इंदौर,। (प्रदीप जोशी...) मालवा-निमाड़ बीजेपी का गढ़ माना जाता है और इस गढ़ में कांग्रेस ने 2018 में सैंध लगाने का किया था। छह माह पूर्व कांग्रेस में सिंधिया के नेतृत्व में हुई टूट के बाद छह सीटे रिक्त हो गई थी। यह सभी सीटे कांग्रेस के कब्जे वाली थी तथा आगर मालवा की आगर सीट मनोहर ऊटवाल के निधन के कारण रिक्त हो गई थी। उप चुनाव में उन सभी सीटों पर पुराने कांग्रेसियों के जरिए फिर से भाजपा का कब्जा हो गया। कांग्रेस को सिर्फ आगर सीट से ही संतोष करना पड़ा। यह चुनाव परिणाम खासे चौकाने वाले रहे क्योंकि मालवा निमाड़ से कांग्रेस को खासी उम्मीद बंधी हुई थी। बीते छह माह से कांग्रेस ने चुनाव का माहोल बनाना शुरू कर दिया था। कांग्रेस से बगावत करने वालों को गद्दार की उपाधी से नवाजते हुए खूब माहोल भी बनाया। वीटों पावर रखते हुए कमलनाथ ने टिकटों का बटवारे में भी किसी की नहीं चलने दी। बदनावर जैसी सीट पर तो उन्होंने नाम घोषित होने के बाद टिकट बदल दिया। बहरहाल अनपेक्षित परिणामों के बाद कांग्रेस के बड़े नेताओं की इस चुनाव में भूमिका पर पार्टी संगठन को मंथन करने का आवश्यकता है।
● बड़े नेताओं की रस्म अदायगी पड़ी भारी : मालवा निमाड़ में कांग्रेस की और से चुनाव की कमान जीतू पटवारी, सज्जनसिंह वर्मा, उमंग सिंघार, हनी बघेल, अरूण यादव, सचिन यादव, मीनाक्षी नटराजन, मनोज राजानी, राजेंद्र सिंह बघेल जैसे नेताओं के हाथ में थी। सात सीटों पर दर्जन भर से ज्यादा बड़े नेता लगे होने के बाद भाजपा ने लंबे अंतर से कांग्रेस को पटखनी दे दी। जाहिर बात है कि इन नेताओं की भूमिका पर पार्टी संगठन को मंथन करना पड़ेगा। इन सभी नेताओं की भूमिका क्षेत्र में रस्म अदायगी जैसी रही। वर्मा, पटवारी और सिंघार ने तो अपनी बयानबाजी भी जी भर कर की। हल्के शब्दों को मतदाताओं ने कितनी तवज्जों दी यह परिणाम ने साफ कर दिया।
● सांवेर-परिवार में घिरे रहे गुड्डू : सांवेर सीट से कांग्रेस के टिकट पर मैदान में उतरे प्रेमचंद गुड्डू को सपने में भी इल्म नहीं होगा कि वे इतने लंबे अंतर से हार जाएंगे। मेनेजमेंट के उस्ताद माने जाने वाले गुड्डू भाजपा की संगठन रणनीति में ऐसे घिरे की फिर बाहर नहीं निकल पाए। वैसे इस चुनाव में गुड्डू की तरफ से सारी कमान उनकी बेटी दामाद ने संभाल रखी थी। यही कारण रहा कि कांग्रेस के स्थानीय नेताओं के पास ज्यादा कुछ करने के लिए नहीं था। परिवारजनों की दखलंदाजी के कारण भी आधे में ही गु्ड्डू चुनाव लूज कर गए। वैसे भी उनका ज्यादा समय चुनावी शिकायतों में बीत गया और वे मतदाताओं तक पहुंच भी नहीं पाए। जबकि उनके मुकाबले में तुलसी सिलावट मतदान से ठीक पहले तक संपर्क में जुटे हुए थे।
