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सम्पूर्ण मानवता के लिए थी ईमाम हुसैन की क़ुर्बानी

आपकी कलम Published by: मिर्ज़ा ज़ाहिद बेग़ Updated Mon, 07 Jul 2025 02:20 AM
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मिर्ज़ा ज़ाहिद बेग़ की क़लम से

  • मानव इतिहास में सत्य/न्याय और धर्म की रक्षा के किये दो महान युद्ध लड़े गये । पहला हज़ारों साल पहले भारत के दक्षिण में हिन्द महासागर के पार जहाँ भगवान श्री राम ने असत्य/अन्याय/अधर्म और अहँकार के प्रतीक रावण का वध कर विजय श्री प्राप्त की और सनातन धर्म और संस्कृति को पल्लवित किया। 

दूसरा मध्य एशिया में ईराक़ के कर्बला में हिजरी सन 61(10 अक्टोबर 680) में ईमान,इंसाफ़ और इंसानियत के हामी  हज़रत मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन और ज़ुल्म/अधर्म और नाइंसाफी के प्रतीक ज़ालिम बादशाह यज़ीद के बेशुमार लश्क़र के  बीच में हुआ।

यद्यपि इस लड़ाई में इमाम हुसैन और उनका पूरा भूखा-प्यासा  खानदान  शहीद हुआ पर उनकी शहादत ने अरब जगत ही नहीं बल्क़ि सारी दुनिया में इंसानियत, सच और मानवीय मूल्यों की प्रतिस्थापना की और  इस्लाम को रहती दुनिया तक के लिए सुर्ख़रु कर दिया।

ईमाम हुसैन की शहादत और कर्बला के पूरे वाक़ये को समझने के लिए हमें अतीत में लगभग 1400 साल पहले लौटना होगा। आठ जून, 632 ई. को पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मोहम्मद साहब के देहांत के बाद उनके और उनके दीन के दुश्मन धीरे-धीरे फ़िर हावी होने लगे। उन्हें लगा है कि यही वह अवसर है जब इस्लाम को उसकी शैशवावस्था में ही कुचल कर अरब के रेगिस्तानों में दफ़न कर दिया जाय। पहले दुश्मनों ने मोहम्मद साहब  की बेटी फातिमा जहरा के घर पर हमला किया, जिससे घर का दरवाजा टूटकर फातिमा जहरा पर गिरा और 28 अगस्त, 632 ई. को वह इस दुनिया से चली गईं।

फिर कई सालों बाद मौका मिलते ही दुश्मनों ने मस्जिद में नमाज  पढ़ते समय मोहम्मद साहब  के दामाद हजरत अली के सिर पर ज़हर बुझी तलवार मार कर उन्हें शहीद कर दिया। उसके बाद दुश्मनों ने मोहम्मद साहब  के बड़े नाती इमाम हसन को जहर देकर शहीद किया। दुश्मन मोहम्मद साहब  के पूरे परिवार और उनके दीन को खत्म करना चाहते थे, इसलिए उसके बाद मोहम्मद साहब  के छोटे नाती इमाम हुसैन पर दुश्मन दबाव बनाने लगे कि वह उस समय के बादशाह और जबरन ख़लीफ़ा बने ज़ालिम 'यज़ीद' का हर हुक़्म माने,उस का समर्थन करे और उसे ख़लीफ़ा क़ुबूल करें।

यजीद जो कहे उसे इस्लाम में शामिल करें और जो वह इस्लाम से हटाने को कहे वह इस्लाम से हटा दें। यानी मोहम्मद साहब  के बनाए हुए दीन 'इस्लाम' को बदल दें।  इमाम हुसैन पर दबाव इसलिए था, क्योंकि वह पैग़म्बर मोहम्मद साहब  के चहेते नाती थे। इमाम हुसैन के बारे में मोहम्मद साहब  ने कहा था कि "हुसैन-ओ-मिन्नी वा अना मिनल हुसैन' यानी हुसैन मुझसे हैं और मैं हुसैन से यानी जिसने हुसैन को दुख दिया उसने मुझे दुख दिया।

