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आत्ममीमांसा : मालिक के वफादार, हर फन में माहिर, कर्मचारी के पसीने के दुश्मन

आपकी कलम Published by: paliwalwani Updated Sun, 07 Dec 2025 03:06 AM
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आत्ममीमांसा (109)

सतीश जोशी, वरिष्ठ पत्रकार

नई दुनिया ही नहीं हर संस्थान में ऐसे कर्मचारी होते हैं, जो मालिकों की आँख-नाक होते हैं। इनकी जिम्मेदारी बड़ी होती है, पर ये यह जिम्मेदारी लद्दू घोड़ों पर काम लादकर खुद उसकी क्रेडिट लेते हैं, अपनी नौकरी बचाते रहते हैं और कर्मशील लोगों को नाकारा साबित करने की कसरत करते रहते हैं। 

ऐसे महान लोगों के दर्शन

नई दुनिया जैसे प्रतिष्ठान में भी  ऐसी महान हस्तियों के मुझे भी दर्शन होते रहे हैं। मुझसे कुछ लोग असहमत हो सकते हैं, मेरा आंकलन है,यह मेरी भड़ास भी हो सकती है या सत्य से साक्षात्कार भी। इनमें कुछ ऐसे लोग हैं जो नियम-कानून, श्रम कानून में ऐसी गलियां निकालने में माहिर थे कि कर्मचारियों का हक कैसे मारा जाए और मालिक का धन कैसे बचाया जाए और लागत कैसे कम की जाए। 

मालिक के हितचिंतक

ऐसे लोग मालिक के लिए शुभचिंतक और कर्मचारियों के लिए दुशमन से लगते हैं। इनमें मालिक की प्रशंसा करने वाला समूह भी होता है। वे हमेशा हर बात में हाँ में हाँ मिलाते हैं। मालिक का सोच संस्थान के हित में न हो तब भी दुम हिलाना ही रहा है। 

काम किस पद पर, ग्रेड किस पद की

कर्मचारी से काम किस पद पर लेना, किस ग्रेड की तनख्वाह देना, यह राय देने वाले भी संस्थान में रहे। मैनेजर का काम ही यही था कि वह संस्थान के लिए खरीदी किस तरह करे। अखबार के एजेंटों का कमीशन किस तरह कम करना, यह भी मैनेजर की खूबी में शामिल था। 

हाकर, एजेंटों का हक मारने वाले

साइकिल पर घर-घर अखबार बांटने वाले हाकर का हक मारना प्रसार मैनेजर की खूबी मानी जाती थी। विज्ञापन एजेंसी से शर्तों पर विज्ञापन लेना और फिर कमीशन के बड़े बिल में डाका डालना विज्ञापन मैनेजर को आना चाहिए। जिसको आता है, वही मालिक की नजर में श्रेष्ठ है। उपसंपादक की पोस्ट पर काम करने वाला जीवनभर प्रूफरीडर की ग्रेड लेता रहा। 

रिपोर्टर, सम्पादकीय साथी, सब....

सहायक सम्पादक, उप सम्पादक की ग्रेड पर पसीना बहाता रहा। रिपोर्टर सड़क-सड़क, दफ्तर-दफ्तर चप्पलें घीसता रहा। शहर में रिपोर्टर का दबदबा और अकांटेंट के बही-खाते में उसकी हैसियत वही जानता होगा। कोई कापी राइटर, कोई प्रूफरीडर और कोई खबर इकट्ठा करने वाला कारकून। यह कला अखबार के मैनेजर का ही तो होता है। 

डोर अभयजी के हाथ में...

सम्पादक कोई भी रहा हो, सम्पादकीय विभाग में प्रबंधन, कार्यविभाजन और ग्रेड तय करने का काम तो अभयजी छजलानी करते रहे। आप समझ जाइए कि क्या सभी को वही वेतन, ग्रेड मिली होगी जिस पर वे कार्यरत थे। अच्छे-अच्छे सूरमा शहर में मूँछ पर ताव देकर घूमते रहे और कागजों पर उनकी मूँछ नीचे झुकी हुई ही थी। मैं खुद भी इसका शिकार हुआ। और भी शिकार हुए, वे इस आत्ममीमांसा को पढ़कर खुद समझ जाएंगे। कम्पोजिंग विभाग का प्रमुख ठेकेदार, मोनो टाइप और मोनो फोटो कम्पोजिंग, मशीन सेक्शन, विज्ञापन, अकांउट, प्रसार, परचेस, टाइमकीपर और प्रिंटरी सभी विभागों में ऐसे सूरमा थे जो कर्मचारी, श्रमिक, कारकून सभी के पसीने के दुश्मन थे। जितना पसीना बहाया जाता था, उतनी उसको कीमत नहीं मिलती थी। 

बोनस में भी होता था खेल...

बोनस भी कागज पर जो ग्रेड है उसी तरह ही तय होती थी। याने इनाम पर भी जेबकटी। यहाँ शिकार लोगों के नाम तो नहीं दे रहा हू्ँ पर जो शिकार करते थे, खुद पूरी तनख्वाह लेते, मालिकों के कान भरते और सहयोगियों के शोषण में जिनको कर्मशीलता का प्रमाण पत्र मिलता रहा वे हैं- डीडी पुरोहित, किशोर शर्मा, विठ्ठल नागर, बहादुर सिंह गेहलोत , गंगाधर मिश्र, प्रकाश कानूनगो, पीएफ का हिसाब रखने अशोक रुनिजा (जिनके पिताजी चंपालाल जी नई दुनिया में भृत्य थे) , वकील गंगाप्रसाद, सुरेश गावड़े, मोहनलाल नीमा,शिवबली सिंह और मोहनलाल वर्मा।

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