आपकी कलम

'सोहं...पहले मैं वह हूं...बाद में मैं भी वह हूं...!

paliwalwani
'सोहं...पहले मैं वह हूं...बाद में मैं भी वह हूं...!
'सोहं...पहले मैं वह हूं...बाद में मैं भी वह हूं...!

कहने का क्या अर्थ है?

मैं मन हूं...

मैं अनुभव करता हूं मैं हृदय भी हूं। लेकिन जोर मन पर है।

चित्त,मन में ही बैठा हुआ है आसन जमाकर।

यह उसकी सही जगह नहीं है।

चित्त की सही जगह हृदय है।

और मैं वस्तुत:हृदय ही हूं।

अभी मैंने अपने आपको मन मान रखा है इसलिए मुझे यह जानना पड़ेगा, जानना ही नहीं अभ्यास भी करना होगा कि

मैं हृदय हूं।

मन का निषेध नहीं करना है।मनरुपी मैं ही वस्तुत:हृदय हूं। इससे मैं मस्तक की जगह छोडकर हृदय में आ जाता हूं।

हंसा सुध कर अपनो देसा।

परदेस छोडकर स्वदेश में आ जाता हूं।

सराय छोड़कर अपने घर में आ जाता हूं और आराम से रहता हूं।

पहले मैं वह हूं,बाद में मैं भी वह हूं।

पहले मनरुपी मैं हृदय में हूं,बाद में मैं भी हृदय हूं।

इससे मेरा मनरुप समाप्त हो जाता है हमेशा के लिए। मैं स्थायी रुप से हृदय में हृदय के रुप में ही रहने लगता हूं।

यह वह स्थिति है जिसके लिए गीता कहती है जिससे बडा कोई लाभ नहीं।

हम सब मूलतः हृदय ही हैं पर अपने को मन मानकर भटक रहे हैं।

मैं हृदय हूं -इसका अभ्यास कैसे हो तो पता लगायें हम अपने होने को कहा अनुभव करते हैं?

हृदय में या मस्तिष्क में?

निश्चय ही हृदय में।इसके लिए प्रमाण देने की जरूरत नहीं।यह सभी का सहज स्वाभाविक अनुभव है।

 ध्यान इधर नहीं है। ध्यान है मस्तिष्क में जहां अपने आपको कुछ मान रखा है।उस माने हुए व्यक्तित्व का ही चिंतन है,मनन है, सुरक्षा की आवश्यकता, असुरक्षा का भय है।

जब हम हृदय में हैं ही फिर मस्तिष्क में व्यक्तित्व संबंधी मनन क्यों हो रहा है?

हमारी असावधानी के कारण ही तो ।

ये सब आदत छोड़कर हमें हृदय में रहना होगा स्व अनुभवपूर्वक।

धीमे धीमे चित्त,हृदय में ठहरने लगेगा स्वस्थता बढेगी।जैसे जैसे स्वस्थता बढेगी आत्मबल, आत्मविश्वास, आत्मज्ञान भी बढते जायेंगे।

यह क्यों कहा-

बाद में मैं भी वह हूं।

हम मस्तिष्क में रहते हैं, 

और दूसरे लोगों को हृदय के रुप में अनुभव करते हैं। 

इससे वे हमारा आधार बन जाते हैं,हम उन पर आधारित हो जाते हैं। परनिर्भरता का यह सबसे बडा कारण है।

यदि हम आधार की तरह हों तो दूसरे लोग हम पर आधारित हो जायेंगे।

फिर भी बात अधूरी है। 

दूसरे लोग भी तो हृदयस्वरुप हैं। इसीलिए बाहर भीतर संबंधी संशय बना रहता है।

हमें जानना होगा कि जैसे सभी लोग हृदय स्वरुप हैं ऐसे ही मैं भी हृदय स्वरुप हूं।

हम सब हृदयस्वरुप हैं,मन रुपी यहां कोई भी नहीं है।

मन के रूप में हर व्यक्ति का परिचय झूठा है,हृदय के रुप में हर व्यक्ति का परिचय सच्चा है।