● हाटपिपलिया - कमजोर पड़े पटवारी और बघेल : हाटपिपलिया सीट से इस्तीफा देकर कांग्रेस में शामिल हुए मनोज चौधरी के लिए जीतू पटवारी बैंगलुरू तक पहुंच गए थे। भाजपा पर चौधरी को बंधक बनाने का आरोप लगाते हुए पटवारी ने खासा हंगामा किया था और उस वक्त उन्हें पुलिस ने हिरासत में भी ले लिया था। बहरहाल चौधरी अपने फैसले पर अटल रहे और भाजपा के टिकट पर मैदान में उतरे। कांग्रेस ने उनके सामने पूर्व विधायक तथा वरिष्ठ नेता राजेंद्र सिंह बघेल के पुत्र राजवीर को मैदान में उतारा। राजेंद्रसिंह बघेल के साथ जीतू पटवारी की भी प्रतिष्ठा इस सीट से जुड़ी हुई थी। दोनों ही नेता इस सीट पर बुरी तरह कमजोर साबित हुए।
● बदनावर - तीन पूर्व मंत्री मिलकर नहीं कर सके चमत्कार : सिंधिया कैम्प के खास सिपहसालार तथा सरकार में मंत्री रहे राजवर्धन सिंह दत्तीगांव ने तो बदनावर में चमत्कार ही कर दिया। जबकि चमत्कार की उम्मीद कांग्रेस लगा रही थी। सीट के पुराने इतिहास से लेकर ऐन मौके पर टिकट बदलने और नाराज भाजपाईयों को साधने जैसे सारे काम किए गए। यहीं नहीं बाला बच्चन, उमंग सिंघार, हनी बघेल जैसे पूर्व मंत्री पूरे समय क्षेत्र में डटे रहे। तीन कद्दावर नेता स्थानीय नेताओं के साथ मिलकर भी मतदाताओं को प्रभावित करने में नाकाम रहे। जबकि कमलनाथ ने इस सीट पर जातिगत आधार पर टिकट में बदलाव किया था।
● सुवासरा - स्थानीय नेताओं की उपेक्षा बनी हार का कारण : मंदसौर जिले की सुवासरा सीट से मंत्री हरदीपसिंह डंग की बड़ी जीत ने कांग्रेस की कमजोर रणनीति और संगठन की कमजोरी को उजागर करने का काम किया है। दो साल पहले जिस सुवासरा से डंग मात्र साढ़े तीन सौ वोट से जीते थे, पाला बदलने के बाद उपचुनाव में थोक बंद वोटों से दोबारा जीत गए। उनकी जीत के कारण अलग हो सकते है पर कांग्रेस की हार का कारण प्रत्याशी राकेश पाटीदार की स्वयं की कमजोरी मानी जाएंगी। इस सीट पर पूर्व सांसद मीनाक्षी नटराजन की प्रतिष्ठा भी जुड़ी थी जिसे बचाने में वे नाकाम रही।
● मांधाता और नेपानगर - हार का जवाब अरूण यादव को देना होगा : कांग्रेस से बगावत कर भाजपा का दामन थामने तथा उप चुनाव में भाजपा की तरफ से मैदान में उतरने वाले नारायण पटेल और सुमित्रा कास्डेकर को जनता ने भरपूर समर्थन दिया। इन दोनों सीटों की कमान पूर्व पीसीसी चीफ अरूण यादव और उनके अनुज पूर्व मंत्री सचिन यादव पर थी। पिछले आम चुनाव से भी ज्यादा मतों से पटेल और कास्डेकर की जीत मिल गई। कभी यादव कैम्प का ही हिस्सा रहे नारायण पटेल और सुमित्रा कास्डेकर ने चुनाव की तारीख तय होने के थोड़े समय पूर्व ही कांग्रेस से नाता तोड़ा था। बावजूद इसके जनता को उन्हें इस कदर समर्थन देना कांग्रेस की कमजोरी को साबित कर रहा है। इसका जवाब अब अरूण यादव और सचिन यादव को ही देना होगा।
● पालीवाल वाणी ब्यूरो-Sunil Paliwal-Anil Bagora...✍️
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