"सुदामा" - मैत्री का एक अद्भुत उदाहरण !!
श्री कृष्ण को एक अद्भुत सखा मिला ... महर्षि सान्दीपनि के गुरुकुल में ।
तात ! वो है सुदामा
मैत्री का एक अद्भुत उदाहरण है सुदामा !
उद्धव विदुर जी को एक प्रसंग सुना रहे हैं ... जो विलक्षण है ।... मैत्री का ऐसा उदाहरण जगत में कहीं दिखाई नही देता !
महर्षि सान्दीपनि के यहाँ विद्याध्यन कर रहे हैं... श्रीकृष्ण और बलभद्र... इनका एक सखा है यहाँ... सुदामा जिसका नाम है ।
तात ! क्या कहूँ इस सुदामा के बारे में... इसका त्याग अपूर्व है... अपना सुख, अपना वैभव सब कुछ त्याग दिया अपनें मित्र के लिये ... दरिद्रता को हंसते हुये स्वीकार करनें वाला ये सुदामा ही तो था ... तात ! तभी गुरुकुल से विद्याध्यन के बाद जब श्रीकृष्ण को ये बात पता चली ... तब तो उन्होंने सुदामा के पास ही रहनें का निर्णय ले लिया था ... "द्वारिका" सुदामा के पास ही तो थी ।... आज उद्धव नें एक अनसुनी कथा सुना दी थी।
मैं कुछ समझा नही उद्धव ! क्या त्याग ? विदुर जी बोले ।
उद्धव कुछ देर में लिये मौन हो गए... उनका कण्ठ अवरुद्ध हो गया था भावतिरेक के कारण... जब सहज हुये भाव जगत से बाहर आये तब उन्होंने ये प्रसंग सुनाया था ।
विद्याध्यन के बाद गुरुसेवा... फिर समिधा लेंने के लिये वन में जाना... वहाँ से सूखी समिधा लेकर गुरु के पास में रख देना... इसी कार्य को बड़े तन्मयता से श्रीकृष्ण करते थे।
गुरुमाता का वात्सल्य श्रीकृष्ण के प्रति बढ़ता ही जा रहा था... समिधा लेनें के लिये जब ये जाते... तब छुपाकर कुछ चनें गुरुमाता दे देती हैं... देती थीं सुदामा को... और कहतीं आधा भाग तेरा और आधा भाग कृष्ण को दे देना... फिर कहतीं तू तो ब्राह्मण है... तपस्वी है... कम भी खायेगा तो कोई बात नही... पर उसको अवश्य देना ।
सुदामा "ठीक है माते" कहते... और वन में जाकर दोनों चनें खाते... दोनों मित्र बतियाते... समिधा लेकर आजाते... ये नित्य का नियम था... पर आज - गुरु सेवा करके श्रीकृष्ण सुदामा उठे,... वन्दन करके ये दोनों समिधा लेनें के लिये जा ही रहे थे कि... सुदामा ! इधर आओ... गुरु माता नें अपनें पास बुलाया... सुदामा गए।
हे सान्दीपनि ! कैसे हो ?
ओह ! साक्षात् शिव रूप ऋषि दुर्वासा आज सान्दीपनि के गुरकुल में आगये थे।
उठकर प्रणाम किया ऋषि सान्दीपनि नें... आशीर्वाद दिया दुर्वासा नें ऋषि सान्दीपनि को।
चर्चा होती रहीं दोनों की... तभी दुर्वासा नें सान्दीपनि की पत्नी को देखते हुये कहा..."भिक्षा दो हमें देवी"... सान्दीपनि की पत्नी के हाथ में एक पोटरी थी... उसी पोटरी को देखकर वो बोले थे ।
"पर मेरे पास कुछ नही है"... सान्दीपनि की पत्नी नें सोचा ये चनें की पोटरी अगर मैने ऋषि दुर्वासा को दे दीतो कृष्ण क्या खायेगा ?
सुदामा वहाँ खड़े थे... गुरुमाता के पास... वो सब समझ रहे थे...
