बंगाल । ममता बनर्जी की कोई एक-दो मुश्किलें नहीं हैं, वह एक तरह से मुश्किलों के पहाड़ पर बैठी हुई हैं। फिलहाल आज हम यहां उनकी जिस एक मुश्किल की बात करेंगे, वह यह है कि वह विधानसभा की सदस्य नहीं हैं, उन्हें मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के दिन से छह महीने के अंदर तक यानी कि 4 नवंबर तक विधानसभा का सदस्य हो जाना चाहिए। उन्होंने अपने लिए एक सीट भी खाली करा ली है लेकिन सदस्य तो तब बन पाएंगी जब तय अवधि तक चुनाव हो सकें।
कारोना की वजह से केंद्रीय निर्वाचन आयोग ने सारे चुनाव स्थगित कर रखे हैं। चुनाव प्रक्रिया कब से शुरू होगी, यह कहा नहीं जा सकता। ममता की मुश्किल यह है कि अगर आयोग की रोक नवंबर तक खिंच गई तब क्या होगा?
बंगाल बीजेपी के नेता मजे भी ले रहे हैं, कह रहे हैं कि जब आयोग चुनाव करा रहा था तब तमाम राजनीतिक दल आयोग पर लोगों की जान से खेलने का आरोप लगा रहे थे, अब जब तक यह सुनिश्चित नहीं हो जाता कि चुनाव कराने से किसी की जान को खतरा नहीं है तो वह चुनाव कैसे करा सकता है?
ममता ने हालात को समझते हुए, विधान परिषद वाला रास्ता निकालने की कोशिश की थी। उन्होंने विधानसभा के जरिए प्रस्ताव पास कराया कि राज्य में विधान परिषद का गठन हो लेकिन बगैर लोकसभा की स्वीकृति के यह हो नहीं हो सकता और केंद्र सरकार के साथ उनके जिस तरह के रिश्ते हैं, उसमें यह मुमकिन ही नहीं है।
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे भी इसी तरह की मुश्किल में फंस चुके हैं। उन्होंने 28 नवंबर 2019 को जब मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी तो किसी सदन के सदस्य नहीं थे। उन्हें 27 मई 2020 तक किसी सदन का सदस्य बनना था। उनके लिए तसल्ली की बात यह थी कि महाराष्ट्र में विधान परिषद है और उसकी सात सीटों के लिए अप्रैल 2020 में चुनाव होने थे।
उद्धव ठाकरे का प्लान यह था कि वह विधान परिषद चले जाएंगे। तभी कोरोना की पहली लहर आ गई और चुनाव स्थगित हो गए। तब उद्धव ठाकरे की मुश्किल बढ़ गई थी। कैबिनेट ने उन्हें मनोनयन कोटे वाली सीट पर राज्यपाल से मनोनीत करने का प्रस्ताव भेजा लेकिन राज्यपाल ने उसे भी रोक लिया।
एक तरह से उद्धव ठाकरे के इस्तीफा देने की नौबत आ पड़ी थी, वह तो उद्धव ठाकरे के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ व्यक्तिगत रिश्ते और शरद पवार की मध्यस्थता ने उनकी मुश्किल को आसान कर दिया। बीजेपी ने कोई आपत्ति दर्ज नहीं कराई और चुनाव आयोग ने विशेष परिस्थितियों का हवाला देते हुए मई महीने में विधानपरिषद का चुनाव कार्यक्रम तय कर दिया और उनकी कुर्सी बच गई लेकिन ममता के लिए ऐसा कुछ नहीं होने वाला है।
दरअसल तीरथ सिंह रावत मार्च महीने में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बन तो गए हैं लेकिन वह भी विधानसभा के सदस्य नहीं हैं। उत्तराखंड में भी विधान परिषद नहीं है। तीरथ सिंह रावत को दस सितंबर तक विधानसभा का सदस्य बन जाना है। उनके लिए भी विधानसभा की सीट तलाश ली गई है, लेकिन मुश्किल यही है कि चुनाव पर आयोग की रोक है।
अगर उनका उपचुनाव नहीं हो पाया तो उन्हें इस्तीफा देना पड़ जाएगा, यह इस्तीफा बीजेपी इसलिए नहीं चाहेगी क्योंकि उत्तराखंड में फरवरी-मार्च महीने में आम चुनाव होने हैं। ऐसे में उसे कोई नया मुख्यमंत्री चुनना पड़ जाएगा। इस वजह से बीजेपी नेतृत्व की कोशिश चल रही है कि सितंबर तक उपचुनाव हो जाए। वह चुनाव आयोग को तर्कों के जरिए रोक हटाने को राजी कर रहा है।
अब अगर तीरथ सिंह रावत के लिए उपचुनाव कराने को आयोग ने रोक हटाई तो उसे ममता के लिए भी रोक हटाना ही होगा। आयोग के लिए ऐसा मुमकिन ही नहीं होगा कि वह किसी एक राज्य के सीएम के लिए उपचुनाव कराए और दूसरे राज्य के सीएम के लिए न कराए। इसी वजह से ममता और टीएमसी तीरथ सिंह रावत से पूरी उम्मीद लगाए हुए है। उन्हें यकीन है कि अपने सीएम की कुर्सी बचाने के लिए बीजेपी चुनाव पर लगी रोक हटवाने का रास्ता जरूर निकालेगी।a