"छोटे थे तो लड़ते थे
माँ मेरी है माँ मेरी है
आज बड़े हैं तो लड़ते हैं
माँ तेरी है माँ तेरी है।"
पिता ने आँगन घर बनवाया
माँ ने भर दिया प्यार,
बेटों ने मिलकर चुन डाली
अब आंगन में दीवार।
चला गया वो सह न सका
यह बंटवारे का वार,
बिलखती ममता देख रही है
बिखरा बिखरा प्यार।
व्याकुल नजरें ढूंढ रही हैं
आंगन वाला तुलसी क्यारा
पथराई पलके पूछ रही हैं
कहां गया मेरा मन्दिर प्यारा।
वो मेरे घनश्याम कहां
वो राधा वो श्याम कहां,
वो रामायण, श्री मद् गीता
मेरे सीता राम कहां ।
ज़मी विरासत बाँट चुके
अब तो मां की बारी है,
सारे मिलकर सोच रहे
यह किसकी "जिम्मेदारी" है।
यह कैसी "जिम्मेदारी" है।
एक माँ ने दस दस को पाल
अपने मुँह का दिया निवाला
जब बारी बेटों की आई
सबने मिलकर माँ की निकाला
फिर लालच के लाचारों ने
ममता के टुकडे कर डाले,
उमर बची थी माँ की जितनी
मास दिवस में बदल डाले।
अब तो माँ अपने ही घर
मेहमान सी बनकर रहती है,
आए पूनम और अमावस
वो रेन बसेरा बदलती है ।
जब भी महीना कोई बरस में
इकत्तीस दिनों का आता है,
वो दिन भूखी माँ को फिर
उपवास कराया जाता है।
हाथ में दे कर एक कटोरा
कोने में बैठाया जाता है,
हाँ,शाम सुबह की रोटी से
एहसान जताया जाता है।
कभी-कभी तो वह रोटी भी
कुत्ते छीन कर ले जाते,
वो दिन फिर अम्मा के हिस्से
बस फाके ही फाके आते।
आँगन में पानी की मटकी
आँगन में सुलाया जाता है,
जब-जब भी माँ घर बदले
आँगन को धुलाया जाता है।
नित रोज़ सवेरे बच्चों को
माँ चंदन से नहलाती थी,
नज़र का टीका लगा के माथे
कपड़े नये पहनाती थी।
वो ही माँ अब महीनो महीनो
बिन नहाए रह जाती है,
फटी पुरानी साड़ी से वो
तन की लाज बचाती है ।
माँ की आंखों के ही तारे
अब माँ को आंख दिखाते हैं,
जिनके आंसू माँ ने पोंछे
अब माँ को खूब रूलाते हैं।
देखो कितनी बेबस है माँ
सहमी सहमी सी रहती है,
पर, घर मेरा बदनाम ना हो
चुपचाप ये पीड़ा सहती है।
कभी हँसती कभी रोती है माँ
डर-डर कर जीवन जीती है,
फिर भी बच्चे रहे सलामत
वो दुआ खुदा से करती है।
वो दुआ खुदा से करती है।
वो दुआ.......