नई दिल्ली. भारत में प्रदूषण बच्चों के लिए जानलेवा साबित हो रहा है। बच्चे घरों के भीतर भी सुरक्षित नहीं हैं। कॉर्नेल यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने शोध में बताया है कि देश में हर हजार शिशुओं और बच्चों में से 27 की जान खाना पकाने के लिए घरों में उपयोग होने वाला जीवाश्म ईंधन ले रहा है।
इस अध्ययन नतीजे जर्नल ऑफ इकोनॉमिक बिहेवियर एंड ऑर्गनाइजेशन में प्रकाशित हुए हैं। शोधकर्ताओं के मुताबिक, यह अपनी तरह का पहला अध्ययन है जो भारतीय घरों में खाना पकाने के लिए उपयोग होने वाले जीवाश्म ईंधन की वास्तविक लागत को उजागर करता है। यह दर्शाता है कि कैसे यह जीवाश्म ईंधन बच्चों की जान ले रहा है।
अध्ययन में 1992 से 2016 के बीच पिछले 25 वर्षों के आंकड़ों का विश्लेषण किया गया है। इन आंकड़ों ने घरों में उपयोग होने वाले सभी प्रकार के दूषित ईंधनों की पहचान की गई है। शोध में पता चला कि इस प्रदूषण का एक महीने से कम आयु के शिशुओं पर सबसे ज्यादा बुरा प्रभाव पड़ता है। ऐसा इसलिए हैं क्योंकि उनके फेफड़े पूरी तरह से विकसित नहीं होते हैं। साथ ही यह बच्चे खाना पकाने के दौरान अपनी माताओं के करीब होते हैं।
शोधकर्ताओं के अनुसार, अध्ययन में भारतीय घरों में उपयोग होने वाले 10 अलग-अलग तरह के ईंधन शामिल थे। इनमें केरोसिन से लेकर लकड़ी, कोयला, फसल अवशेष और गोबर जैसे जीवाश्म ईंधन थे। घरों के अंदर ज्यादा प्रदूषण के लिए घरों की बनावट भी काफी हद तक जिम्मेदार पाई गई। या तो मकान छोटे पाए गए या वे हवादार नहीं थे। इस वजह से भी शिशुओं पर प्रदूषण का ज्यादा असर देखा गया। इस बात पर विशेष ध्यान दिया गया कि घरों से बाहर मौजूद प्रदूषण और फसल अपशिष्ट को कैसे जलाया जाता है।
प्रमुख शोधकर्ता अर्नब बसु ने कहा, भारतीय घरों में लड़कों की तुलना में लड़कियों की मृत्यु दर कहीं ज्यादा है। इसका कारण यह नहीं है कि बच्चियां, लड़कों के मुकाबले कमजोर होती हैं, बल्कि ऐसा इसलिए है क्योंकि भारतीय परिवारों में बेटों को प्राथमिकता दी जाती है। खासतौर से निम्न और निम्न मध्य वर्ग परिवारों में छोटी बच्ची को खांसी या बुखार होने पर वे उनका इलाज समय पर नहीं कराते।