 यज़ीद चाहता था कि हुसैन उसका समर्थन कर दें, वह जानता था अगर हुसैन उसके साथ आ गए तो सारा इस्लाम उसकी मुट्ठी में होगा। लाख दबाव के बाद भी हुसैन ने उसकी किसी भी बात को मानने से इनकार कर दिया, तो यजीद ने हुसैन को कत्ल करने की योजना बनाई। चार मई, 680 ई. में इमाम हुसैन मदीने में अपना घर छोड़कर शहर मक्का पहुंचे, जहां उनका हज करने का इरादा था लेकिन उन्हें पता चला कि दुश्मन हाजियों के भेष में आकर उनका कत्ल कर सकते हैं। हुसैन ये नहीं चाहते थे कि काबा जैसे पवित्र स्थान पर खून बहे, इसलिए हुसैन ने हज का इरादा बदल दिया और शहर कूफे की ओर चल दिए। रास्ते में दुश्मनों की फौज उन्हें घेर कर कर्बला ले आई।

जब दुश्मनों की फौज ने हुसैन को घेरा था, उस समय दुश्मन की फौज बहुत प्यासी थी, इमाम ने दुश्मन की फौज को पानी पिलवाया। यह देखकर दुश्मन फौज के सरदार 'हजरत हुर्र' अपने परिवार के साथ हुसैन से आ मिले। इमाम हुसैन ने कर्बला में जिस जमीन पर अपने खेमे (तम्बू) लगाए, उस जमीन को पहले हुसैन ने खरीदा, फिर उस स्थान पर अपने ख़ेमे लगाए। मोहर्रम माह की 2 तारीख़ से यज़ीद की बेशुमार फ़ौजों ने हुसैन के ख़ेमों को घेर लिया।

यजीद अपने सरदारों के द्वारा लगातार इमाम हुसैन पर दबाव बनाता गया कि हुसैन उसकी बात मान लें, जब हुसैन ने यजीद की शर्तें नहीं मानी, तो दुश्मनों ने अंत में मोहर्रम की 7 तारीख से नहर पर फौज का पहरा लगा दिया और हुसैन के खेमों में पानी जाने पर रोक लगा दी गई। अब कर्बला की तपती सरज़मीन पर ऊपर आग बरसाता सूरज था और नीचे हुसैन का भूखा-प्यासा ख़ानदान।

तीन दिन गुजर जाने के बाद जब हुसैन के परिवार के बच्चे प्यास से तड़पने लगे तो हुसैन ने यजीदी फौज से पानी मांगा, दुश्मन ने पानी देने से इंकार कर दिया, दुश्मनों ने सोचा हुसैन प्यास से टूट जाएंगे और हमारी सारी शर्तें मान लेंगे। जब हुसैन ने तीन दिन की भूख-प्यास के बाद भी यजीद की बात नहीं मानी तो दुश्मनों ने हुसैन के खेमों पर हमले शुरू कर दिए। इसके बाद हुसैन ने दुश्मनों से एक रात का समय मांगा और उस पूरी रात इमाम हुसैन और उनके परिवार ने अल्लाह की इबादत में गुज़ारी और दुआ की कि मेरा परिवार, मेरे मित्र चाहे शहीद हो जाएँ, लेकिन अल्लाह का दीन 'इस्लाम', जो मेरे नाना (मोहम्मद साहब) लेकर आए थे, वह बचा रहे।

10 अक्टूबर, 680 ई.,(मोहर्रम महिने की भी दसवीं तारिख़) को सुबह नमाज के समय से ही जंग छिड़ गई यद्यपि इसे जंग कहना ठीक नहीं होगा क्योंकि हुसैन के लश्कर में मात्र 72 लोग थे जिसमें 6 महीने से लेकर 13 साल तक के बच्चे और 80 साल के बुज़ुर्ग भी शामिल थे।  इस्लाम की बुनियाद बचाने में कर्बला में 72 लोग शहीद हो गए, जिनमें दुश्मनों ने 13 साल के बच्चे हजरत कासिम को जिन्दा रहते घोड़ों की टापों से रुन्दवा दिया और सात साल आठ महीने के बच्चे औन-मोहम्मद के सिर पर तलवार से वार कर उसे शहीद कर दिया।

