखवाया था मेरे क्रियाकर्म पर दो हजार रुपए से ज्यादा खर्च मत करना
दुनिया के सबसे बड़े दानदाता ने वसीयत में लिखवाया था मेरे क्रियाकर्म पर दो हजार रुपए से ज्यादा खर्च मत करना

सन 1896 में बॉम्बे (मुंबई) के तत्कालीन गवर्नर को लिखे एक पत्र में जमशेदजी नुसीरवानजी टाटा कहते हैं- ‘पर्याप्त धन कमाने के बाद अब उनकी इच्छा देश के जरूरतमंद लोगों की मदद करने की है. कृषि प्रधान देश भारत को औद्योगिक आधार की जरूरत है.’ जमशेदजी ने जीवन में चार सपने देखे थे. पहला विज्ञान, कला और उद्योग के लिए यूनिवर्सिटी ऑफ एडवांस रिसर्च की स्थापना. यही 1909 में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस बना. इसकेे लिए उन्होंने पूरी कमाई का एक तिहाई हिस्सा और 30 लाख रुपए भी दान किए. जमशेदजी ने ही देश में पोस्टग्रैजुएट यूनिवर्सिटी बनाने की सिफारिश की थी.

स्टील इंफ्रास्ट्रक्चर और हाइड्रो-इलेक्ट्रिक पावर का ढांचा खड़ा करना अगला सपना था. इसकी दम पर वह देश को औद्योगिक रूप से मजबूत बनाना चाहते थे. उनका चौथा सपना एशिया का सबसे बड़ा होटल ताजमहल पैलेस बनाना था. उनके निधन से पांच महीने पहले ही इसका उद्घाटन हुआ. जमशेदजी, नुसीरवानजी के इकलौते पुत्र थे. परिवार में पुश्तों से पारसी प्रीस्टहुड(नावर) का चलन था. लेकिन नुसीरवानजी ने व्यापार का रास्ता चुना. जमशेदजी भी पिता की राह पर चले. इंग्लैंड से पढ़ाई पूरी करने के बाद पिता के साथ काम में जुट गए. 1857 में हांगकांग जाकर जमशेदजी एंड आर्देशिर नाम से फर्म बनाई.

1868 में 21 हजार रुपए की पूंजी के साथ टाटा समूह की शुरुआत की. इसके बाद इंग्लैंड गए तो वहां टैक्सटाइल बिजनेस का काम देखा. बाद में खुुद शुरुआत की. चिंचपोकली में बंद पड़ी मिलों को कॉटन मिल में तब्दील कर दिया. इसके दो साल बाद मुनाफे के साथ बेच दिया. 1874 में उन्होंने 1.5 लाख रुपए की पूंजी से सेंट्रल इंडिया स्पिनिंग कंपनी बनाई. यही उनकी संपत्ति का आधार रही.

महादानी जमशेदजी : देश का शीर्ष संस्थान आईआईएससी इनकी देन दुनिया में सदी के सबसे बड़े दानदाता घोषित हुए हैं. मौजूदा समय के हिसाब से 7.60 लाख करोड़ रुपए का दान करके हुरुन रिसर्च-एडेलगिव फाउंडेशन की सूची में शीर्ष पर हैं. क्लीन एनर्जी के पैरोकार रहे, स्टील में उन्हें भविष्य दिखता था. बॉम्बे में चिमनियों से निकलता धुंआ जमशेदजी को परेशान करता था. कई वीकेंड वह ताजी हवा लेने के लिए बॉम्बे से बाहर निकल जाते. वे चाहते थे कि ऊर्जा के विकल्प खोजे जाएं. अपनी कपड़ा मिल के लिए नई मशीनरी लेने इंग्लैंड गए जमशेदजी ने वहां थॉमस कार्लाइल का एक भाषण सुना. इसमें कार्लाइल ने कहा था- ‘जिस देश के पास स्टील होगा, उसके पास सोना होगा.’ स्टील ही उनका ध्येय बन गया. उसके बाद उन्होंने बेटे को हिदायत दी कि फैक्ट्री लगाने के साथ-साथ वे शहर को भी विकसित करें, सड़कें बड़ी हों, खेलने के लिए मैदान हों, प्रार्थना-घर बनवाए जाएं. टाटा स्टील खड़ा करने का उनका ये सपना उनकी मृत्यु के तीन साल बाद (1907) पूरा हुआ.

●  दानवीरता की कहानियां : जब वसीयत में संपत्ति का एक तिहाई हिस्सा यूनिवर्सिटी के नाम कर दिया, निजी सहायकों का भी ख्याल रखा.

 ‘पारसी प्रकाश’ में पारसी समुदाय की 1860 से 1950 तक की जरूरी गतिविधियां संकलित हैं. इसके मुताबिक जमशेदजी ने जरूरत पड़ने पर हमेशा मदद की. स्कूली शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा, अस्पताल, सूरत में बाढ़ प्रभावित इलाकों में राहत सामग्री पहुंचाई. 1883 में इटली में आए भूकंप में लोगों की मदद की. प्रसूतिका ग्रह खोलने के लिए भी दान किया. 

●  लंदन में नए हॉस्पिटल शुरू करने और वहां भारत के लिए महिला डॉक्टर्स को प्रशिक्षित करने के लिए उन्होंने 1889 में 100 पाउंड्स स्टर्लिंग दान किए.

●  1898 में ब्यूबोनिक प्लेग ने बॉम्बे में कई लोगों की जान ले ली थी. जब प्लेग फैला तो इस पर अध्ययन करने के लिए उन्होंने अपनी पूरी ताकत लगा दी. इस पर अध्ययन कर रहे, रूसी डॉक्टर वॉल्देमेर हैफकीन की उन्होंने हरसंभव मदद की.

 1892 में जेएन टाटा दान योजना की शुरुआत की. इसके जरिए भारतीय छात्रों को इंग्लैंड में पढ़ने के लिए छात्रवृत्ति दी जाती थी.

●  पारसी प्रकाश के अनुसार 4 मार्च 1904 को उनका आखिरी दान दर्ज है. उन्होंने टाटा कंपनी से तीन हजार व जेब से दो हजार रु. रूसी-जापानी युद्ध में मारे गए सैनिकों की विधवाओं व बच्चों के लिए दान किए.

 दिसंबर 1896 में दर्ज अपनी वसीयत के 14वें बिंदु पर उन्होंने लिखवाया- संपत्ति के बंटवारे के बाद बची शेष संपत्ति का एक तिहाई हिस्सा अपने बड़े बेटे दोराब जमशेदजी और एक तिहाई रुतोनजी को दिया जाए. बाकी एक तिहाई यूनिवर्सिटी को जाएगा. इसके अलावा यूनिवर्सिटी के लिए अलग से 30 लाख रुपए की घोषणा की. वसीयत में लिखा कि मेरे मरने के बाद क्रियाकर्म पर दो हजार रुपए से ज्यादा खर्च नहीं होने चाहिए. साथ ही निजी सहायकों को लगातार पगार देते रहने का भी जिक्र किया.

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