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गऊ है नेपाल की आत्मा : सुप्रीम कोर्ट ने ठुकराई थी, वर्तमान होम मिनिस्टर ओम प्रकाश आर्यल की याचिका

देश-विदेश Published by: Ravindra Arya Updated Thu, 18 Sep 2025 11:03 AM
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“सेक्युलरिज़्म की आड़ में सांस्कृतिक पहचान मिटाने की कोशिश पर अदालत की सख़्त नसीहत”

रिपोर्ट: रविंद्र आर्य

काठमांडू/नेपाल. नेपाल की राजनीति एक बार फिर धर्म, संस्कृति और पहचान के मुद्दे पर गरमाई हुई है। हाल ही में नेपाल सुप्रीम कोर्ट ने उस याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें गाय को राष्ट्रीय पशु के दर्जे से हटाने की माँग की गई थी। अदालत का यह आदेश केवल कानूनी दृष्टि से ही नहीं, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक दृष्टि से भी ऐतिहासिक महत्व रखता है।

यह फैसला ऐसे समय में आया है जब नेपाल की राजनीति “हिंदू राष्ट्र बनाम सेक्युलरिज़्म” की खींचतान से गुजर रही है। वामपंथी और धर्मनिरपेक्ष ताक़तें ‘समानता’ और ‘आधुनिकीकरण’ के नाम पर सांस्कृतिक परंपराओं पर सवाल उठाती रही हैं, जबकि राष्ट्रवादी संगठन इसे नेपाल की “अस्मिता और गौरव” का प्रश्न मानकर संघर्षरत हैं। नेपाल की प्रमुख राजनीतिक पार्टी (ओली सरकार) में सचिव रहे और वर्तमान में होम मिनिस्टर बने ब्राह्मण हिंदू ओम प्रकाश आर्यल ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी।

इसमें तर्क दिया गया कि नेपाल अब धर्मनिरपेक्ष गणराज्य है, इसलिए गाय को राष्ट्रीय पशु बनाए रखना संविधान के विरुद्ध है। यह दर्जा हिंदू धर्म विशेष की मान्यता है, जो अन्य समुदायों के अधिकारों का उल्लंघन करता है। नेपाल को एक बहुसांस्कृतिक और समावेशी राष्ट्र के रूप में प्रस्तुत होना चाहिए, इसलिए गाय को राष्ट्रीय प्रतीक से हटाया जाए। लेकिन इस याचिका के दाख़िल होते ही नेपाल भर में धार्मिक और राष्ट्रवादी संगठनों ने तीखा विरोध जताया। उनके अनुसार यह केवल गाय पर नहीं, बल्कि नेपाल की हिंदू आत्मा पर हमला था। सुप्रीम कोर्ट ने “ओम प्रकाश आर्यल की याचिका पर सख़्त नसीहत देते हुए” इसे सिरे से खारिज कर दिया। अदालत ने कहा कि गाय केवल धार्मिक प्रतीक नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक धरोहर है। नेपाल की कृषि, अर्थव्यवस्था और लोकजीवन में गाय की भूमिका ऐतिहासिक और निर्णायक रही है। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ परंपराओं और ऐतिहासिक प्रतीकों को मिटाना नहीं है। राष्ट्रीय प्रतीक किसी देश की पहचान होते हैं, और गाय नेपाल की हजारों साल पुरानी परंपरा और आस्था का प्रतिनिधित्व करती है। गाय को नेपाल में माता का दर्जा प्राप्त है। “गाई तिहार” जैसे पर्व आज भी ग्रामीण जीवन की आस्था का केंद्र हैं।

वैदिक परंपरा, लोकगीत और लोकविश्वास गाय को केवल पशु नहीं, बल्कि जीवन और समृद्धि का प्रतीक मानते हैं। इस आदेश ने नेपाल की राजनीति को सीधा झटका दिया। वामपंथी दलों और सेक्युलर लॉबी का एजेंडा धराशायी हुआ। राष्ट्रवादी और हिंदू संगठन सड़कों पर जश्न मना रहे हैं। सत्ताधारी गठबंधन अब दोहरी चुनौती में है—हिंदू अस्मिता का सम्मान और सेक्युलर वोट बैंक का प्रबंधन। यह साफ़ है कि आने वाले चुनावों में यह मुद्दा निर्णायक भूमिका निभा सकता है। नेपाल 2008 तक दुनिया का एकमात्र हिंदू राष्ट्र था।

गणतंत्र की घोषणा के बाद इसे धर्मनिरपेक्ष बना दिया गया। तभी से नेपाल की पहचान संकट में है। हिंदू संगठन लगातार इसकी “पुनर्स्थापना” की मांग कर रहे हैं। अब सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश इस बहस को और प्रबल करता है, और अप्रत्यक्ष रूप से हिंदू राष्ट्र की माँग को मज़बूती देता है। भारत के लिए यह निर्णय सकारात्मक है क्योंकि सांस्कृतिक रूप से दोनों देशों की परंपरा गऊ-पूजन और संरक्षण पर आधारित है।

पश्चिमी देशों और मिशनरी ताक़तों को यह झटका है, क्योंकि वे नेपाल की हिंदू पहचान को कमजोर करने की कोशिश करते रहे हैं। चीन और पाकिस्तान भी नेपाल की राजनीति में अपने हित तलाशते रहे हैं, लेकिन अदालत ने संकेत दिया कि “नेपाल की आत्मा इतनी आसानी से नहीं बदली जा सकती।” गाँव-गाँव में दीपक जलाकर और मालाएँ चढ़ाकर लोगों ने गाय माता का सम्मान किया। संतों ने इसे “अस्मिता की रक्षा” बताया।

युवाओं ने सोशल मीडिया पर #SaveCow और #NepalIdentity ट्रेंड करवा दिया। नेपाल सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश केवल कानूनी फैसला नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और राष्ट्रीय घोषणा है। यह साबित करता है कि नेपाल की आत्मा उसकी हिंदू पहचान से जुड़ी है। सेक्युलरिज़्म का अर्थ जड़ों से अलग होना नहीं है। गाय केवल धार्मिक प्रतीक नहीं, बल्कि नेपाल की सभ्यता का धड़कता हुआ दिल है।

रविंद्र आर्य : विश्लेषणात्मक पत्रकार, लेखक और भारतीय लोकसंस्कृति के संवाहक

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