दोपहर पश्चात जब लगभग सभी शहीद हो गए तब हुसैन प्यास की शिद्दत से बेहोश 6 माह के बच्चे अली असग़र को गोद में लेकर दुश्मनों के पास आये और उसके लिए इंसानियत के नाम पर पानी मांगा। बज़ाय पानी देने के ज़ालिम यज़ीद के इशारे पर उसके एक लड़ाके हुर्मला ने उस मासूम के गले पर तीन नोकों वाला तीर मार कर उसे शहीद कर दिया। सबसे आख़िर में यज़ीद के एक सैनिक शिम्र ने ईमाम हुसैन को उस वक़्त शहीद किया जब वह सज़दे में थे।

इमाम हुसैन की शहादत के बाद दुश्मनों ने इमाम के खेमे भी जला दिए और परिवार की औरतों और बचे लोगों को बंधक बना लिया। कर्बला के शहीदों के सरों को नेजों(भालों)पर टाँग कर और खानदान की औरतों के सरों पर से दुपट्टा खींच कर उनके ज़ुलूस निकाले गए।  दीन-ईमान,सच और इंसानियत के लिए दी गई ईमाम हुसैन की इस बेमिसाल क़ुरबानी और शहीदों की लाशों/औरतों की इस बेहुरमती की दास्तान हुसैन की बहन जैनब ने क़र्बला से लौट कर इस्लामी दुनिया को बताई और उन्हें जागृत किया जिससे सारे अरब जगत में रोष फैल गया तथा लोग पैग़म्बरे इस्लाम के सच्चे दीन इस्लाम के लिए और ज़्यादा एक जुट होते गए और इस्लाम तेजी से फैलने लगा।

  • इसीलिए मौलाना मोहम्मद अली जोहर ने कहा था-
  • "क़त्ल ए हुसैन अस्ल में मर्ग ए यज़ीद है,
  • इस्लाम ज़िंदा होता है हर क़र्बला के बाद।"
  • ईमाम हुसैन की इस अज़ीमुश्शान क़ुरबानी से  मानवता में विश्वास रखने वाला हर शख़्स प्रेरित हुआ है।

नेल्सन मंडेला कहते हैं-"जेल में 20 साल की सख़्त सज़ा काटने के बाद एक रात हार कर मैंने सरकार की तमाम शर्तें मानने का फ़ैसला किया लेकिन तभी मुझे ईमाम हुसैन और क़र्बला का वाक़या याद आ गया । हुसैन ने मुझे हक़ और आज़ादी के लिए खड़े रहने और लड़ते रहने की हिम्मत दी।"

महात्मा गाँधी ने कहा-"मैंने हुसैन से सीखा की मज़लूमियत में किस तरह जीत हासिल की जा सकती है। इस्लाम का प्रसार तलवार से नहीं बल्क़ि हुसैन के बलिदान का नतीज़ा है।"

रवींद्रनाथ टैगोर कहते हैं-"इंसाफ़ और सच्चाई को ज़िंदा रखने के लिए हथियार और फ़ौज़ ज़रूरी नहीं है बल्क़ि कुर्बानी दे कर भी जीत हासिल की जा सकती है जैसा हुसैन ने क़र्बला में किया।"

इमाम हुसैन का बलिदान किसी एक क़ौम या किसी एक मज़हब के लिए न होकर सम्पूर्ण मानवता के लिए था यही वज़ह है कि ईमाम हुसैन को चाहने और मानने वाले हर धर्म में बड़ी संख्या में मिलते हैं।

आलेख-मिर्ज़ा ज़ाहिद बेग़

 

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