नितिनमोहन शर्मा...✍️
अब दिन कितने बचे है? 8 महीने बाद तो चुनावी नगाड़े बज जाएंगे। लेकिन निगम, मंडल, आयोग, प्राधिकरण और विभिन्न सरकारी महकमो से जुड़ी समितियों में नियुक्तियां अब तक अटकी हुई है। भाजपा समय रहते ये नियुक्तियां क्यो नही करती? ये सवाल बुधवार को हुई 3-4 नियुक्तियों से फिर सामने आया हैं। सत्ता खोने के बाद भी सत्ताधीश सुधरे नही। बीते कार्यकाल में भी ऐसे ही अंतिम समय तक स्वाभाविक दावेदारो को तरसाया गया। इन्दौर में तो महापौर मालिनी गौड़ का 5 साल का पूरा कार्यकाल बीत गया लेकिन संगठन झोन अध्यक्ष तक नही बना पाया। नतीजे में शहर की 4 सीट पर कमल मुरझा गया। वह भी मोदी युग में। चुनाव के दौर में जो "देवदुर्लभ" था, चुनाव बाद उसके लिए सत्ता से मिलने वाला क्षणिक लाभ भी दुर्लभ हो चला। जिसने पसीना बहाया, उसका पारितोषिक हजम करने वाली "सत्ता" 2023 में भी फिर कही 2018 जैसे "देवदुर्लभो" के गुस्से का शिकार न हो जाये..!! कार्यकर्ताओं को "टूंगाने" का ये खेल केवल एमपी में ही क्यो चलन में है? भोपाल नही, अब " दिल्ली " को इसका जवाब तलाशना होगा।
भाजपा संगठन के संविधान में कोई प्रावधान हुआ है कि राजनीतिक नियुक्तिया चुनावी साल में ही करना है? स्वाभाविक दावेदारो को 4 साल तरसाने की कोई नई गाइडलाइंस बनी है क्या? मध्यप्रदेश में तो राजनीतिक नियुक्तियों का ये चलन जैसे संवेधानिक रूप पा गया है। शिवराज सरकार का बीता कार्यकाल भी इस बात का गवाह है। उसके पहले वाला कार्यकाल में भी ये ही कहानी थी। अचार संहिता लगने के 4 घण्टे पहले इन्दौर विकास प्राधिकरण पर अध्यक्ष की नियुक्ति तो स्मरण होगी न? नतीजा क्या निकला? सत्ता से हाथ धोना पड़ा। इन्दौर में तो महापौर मालिनी गौड़ का 5 साल का कार्यकाल पूरा हो गया लेकिन झोन अध्यक्ष बनाये ही नही गए। नतीजा क्या रहा? शहर की 8 में से 4 सीटों पर कांग्रेस जीती। वो भी 1998 के बाद पहली बार।
क्या मिलता है इन सब नियुक्तियों को समय पर नही कर के? जिन्हें चुनावी दौर में "देवदुर्लभ' बखाना जाता है, उन कार्यकर्ताओं को जब भी राजनीतिक लाभ देने की जब भी बारी आती है, सत्ता कंजूस क्यो हो जाती है? दर्जनों ऐसी सरकारी महकमो की समितियां शिवराज सरकार के बीते कार्यकाल में खाली ही रह गई जिनमें दर्जनों योग्य कार्यकर्ता उपकृत हो जाते। ऐसे हाल इस कार्यकाल में भी है।
इन्दौर में नए महापौर पुष्यमित्र भार्गव ने इस बार भरोसा दिलाया है कि इस बार झोन अध्यक्ष हर हाल में बनाये जाएंगे। एल्डरमैन का मसला भी शुरुआती हलचल ओर बढ़त के बाद ठंडे बस्ते में चला गया। इन्दौर विकास प्राधिकरण का अध्यक्ष घोषित हुए करीब सालभर होने को है लेकिन संचालक मंडल का हाल "गुमशुदा की तलाश" जैसा है। अगर समय रहते संचालक मंडल भी आ
अस्तित्व में आ जाता तो करीब दर्जनभर पार्टी नेता समायोजित हो जाते। हैरत की बात है कि इन्दौर को छोड़कर कही भी प्राधिकरण अध्यक्ष बनाया ही नही गया। केवल इन्दौर से ही "लाड़ लड़ाया" गया। मौजूदा सांसद शंकर लालवानी का भी प्राधिकरण का एक पूरा कार्यकाल बगेर संचालक मंडल के ही ऐसे ही पूरा हो गया था। इसके पीछे क्या नफा नुकसान ' सरकार ' जाने। नुकसान तो सत्ता खोकर हो गया। " "नफ़ा" परदे के पीछे ही रह गया। अगर नफ़ा न होता तो संचालक मंडल से क्या दुशमनी? और इन्दौर के साथ ही ऐसा क्यो?
"दिल्ली " इस "टूंगाने" के खेल से अनभिज्ञ है क्या? क्या पार्टी अध्यक्ष जे पी नड्डा की जानकारी में ये विषय नही की मध्यप्रदेश में राजनीतिक नियुक्तियों के मामले में ये खेल बरसो से चल रहा है। वह भी तब, जब केंद्रीय सङ्गठन इस विषय मे शिव सरकार को पहले ही चेता चुका है। संगठन के मुखिया वी डी शर्मा तो संघ पृष्ठभूमि के है। जहां 'में नही तू' का भाव प्रबल ओर अंतिम है। फिर वे क्यो इस "खेल' में शामिल है या "परबस" हैं। राष्ट्रीय संगठन मंत्री बी एल सन्तोष और क्षेत्रीय संगठन मंत्री अजय जामवाल की मौजूदगी में संगठन और सत्ता की अहम बैठक में तय हुआ था कि ये काम जल्द करना है। बैठक हुए 3 महीने बीत गए। लेकिन नतीजा शून्य।
बुधवार को " सत्ता " ने झोले में हाथ डालकर 3-4 नियुक्तियों के "तान तम्बूरे" बाहर निकाले। जैसे बहुत बड़ा उपकार हुआ हो। ऐसा ही उपकार जिन निगम मंडलों ओर आयोग में अध्यक्ष बनाकर किया गया था, वहां शेष सदस्यों की ताजपोशी रोक दी गई और संचालको के भी अते पते नही। यानी अभी और तरसो...!! जैसे इन्दौर में प्राधिकरण अध्यक्ष दे दिया संचालक मंडल रोक दिया।
जब पीएम सहित पूरी भाजपा मध्यप्रदेश को लेकर जबरदस्त रूप से गम्भीर ओर चिंतित है, तब एमपी में इस तरह तरसाकर "मेहरबानी" बरसाने का खेल क्यो खेला जा रहा है और ये कब तक चलेगा? ये कोई बताने वाला नही। शायद मिशन 2023 इसका जवाब दे देवे...!!
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