धर्मशास्त्र
शिव महिम्न स्रोत : श्रावण मास विशेष
Paliwalwaniश्रावण मास के विशेष संयोग पर भगवान शिव को पुष्पदंत द्वारा रचित शिव महिम्न स्तोत्र से सरलता से प्रसन्न किया जा सकता है। श्रावण का महीना शिव का प्रिय मास है अत: भोलेनाथ शंकर की सादगी का वर्णन करने से शिव प्रसन्न होते हैं।
शिव के इस महिम्न स्तोत्रम् में शिव के दिव्य स्वरूप एवं उनकी सादगी का वर्णन है। इस महिम्न स्तोत्र के पीछे अनूठी और सुंदर कथा प्रचलित है।
प्रस्तुत है कथा :- एक समय में चित्ररथ नाम का राजा था। वो परम शिव भक्त था। उसने एक अद्भुत सुंदर बाग का निर्माण करवाया। जिसमें विभिन्न प्रकार के पुष्प लगे थे। प्रत्येक दिन राजा उन पुष्पों से शिव जी की पूजा करते थे।
फिर एक दिन… :- पुष्पदंत नामक गन्धर्व उस राजा के उद्यान की तरफ से जा रहे थे। उद्यान की सुंदरता ने उसे आकृष्ट कर लिया। मोहित पुष्पदंत ने बाग के पुष्पों को चुरा लिया। अगले दिन चित्ररथ को पूजा हेतु पुष्प प्राप्त नहीं हुए।
फिर क्या हुआ :- बाग के सौंदर्य से मुग्ध पुष्पदंत प्रत्येक दिन पुष्प की चोरी करने लगा। इस रहस्य को सुलझाने के राजा के प्रत्येक प्रयास विफल रहे। पुष्पदंत अपनी दिव्य शक्तियों के कारण अदृश्य बना रहे।
राजा ने निकाला समाधान :- राजा चित्ररथ ने एक अनोखा समाधान निकाला। उन्होंने शिव को अर्पित पुष्प एवं विल्व पत्र बाग में बिछा दिया। राजा के उपाय से अनजान पुष्पदंत ने उन पुष्पों को अपने पैरो से कुचल दिया। इससे पुष्पदंत की दिव्य शक्तिओं का क्षय हो गया।
पुष्पदंत स्वयं भी शिव भक्त था। अपनी गलती का बोध होने पर उसने इस परम स्तोत्र के रचना की जिससे प्रसन्न हो महादेव ने उसकी भूल को क्षमा कर पुष्पदंत के दिव्य स्वरूप को पुनः प्रदान किया।
शिव महिमा स्तोत्र –
महिम्नः पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी।
स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः।।
अथाऽवाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावधि गृणन्।
ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः।। १।।
अतीतः पंथानं तव च महिमा वांमनसयोः।
अतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि।।
स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः।
पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः।। २।।
मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवतः।
तव ब्रह्मन् किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम्।।
मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः।
पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता।। ३।।
तवैश्वर्यं यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत्।
त्रयीवस्तु व्यस्तं तिस्रुषु गुणभिन्नासु तनुषु।।
अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं।
विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः।। ४।।
किमीहः किंकायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं।
किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च।।
अतर्क्यैश्वर्ये त्वय्यनवसर दुःस्थो हतधियः।
कुतर्कोऽयं कांश्चित् मुखरयति मोहाय जगतः।। ५।।
अजन्मानो लोकाः किमवयववन्तोऽपि जगतां।
अधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति।।
अनीशो वा कुर्याद् भुवनजनने कः परिकरो।
यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे।। ६।।
त्रयी सांख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति।
प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च।।
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिल नानापथजुषां।
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव।। ७।।
महोक्षः खट्वांगं परशुरजिनं भस्म फणिनः।
कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम्।।
सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु भवद्भूप्रणिहितां।
न हि स्वात्मारामं विष यमृगतृष्णा भ्रमयति।। ८।।
ध्रुवं कश्चित् सर्वं सकलमपरस्त्वध्रुवमिदं।
परो ध्रौव्याऽध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये।।
समस्तेऽप्येतस्मिन् पुरमथन तैर्विस्मित इव।
स्तुवन् जिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता।। ९।।
तवैश्वर्यं यत्नाद् यदुपरि विरिंचिर्हरिरधः।
