माता-पुत्र का संवाद
आपकी कलम
Published by: Paliwalwani
Updated Mon, 24 May 2021 01:31 PM
● ● ● ● ● ●? ● ● ● ● ● ●
मैं : मां ! ये पूजी म्हाराज मुझे बहुत अच्छे लगते हैं।
मातुश्री : बेटा ! दुनिया में इनसे बढ़कर अच्छा कौन होगा ?
मैं : मां ! पूजी म्हाराज के पांव बहुत कोमल हैं ।
ये नंगे पांव चलते हैं, इनके पांवों में कांटे नहीं लगते हैं ।
मातुश्री : बेटा ! पूजी म्हाराज बहुत भाग्यशाली हैं, इनके प्रबल पुण्यों का उदय है ।
पुण्यवान महापुरुषों के पग-पग पर निधान बिछे रहते हैं ।
कांटे इनको कोई कष्ट नहीं देते ।
● ● ● ● ● ●? ● ● ● ● ● ●
मैं : मां ! यहां इतने साधू हैं ।
इनमें पूजी म्हाराज जैसा कोई दूसरा नहीं है ।
देखो, इनके चेहरे की चमक कितनी आकर्षक है ।
मातुश्री : बेटा ! पूजी म्हाराज ने इतने पुण्यों का संचय कब और कैसे किया, कहना कठिन है ।
इनकी पुण्यवत्ता हम देख ही पाते हैं ।
उसका वर्णन नहीं कर पाते ।
● ● ● ● ● ●? ● ● ● ● ● ●
मैं : मां ! एक बात और पूछना चाहता हूं ।
मैंने सुना है कि पूजी म्हाराज के पीछे दुसरे पूजी म्हाराज होते हैं ।
मां ! इनके पीछे कौन होगा ? इत्ती-सी बात आप मुझे बता दें ।
मां : ( आंखें लाल कर डांटते हुए ) खबरदार ! जो ऐसे शब्द दूसरी बार मुंह से निकाले ।
अपने पूजी म्हाराज कोड दिवाली ( 1 करोड़ दिवाली ) राज करें और
हमें धर्म का उपदेश देते रहें ।
● ● ● ● ● ●? ● ● ● ● ● ●
मैं : ( अपने नादानी भरे प्रश्न के कारण सहमता हुआ )
मां ! ये पूजी म्हाराज मुझे बहुत अच्छे लगते हैं ।
मैं बार-बार इनके पास जाकर इन्हें देखता हूं ।
फिर भी मन तृप्त नहीं होता ।
मातुश्री : बेटा ! तू भाग्यशाली है ।
कर्मों का हल्कापन है, इसी कारण तेरे मन में ऐसी बातें आ रही है ।
गुरु एक बार भी अपनी करुणामयी नज़रों से
जिस व्यक्ति की ओर देख लेते हैं, वह कृतार्थ हो जाता है ।
● ● ● ● ● ●? ● ● ● ● ● ●
मैं : मां ! मेरे मन में बार-बार यह भावना जाग रही है कि
मैं अपना पूरा जीवन पूजी म्हाराज के चरणों में भेंट कर दूं ।
मैं उनका छोटा शिष्य बनूँ और उनके चरणों में बैठकर पढता रहूँ ।
● ● ● ● ● ●? ● ● ● ● ● ●
मातुश्री : बेटा ! तेरी भावना बहुत अच्छी है ।
पर ऐसे भाग्य कहां है द्य तेरे बड़े भाई ( चम्पक मुनि )
सौभाग्यशाली हैं ।
उनको पूजी म्हाराज की सेवा करने का अवसर मिला है ।
तू एक काम कर सकता है ।
जितने दिन पूजी म्हाराज यहां रहें, प्रतिदिन दर्शन किया कर ।
उनके चरणों में अपना सिर लगाकर वंदना किया कर
और उपासना का लाभ उठा ।
● ● ● ● ● ●? ● ● ● ● ● ●
मैंने सहजभाव से अपनी बाल सुलभ जिज्ञासाओं को मां के सामने रखा ।
मां ने प्रत्येक जिज्ञासा का शांति और गंभीरता से समाधान दिया ।
किन्तु एक प्रश्न ने उसको बौखला दिया ।
मुझे यह ज्ञात होता कि
इस प्रकार का प्रश्न नहीं पूछना चाहिए तो मैं कभी नहीं पूछता ।
पर मैं कुछ जानता नहीं था,
इसलिए मन में जो आया, वही पूछ लिया ।
● ● ● ● ● ●? ● ● ● ● ● ●
उस प्रश्न के बाद मां के चेहरे का भाव देखकर और
उनका खीझपूर्ण उत्तर सुनकर मुझे अहसास हुआ कि यह बात पूछने की नहीं है ।
अब तो जब कभी उस प्रसंग की याद आती है,
मुझे हंसी आने लगती है ।
कभी-कभी संकोच का भी अनुभव होता है ।
● ● ● ● ● ●? ● ● ● ● ● ●
उस समय की ये बातें जब-जब स्मृति के दरवाजे पर दस्तक देती है,
मैं आज भी आत्मविभोर हो जाता हूं।
कौन जानता था कि एक बालक के मन की कल्पनाएं इतनी जल्दी साकार हो जायेंगी ।
गुरुदेव के चरणों में बैठकर अध्ययन करने का मेरा सपना जिस रूप में साकार हुआ,
मुझे वह एक आश्चर्य जैसा प्रतीत होता है ।
- गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलसी की आत्मकथा
“ मेरा जीवन मेरा दर्शन “ से
Rajendar Jain Dudhoria-जागरूकता मंच
विज्ञापन