लाल नेत्र हो गए क्षण में ही दुर्वासा के... मुड़कर सान्दीपनि की ओर देखा... सान्दीपनि नें सिर झुका लिया।
तुम्हे क्या लगता है हमें पता नही है... जाओ ! हमारा श्राप है... जो इस पोटरी में रखे पदार्थ खायेगा... वो "दरिद्री" हो जायेगा ।
ये कहते हुये दुर्वासा तो चले गए... माता नें दुर्वासा की बातों को गम्भीरता से लिया नही... सुदामा का भी ध्यान कृष्ण की ओर ही था कृष्ण प्रतीक्षा कर रहे थे सुदामा के आनें की।
कान में धीरे से बोला गुरु माता नें... सुदामा ! चनें हैं खा लेना... और हाँ कृष्ण को अवश्य देना... छुपा लो... पोटरी देकर गुरुमाता चलीं गयीं भीतर... साधारण तो हैं नही सान्दीपनि... वो समझ गए... सुदामा जा रहा था... सान्दीपनि नें उसे रोका... सुदामा रुका।
वत्स सुदामा !... तुम्हारी गुरुमाता नें तुम्हे खानें के लिए चनें दिए हैं !
सिर झुकाकर खड़ा रहा सुदामा... गुरुदेव की बातों का उसनें कोई उत्तर नही दिया... आज सुदामा से सान्दीपनि नें कहा... तुम्हे पता है ये तुम्हारा मित्र कृष्ण कौन है ? नही पता गुरुदेव ! मेरे लिये तो ये मित्र है मेरा अपना मित्र ।
कुछ देर चुप रहे सान्दीपनि...
सुदामा ! सुदामा ! देरी हो रही है... चल ना !
श्रीकृष्ण आवाज दे रहे हैं सुदामा को ।
तुम्हारे हाथ में चनें की पोटरी है... तुम तो जानते हो तुम्हारी गुरुमाता तुम लोगों के प्रति कितनें वात्सल्य से भरी हुयी है।
जी गुरुदेव ! सुदामा सिर झुकाये ही खड़ा है।
वो वात्सल्य के कारण धर्म मर्यादा भी भूल जातीं हैं... ये तुमनें अभी देखा... अतिथि का सत्कार करना सबका परम धर्म है... फिर दुर्वासा जैसे ऋषि का तो. पर तुम्हारी गुरुमाता नें तो जो उन्होंनें भिक्षा माँगी थी उसे देंने से भी मना कर दिया... और वो पोटरी तुम्हारे हाथ में है... इसमें चनें हैं... सान्दीपनि बोल रहे हैं।
सुदामा ! चलो ! नही तो मैं अकेले जा रहा हूँ...
कृष्ण फिर... आवाज देंने लगे थे ।
सुदामा नें गुरुदेव के नेत्रों में देखा... तो सान्दीपनि बोले... दुर्वासा का श्राप है... जो इस चनें को खायेगा... वो दरिद्री हो जायेगा...।
सुदामा नें गुरुदेव से कहा... .मैं फेंक दूँगा चनें...।
सान्दीपनि नें कहा... ये तो और बड़ा अपराध होगा... क्यों की माता नें धर्म का त्याग करके... वात्सल्य के कारण चनें तुम्हे दिए और तुमनें उन चनें को फेंक दिया!
सुदामा ! मैं अकेले जा रहा हूँ... श्रीकृष्ण नें जोर से कहा ।
जाओ सुदामा ! तुम विवेकवान हो... सब समझते हो... सान्दीपनि बोले।
सुदामा अपनें गुरु को प्रणाम करके... चला गया था कृष्ण के पास।
इतनी देरी लगती है क्या ? मैं कब से चिल्ला रहा हूँ... और तू है कि सुनता ही नही... श्रीकृष्ण सुदामा को और भी डाँटते... पर सुदामा का ध्यान आज कृष्ण की बातों में नही है... ।
"जो इन चनें को खायेगा वो दरिद्री होगा"... दुर्वासा का श्राप गूँज रहा है कानों में सुदामा के ।
क्या हुआ सुदामा ! तुम इस तरह उदास क्यों हो ?