दूसरे लोग नहीं जानते तो हम तो जानते हैं।

हमें उनके साथ हृदय जैसा व्यवहार करना चाहिए,मन जैसा नहीं।मन में मैं मेरा,अपना पराया का भेद है,हृदय में कोई भेद नहीं।

पहले यह लग सकता है कि सभी लोग हृदयस्वरुप हैं फिर भी अलग अलग हैं।

यह सच नहीं है।

हृदय एक ही है। वही ईश्वर है।

फिर भी अलग अलग लगे तब भी कोई हर्ज नहीं मगर हृदयरुप तो अनुभव हो, आधाररूप तो अनुभव हो।

सभी वृक्षों की जड़ें जिस पृथ्वी में फैली हुई हैं उस पृथ्वी का ध्यान सभी वृक्षों को हो तो वे टकरायें नहीं कि मैं बडा,तू छोटा।

ऊंची शाखाओं का ध्यान है ,जड़ों का और पृथ्वी का ध्यान नहीं है।

बस यही ध्यान केंद्र बदलना है।

बेशक शुरुआत खुद से करनी होगी।

मैं मन वस्तुत:हृदय हूं।

सोहं सोहं सोहं।

अभी चिंतन चल रहा है कोशिश हो रही है। दूसरे लोग हृदयरुप लगते हैं, मैं नहीं।

अपना अभ्यास जारी रहे तो पता चल जाता है-

मैं भी हृदय हूं दूसरों की तरह।

मैं हृदय ही हूं। मन-बुद्धि का कोई काम नहीं है।

मन के रूप में मैंने सोचा था-

मैं हृदय हूं। फिर मन के रूप में मैं हृदय में डूबकर हृदय ही हो गया।

अब मैं दूसरे लोगों की भी मदद कर सकता हूं उन्हें यह जनाकर कि वे भी मूलतः हृदयरुप ही हैं।

यह आत्मा का सम्मान है।

उस आत्मा का सम्मान जिसके विषय में कृष्ण कहते हैं -

'मैं सभी के हृदय में विद्यमान आत्मा हूं।'

यह सर्वव्यापी है फिर भी कुंठित होने की जरूरत नहीं क्यों कि व्यवस्था बड़ी सुंदर है।

जो पिंड में है वह ब्रह्मांड में है।

जो ब्रह्मांड में है वह पिंड में है।

इसलिए हम निश्चिंत होकर स्वयं से शुरु कर सकते हैं।

हमें अपनी व्यवस्था देखनी चाहिए और समझना चाहिए मैं कहां हूं?

मन में हूं तो हृदय में आ जाऊं।

हृदय में रहने पर देह,अंत:करण भिन्न लगने बंद हो जाते हैं।

पूरा विश्व बल्कि अनंत भी अभिन्न अनुभव होने लगता है।

सत्यंज्ञानमनंतं ब्रह्म।

यदि हम स्वयं को हृदय रुप तथा दूसरों को मनरुप मानते हैं तो इसका मतलब हम भी मन में ही जी रहे हैं।जो अपने हृदयरुप को अनुभव करता है वह सभी को हृदयरुप अनुभव कर लेता है।

इसीलिए अनुभवी की नजर में कोई अज्ञानी नहीं है।

ज्ञानी, अज्ञानी का भेद मन की दृष्टि से है,हृदय की-वास्तविकता की दृष्टि से नहीं।

जो अपने को अज्ञानी मानता है वह हृदय की शाश्वत उपस्थिति को भूलकर मन में जी रहा है,जो अपने को ज्ञानी मानता है वह भी मन में जी रहा है।

जो हृदय को जीता है वह जान लेता है कि सभी लोग वस्तुत:हृदय को ही जी रहे हैं,आधार को ही जी रहे हैं।

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