जीवन और संगठनों में हमने अनेक बार देखा है कि चाटुकारिता और चमचागिरी के माध्यम से लोग पद तो पा लेते हैं, पर आत्मसम्मान खो बैठते हैं। इसके विपरीत, जो लोग संस्कारित होकर स्वाभिमान के साथ आगे बढ़ते हैं, वे प्रायः उपहास के पात्र बन जाते हैं-पर अंततः इतिहास उन्हीं का आदर करता है।
राजनीति और समाज दोनों में यह दृश्य सामान्य है-जो झुकना नहीं जानते, जो दंडवत होकर पद नहीं माँगते, वे प्रायः उपेक्षित रह जाते हैं। आज के समय में यह भले ही ‘अवगुण’ समझा जाए कि कोई व्यक्ति झुकता नहीं, पर जब वही व्यक्ति अकेले में स्वयं से संवाद करता है, तब उसे आत्मसंतोष मिलता है कि उसने अपने स्वाभिमान को नहीं बेचा।
ऐसे लोग भले ही पद न पा सकें, पर मन की शांति और आत्मसम्मान लेकर संसार से विदा होते हैं। यही संतोष, यही साधना, उन्हें ईश्वर के अधिक समीप ले जाती है। राम को तो राज्यापेक्ष का पद प्राप्त होते होते रह गया। यदि राम को राज्य मिल जाता तो शायद मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में रामकोहम नहीं पूछ पाते वो केवल राजा राम रह जाते लेकिन राम के पथ पर चलकर ही राम ने ईश्वर को प्राप्त किया थे तो वे एक मनुष्य ही मनुष्य के रूप में प्रकट हुए कर्मों से मर्यादा पुरुषोत्तम हो गए। पद प्रधान नहीं है कर्म प्रधान है राम ने पूरे मार्ग में कहीं भी अहंकार नहीं दिखाया विनम्रता सरलता सहजता।
और संतोष के साथ आगे बढ़े कभी उन्होंने यह नहीं कहा कि मैं अयोध्या का राजकुमार हूँ या मैं श्रेष्ठ कुल का वंशज हूँ। इसी मर्यादा ने उनको महान बनाया। राम ने स्वाभिमान और अभिमान के अंतर को भी बड़े गुड़ तरीके से समझाया जब बालि का वध किया मृत्यु शैया पर पड़े रावण का भी अहंकार जब तिरोत हुआ तो लक्ष्मण को फ़ोन करो। गुरु ज्ञान लेने के लिए भेजा।उसके चरणों की ओर खड़े होकर ज्ञान को प्राप्त करो
स्वाभिमान और अहंकार में सूक्ष्म किंतु गहरा अंतर है। जब यह अंतर समझ में आता है, तब व्यक्ति विनम्र रहते हुए भी स्वाभिमान से जीना सीख लेता है। किन्तु स्वाभिमान की आड़ लेकर अहंकार को पोषित करना पतन का कारण बनता है। इसलिए सजग रहें — विनम्र रहें, सहज रहें, सरल रहें। यही मनुष्यता का मूल है।