परिच्छेतुं यातावनिलमनलस्कन्धवपुषः।।
ततो भक्तिश्रद्धा-भरगुरु-गृणद्भ्यां गिरिश यत्।
स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति।। १०।।
अयत्नादापाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं।
दशास्यो यद्बाहूनभृत-रणकण्डू-परवशान्।।
शिरःपद्मश्रेणी-रचितचरणाम्भोरुह-बलेः।
स्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम्।। ११।।
अमुष्य त्वत्सेवा-समधिगतसारं भुजवनं।
बलात् कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः।।
अलभ्यापातालेऽप्यलसचलितांगुष्ठशिरसि।
प्रतिष्ठा त्वय्यासीद् ध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः।। १२।।
यदृद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सतीं।
अधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयत्रिभुवनः।।
न तच्चित्रं तस्मिन् वरिवसितरि त्वच्चरणयोः।
न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः।। १३।।
अकाण्ड-ब्रह्माण्ड-क्षयचकित-देवासुरकृपा-
विधेयस्याऽऽसीद् यस्त्रिनयन विषं संहृतवतः।।
स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो।
विकारोऽपि श्लाघ्यो भुवन-भय-भंग-व्यसनिनः।। १४।।
असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे।
निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः।।
स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत्।
स्मरः स्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु पथ्यः परिभवः।। १५।।
मही पादाघाताद् व्रजति सहसा संशयपदं।
पदं विष्णोर्भ्राम्यद् भुज-परिघ-रुग्ण-ग्रह-गणम्।।
मुहुर्द्यौर्दौस्थ्यं यात्यनिभृत-जटा-ताडित-तटा।
जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता।। १६।।
वियद्व्यापी तारा-गण-गुणित-फेनोद्गम-रुचिः।
प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते।।
जगद्द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमिति।
अनेनैवोन्नेयं धृतमहिम दिव्यं तव वपुः।। १७।।
रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो।
रथांगे चन्द्रार्कौ रथ-चरण-पाणिः शर इति।।
दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बर विधिः।
विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः।। १८।।
हरिस्ते साहस्रं कमल बलिमाधाय पदयोः।
यदेकोने तस्मिन् निजमुदहरन्नेत्रकमलम्।।
गतो भक्त्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषः।
त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागर्ति जगताम्।। १९।।
क्रतौ सुप्ते जाग्रत् त्वमसि फलयोगे क्रतुमतां।
क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते।।
अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदान-प्रतिभुवं।
श्रुतौ श्रद्धां बध्वा दृढपरिकरः कर्मसु जनः।। २०।।
क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्तनुभृतां।
ऋषीणामार्त्विज्यं शरणद सदस्याः सुर-गणाः।।
क्रतुभ्रंशस्त्वत्तः क्रतुफल-विधान-व्यसनिनः।
ध्रुवं कर्तुं श्रद्धा विधुरमभिचाराय हि मखाः।। २१।।
प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं।
गतं रोहिद् भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा।।
धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममु।
त्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः।। २२।।
स्वलावण्याशंसा धृतधनुषमह्नाय तृणवत्।
पुरः प्लुष्टं दृष्ट्वा पुरमथन पुष्पायुधमपि।।
यदि स्त्रैणं देवी यमनिरत-देहार्ध-घटनात्।
अवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतयः।। २३।।
श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचाः सहचराः।
चिता-भस्मालेपः स्रगपि नृकरोटी-परिकरः।।
अमंगल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं।
तथापि स्मर्तॄणां वरद परमं मंगलमसि।। २४।।
मनः प्रत्यक् चित्ते सविधमविधायात्त-मरुतः।
प्रहृष्यद्रोमाणः प्रमद-सलिलोत्संगति-दृशः।।
यदालोक्याह्लादं ह्रद इव निमज्यामृतमये।
दधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत् किल भवान्।। २५।।
त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवहः।
त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च।।
परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रति गिरं।
न विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत् त्वं न भवसि।। २६।।
