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आमेट : चिंतन, स्मृति और कल्पना का माध्यम है भाषा : 22 वें दीक्षांत समारोह का हुआ शुभारंभ

Mubarik ajnabi
आमेट : चिंतन, स्मृति और कल्पना का माध्यम है भाषा :  22 वें दीक्षांत समारोह का हुआ शुभारंभ
आमेट : चिंतन, स्मृति और कल्पना का माध्यम है भाषा : 22 वें दीक्षांत समारोह का हुआ शुभारंभ

लावासरदारगढ़ : (Mubarik ajnabi) छापर की धरा पर भगवती सूत्र के आधार पर अपनी अमृतवाणी से ज्ञानगंगा प्रवाहित कर रहे जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अनुशास्ता, अध्यात्म जगत के महासूर्य युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने शनिवार को भगवती सूत्र के दूसरे सूत्र को व्याख्यायित किया। वहीं कालूयशोविलास के माध्यम से छापर की पुरातनता को वर्णित किया। आचार्यश्री की प्रेरणा और छापर के इतिहास को जानकर छापरवासी हर्षविभोर नजर आ रहे थे। कार्यक्रम में जैन विश्व भारती के समण संस्कृति संकाय के 22 वें दीक्षांत समारोह का शुभारम्भ भी हुआ।

चतुर्मास प्रवास स्थल परिसर में बने प्रवचन पंडाल में उपस्थित श्रद्धालुओं को तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें आचार्यश्री महाश्रमणजी ने भगवती सूत्र के दूसरे सूत्र को व्याख्यायित करते हुए कहा कि इसमें ब्राह्मी लिपि को नमस्कार किया गया है। प्रश्न हो सकता है कि लिपि किसे कहते हैं? इसका उत्तर है अक्षरों के विन्यास को लिपि कहते हैं। नंदी सूत्र में अक्षर के तीन प्रकार बताए गए हैं-संज्ञाक्षर, व्यंजनाक्षर व लभ्यक्षर। पट्ट पर, शिला, पत्रिका पर अक्षर लिखना संज्ञाक्षर है। 

मनुष्य के चिंतन, स्मृति और कल्पना का माध्यम है भाषा। भाषा अक्षरात्मक होती है। भाषा से ज्ञान होता है। भाषा ज्ञान का सशक्त माध्यम है। बोलने से, सुनने से जिन अक्षरों का ज्ञान होता है, वह लभ्यक्षर होता है। बोलने से पहले अक्षरों को जानना व्यंजनाक्षर हो जाता है। बोलना व्यंजनाक्षर, लिख देना संज्ञाक्षर और सुनकर जानना लभ्यक्षर होता है। जैन शास्त्र के प्रागैतिहासिक इतिहासके अनुसार भगवान ऋषभ ने अपनी पुत्री ब्राह्मी को लिपि का बोध कराया। इसी कारण ब्राह्मी लिपि का नामकरण हुआ। जैन आगमों की मूल भाषा प्राकृत अथवा अर्धमागधी है, जो मूलतः ब्राह्मी लिपि है। इसलिए भगवती सूत्र के दूसरे सूत्र में ब्राह्मी लिपि को नमस्कार किया गया है। लिपि ज्ञान का ऐसा सशक्त माध्यम है। आदमी चाहे तो किसी को बोलकर बुलाए अथवा उसे लिखकर भी बुला सकता है। लिपि के माध्यम से ज्ञान का सम्मान किया जाता है। सरदारशहर के एक पुराने संत रोशनलालजी स्वामी को आचार्यश्री से स्मरण करते हुए कहा कि वे कुछ भी लिखने से पहले लिपि को नमस्कार करते थे।

एक प्रश्न और हो सकता है कि लिपि तो अचेतन है,निर्जीव है तो भला उसे कोई चारित्रात्मा नमस्कार कैसे कर सकती है? इसका समाधान इस प्रकार दिया गया कि लिपि के दो प्रकार द्रव्य लिपि और भाव लिपि। अक्षर रूपी लिपि द्रव्य लिपि और अक्षर समझने के लिए भाव लिपि। चूंकि इस लिपि का प्रारम्भ भगवान ऋषभ द्वारा किया गया तो लिपि के माध्यम से भगवान ऋषभ को नमस्कार किया जाता है। यदि लिपि आधारित ग्रन्थ नहीं लिखे जाते तो आज ज्ञान प्राप्ति में कितनी मुश्किल हो सकती थी। अक्षरों की लिखावट अच्छी हो तो वह अच्छी बात होती है। आचार्यश्री ने कालूयशोविलास के माध्यम से छापर के इतिहास का वर्णन करते हुए कहा कि छापर के दक्षिण में विस्तारित समतल भूमि जो काले हिरण की उपलब्धता के विख्यात था। कभी यहां नमक का उत्पादन भी किया जाता था।

एक ओर पहाड़ थे तो दूसरी ओर रेतिले टिले भी थे। इस प्रकार यहां समतल भूमि, पहाड़ और रेतिला टिला- तीनों का योग था। महाभारत के काल में धृतराष्ट्र ने यह भूमि गुरु द्रोणाचार्य को दान में दी थी। कालांतर में इस पर अनेक वंश के राजाओं ने अपना अधिकार स्थापित किया। यहां ओसवाल जाति में साह बुधमलसिंह चोपड़ा कोठारी परिवार के मूलचंदजी थे और उनकी पत्नी का नाम छोंगा जी था। वे छापर में सुखी जीवन जी रहे थे, किन्तु पुत्र की कमी थी। एक रात छोगांजी को स्वप्न में एक बालक दिखा। आचार्यश्री ने इन रोचक प्रसंगों को राजस्थानी भाषा में व्याख्यायित किया तो इन पर आधारित पद्यों को मुख्यमुनिश्री आदि संतों ने सस्वर गाया। इस प्रकार की व्याख्या को सुनकर श्रद्धालु भावविभोर नजर आ रहे थे। 

कार्यक्रम में जैन विश्व भारती के समण संस्कृति संकाय के 22वें दीक्षा समारोह का शुभारम्भ हुआ। इस संदर्भ में जैन विश्व भारती के पदाधिकारियों द्वारा उवासगदसाओ पर आधारित 14वीं आगम मंथन प्रतियोगिता की प्रश्न पुस्तिका को पूज्यचरणों में लोकार्पित किया गया। आचार्यश्री ने इस संदर्भ में पावन आशीर्वाद प्रदान किया। समण संस्कृति संकाय के विभागाध्यक्ष श्री मालवचंद बैंगाणी तथा जैन विश्व भारती के अध्यक्ष श्री मनोज लूणिया ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। जैन विश्व भारती के आध्यात्मिक पर्यवेक्षक मुनि कीर्तिकुमारजी का भी उद्बोधन हुआ।

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