श्रीकृष्ण सुदामा से पूछते जा रहे हैं... सुदामा को सहज बनानें का प्रयास कर रहे हैं... पर सुदामा आज सहज नही हो रहा।
तभी - काले बादल आकाश में छा गए थे... बिजली चमकनें लगी थी... और देखते ही देखते मूसलाधार मेघ बरसनें शुरू हो गए थे।
सुदामा !चलो वृक्ष में चढ़ते हैं... घना विशाल वृक्ष था... उसी में दोनों चढ़ गए थे... सन्ध्या में ही रात्रि भान का होनें लगा था।
एक हाथ की दूरी भी दिखाई नही दे रही थी ।
कब तक वर्षा होगी पता नहीसुदामा ! सुदामा ! श्रीकृष्ण फिर पुकारनें लगे थे... दूसरी डाल में बैठा सुदामा कुछ नही बोलता... हाथ में रखी चनें की पोटरी को देखता है... "जो इस चनें को खायेगा वो दरिद्री हो जायेगा" दुर्वासा का श्राप ! सुदामा काँप जाता है... दुर्वासा ऋषि की वाणी मिथ्या नही होती।
सुदामा ! ठीक है मत बोल... पर मुझे भूख लगी है... चनें दे...
श्रीकृष्ण नें कहा ।
नही, नही,... सुदामा मन ही मन कहनें लगा... कृष्ण को ये चनें नही खानें दूँगा... उसे अभी बहुत कुछ करना है... कृष्ण नें ये चनें खाये तो वो... न हीं... न हीं... मेरा सखा कैसे दरिद्री हो जाए।
फिर ? मैं इसे फेंक भी तो नही सकता... गुरु जी नें कहा है... चनें को फेंकना बहुत बड़ा अपराध होगा... सुदामा सोच रहा है वर्षा घनघोर चल रही है।
मैं आ रहा हूँ तेरे पास सुदामा ! मुझे चनें दे... श्रीकृष्ण अपनी डाली से सुदामा की ओर बढ़े...
नहीं... मैं ये चनें कृष्ण को खाने नही दूँगा... फिर क्या करूँ ?
सुदामा सोचता है... नेत्रों से अश्रु बह जाते हैं उसके... सोचता है...
तू तो ब्राह्मण है... सुदामा ! तू तो ब्राह्मण है... विपन्नता ब्राह्मण के जीवन में रहती ही है... और तुझे क्या करना है... तू स्वयं क्यों नही खा लेता ! सुदामा के मन ने कहा।
हाँ... मैं ही खा लेता हूँ... पर अपनें मित्र को दरिद्र नही होंने दूँगा... मैं बन जाऊँगा दरिद्र... मैं हो जाऊँगा दरिद्री... पर मेरा सखा कृष्ण वो राजा बनें महाराजा बनें... लोगों का उद्धार करे।
बस सुदामा नें चनें लिये और खानें शुरू कर दिए... वो खाता जा रहा था वो अब आनन्दित था... उसे अब सन्तोष था... कि मेरा मित्र दरिद्री नही होगा... मैं दरिद्री हो जाऊँगा... फिर हंसता है सुदामा... तू तो दरिद्री है ही।
सुदामा ! तुम यहाँ बैठे हो... श्रीकृष्ण आगये थे वहाँ... लाओ मेरे चनें ?सुदामा से श्रीकृष्ण नें कहा।
"वो तो मैने खा लिए"... सुदामा बोला... श्रीकृष्ण कुछ नही बोले... वर्षा रुक गयी थी... दोनों मित्र उतरे वृक्ष से... सामनें खड़े थे सान्दीपनि... सुदामा को देखा... नेत्रों से अश्रु बह गए सान्दीपनि के... देखो ना गुरुदेव ! चनें सब खा गया सुदामा ! मेरे भाग का भी खा गया... श्रीकृष्ण शिकायत कर रहे थे... पर सान्दीपनि के नेत्रों से जल गिरनें लगा था... धन्य हो सुदामा ! धन्य हो... स्वयं दरिद्रता ओढ़ ली पर अपनें मित्र को आँच न आनें दी ... अपनें हृदय से लगा लिया था ऋषि सान्दीपनि नें सुदामा को ।
श्रीकृष्ण समझेंगे नही ? वो सब समझ रहे थे...
Harisharan