त्रयीं तिस्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरान्।
अकाराद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत् तीर्णविकृति।।
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः।
समस्त-व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम्।। २७।।
भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सहमहान्।
तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम्।।
अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि।
प्रियायास्मैधाम्ने प्रणिहित-नमस्योऽस्मि भवते।। २८।।
नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमः।
नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः।।
नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमः।
नमः सर्वस्मै ते तदिदमतिसर्वाय च नमः।। २९।।
बहुल-रजसे विश्वोत्पत्तौ, भवाय नमो नमः।
प्रबल-तमसे तत् संहारे, हराय नमो नमः।।
जन-सुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ, मृडाय नमो नमः।
प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये, शिवाय नमो नमः।। ३०।।
कृश-परिणति-चेतः क्लेशवश्यं क्व चेदं।
क्व च तव गुण-सीमोल्लंघिनी शश्वदृद्धिः।।
इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद्।
वरद चरणयोस्ते वाक्य-पुष्पोपहारम्।। ३१।।
असित-गिरि-समं स्यात् कज्जलं सिन्धु-पात्रे।
सुर-तरुवर-शाखा लेखनी पत्रमुर्वी।।
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं।
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति।। ३२।।
असुर-सुर-मुनीन्द्रैरर्चितस्येन्दु-मौलेः।
ग्रथित-गुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य।।
सकल-गण-वरिष्ठः पुष्पदन्ताभिधानः।
रुचिरमलघुवृत्तैः स्तोत्रमेतच्चकार।। ३३।।
अहरहरनवद्यं धूर्जटेः स्तोत्रमेतत्।
पठति परमभक्त्या शुद्ध-चित्तः पुमान् यः।।
स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्र।
प्रचुरतर-धनायुः पुत्रवान् कीर्तिमांश्च।। ३४।।
महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः।
अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम्।। ३५।।
दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिकाः क्रियाः।
महिम्नस्तव पाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्।। ३६।।
कुसुमदशन-नामा सर्व-गन्धर्व-राजः।
शशिधरवर-मौलेर्देवदेवस्य दासः।।
स खलु निज-महिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात्।
स्तवनमिदमकार्षीद् दिव्य-दिव्यं महिम्नः।। ३७।।
पठति यदि मनुष्यः प्रांजलिर्नान्य-चेताः।।
व्रजति शिव-समीपं किन्नरैः स्तूयमानः।
स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम्।। ३८।।
आसमाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गन्धर्व-भाषितम्।
अनौपम्यं मनोहारि सर्वमीश्वरवर्णनम्।। ३९।।
इत्येषा वाङ्मयी पूजा श्रीमच्छंकर-पादयोः।
अर्पिता तेन देवेशः प्रीयतां में सदाशिवः।। ४०।।
तव तत्त्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वर।
यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः।। ४१।।
एककालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेन्नरः।
सर्वपाप-विनिर्मुक्तः शिव लोके महीयते।। ४२।।
श्री पुष्पदन्त-मुख-पंकज-निर्गतेन।
स्तोत्रेण किल्बिष-हरेण हर-प्रियेण।।
कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेन।
सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः।। ४३।।
।। इति श्री पुष्पदन्त विरचितं शिवमहिम्नः स्तोत्रं सम्पूर्णम्।
शिव महिम्न स्तोत्रम् के लाभ
धर्म शास्त्रों के अनुसार सावन मास में शिव महिमा स्त्रोत का पाठ करने से से सभी प्रकार के सुखों की प्राप्ति होती है। पुष्पदंत द्वारा रचित शिव महिम्न स्तोत्र शिव जी को अत्यंत ही प्रिय है। इसका पाठ करने वाला अपने संचित पापों से मुक्ति पाता है।
शिव महिम्न स्तोत्रम् का पाठ कैसे करे
हिन्दू धर्म शास्त्रों के अनुसार सुबह जल्दी स्नान करके भगवन शिव की तस्वीर या शिवलिंग के सामने शिव महिम्न स्तोत्रम् का पाठ करे. सर्वप्रथम शिवलिंग का कच्चे दूध और जल से अभिषेक करे, तत्पश्चात धुप, दीप, पुष्प और नैवैद्य अर्पित करे , तत्पश्चात शिव महिम्न स्तोत्रम् का पाठ करे |
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ज्यो:शैलेन्द्र सिंगला पलवल हरियाणा